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कुछ वस्तुओं के बारे में यह भी माना जा सकता है कि उनकी क़ीमत कुछ ब़ढ भी सकती है, लेकिन इसका निष्कर्ष यह नहीं हो सकता कि ग्रामीण उत्पाद को न्याय नहीं मिला. महंगाई ब़ढने के कारण सरकारी कर्मचारियों का महंगाई-भत्ता ब़ढाया जाता है या सरकारी कर ब़ढ जाने से महंगाई ब़ढती है. उस समय दलील नहीं दी जाती है कि महंगाई भत्ता ब़ढाया जाए या न ब़ढाया जाए या सरकार अवश्यक ख़र्च न करे. इसी प्रकार उत्पादक को न्याय मिलना चाहिए. व्यापारियों का एवं अन्य उच्च वर्गों का पंचसितारा होटलों, दूरदर्शन, एशियाड या निर्गुट-सम्मेलन पर होने वाला अनाप-शनाप ख़र्च एवं विलास कम किया जाना चाहिए. ऐसा होने से ग्रामीणों के पक्के माल की ओर सेवाओं की क़ीमतें घटेंगी. क़ीमतें घट जाने पर ग्रामीण उत्पादक का लागत-ख़र्च कम होगा. ऐसा होने पर आज की क़ीमतों में ही किसान की लागत-ख़र्च जितना मूल्य मिल जाएगा. जो भी हो, उत्पादक को लागत-ख़र्च जितना दाम न मिले, यह दलील नहीं हो सकती.
अनाज और कच्चा माल महंगा होने के कारण हो सकता है कि उच्च मध्यम वर्ग और अमीरों की महिलाओं को 50 साड़ियो की बजाय 40 साड़ियो से काम चलाना प़डे या रोज मिठाई और 10-12 वस्तुएं भोजन में रखने की बजाय 5-7 चीजों से भोजन करना प़डे. इन सभी चीजों से ज़्यादा फर्क उनके जीवन में नहीं प़डेगा. निम्न मध्यम वर्ग और नगरों के संगठित मजदूर को रोज सिनेमा की बजाय हफ्ते में दो बार सिनेमा इसकी बजाय देखना प़डे या व्यसनों की मात्रा कुछ कम करनी प़डे. किसी के भोजन-वस्त्र में या आवश्यकताओं में अनाज महंगा होने से या कच्चे माल की क़ीमत थो़डी ब़ढ जाने से कोई कमी नहीं आएगी. माल के दाम के साथ-साथ ग्रामीणों की मजदूरी ब़ढेगी, यह हमने पहले देखा ही है. ऐसी परिस्थिति में ब़ढे हुए अनाज की क़ीमतों से ग्रामीण मजदूर या कारीगर के जीवन-स्तर में कोई फर्क नहीं प़डेगा. कई स्थानों पर कृषि- कार्य के लिए मजदूरी का एक हिस्सा मजदूर को अनाज में दिया जाता है, जो सैक़डों वर्षों से स्थिर है. अत: अनाज का भाव ब़ढने पर भी उन्हें घाटा नहीं होगा.
सवाल पूछा जाता है कि जो छोटे किसान हैं और जिनके पास बाज़ार में बेचने लायक माल रहता ही नहीं, अपने परिवार के ख़र्च जितना ही माल जो पैदा करता है, उसे इस आंदोलन से क्या लाभ? ऐसे ही किसान की संख्या अधिक होने से यह आंदोलन ब़डे किसानों का आंदोलन हो जाता है. यह तर्क सही नहीं है. आज हर छोटा किसान कोई न कोई नक़द फसल लगाता है और उसे अपने फसलों को बाज़ार में ले जाना प़डता है. जो किसान केवल अनाज बोते हैं, मजबूरन उन्हें अपने अनाज सस्ते में बेचना प़डता है और उसी अनाज को चार माह बाद वे किसान ब़ढे दामों में ख़रीदते हैं. सवाल यह है कि आज हर किसान बेचता ही है, तो फिर वह सस्ते में, कम दाम में क्यों बेचे?
लागत मूल्य, देश भर के लिए कैसे तय किया जाए, यह सवाल पूछा जाता है. लागत मूल्य तय करना बहुत पेचीदा और कठिन सवाल है. ज़मीन की किस्म, बारिश, खेती की कुशलता आदि कई बातों पर लागत-ख़र्च निर्भर करेगा, अत: वह भिन्न-भिन्न होगा. तब वाजिब मूल्य क्या हो? इसका उत्तर है कि उद्योग में भी यही सवाल लागू होता है. कारखाने में बने हुए माल का लागत-ख़र्च कारखाने का सुप्रबंध, पूंजी की सुलभता या अभाव, श्रमिकों की कुशलता, मालिक मजदूर- संबंध आदि कई बातों पर निर्भर करता है. तो भी उद्योग में उत्पादन का लागत-ख़र्च निकाला जाता है और उनका औसत निकालकर एवं अधिक से अधिक संख्या के कारखानों को, जो दर लागू होता हो, वह लागत ख़र्च मानकर उसके अधार पर बाज़ार में क़ीमत तय होती है या सरकार इसे ख्याल में रखकर मूल्य-नियंत्रण करती है. जो बात कारखानों पर लागू होती है, वही बात कृषि पर लागू होती है. ज़मीन की किस्म में फर्क ज़रूर रहेगा, लेकिन गांव से लेकर बाज़ार से या स़डक से, जो खेत नजदीक होगा, उसकी या अच्छी ज़मीन की क़ीमत ज़्यादा होगी. और इसलिए इस पूंजी पर सालाना ब्याज की रक़म अधिक आएगी, जो लागत-ख़र्च में शामिल रहेगी. ऐसी ज़मीन पर निराई, जोत, मंडी तक उपज को ले जाना आदि ख़र्च कम आएगा. दूसरी तरफ़, जो ज़मीन स़डक से या गांव से दूर होगी या कम पैदावार वाली होगी, उसकी क़ीमत कम होने से उस पर ब्याज कम होगा, लेकिन ऐसी ज़मीन पर निराई, जोत, मंडी में माल भेजने का व्यय आदि का ख़र्च अधिक आएगा. कुल मिलाकर दोनों ज़मीनों के बारे में लागत ख़र्च का अंतर हम सोचते हैं, उतना अधिक नहीं रहेगा. वैसे ही किसी एक क्षेत्र के 70 प्रतिशत ज़मीनों पर जो लागज ख़र्च मौजूद हो, वह लागत ख़र्च उस क्षेत्र के लिए सही माना जाए. ऐसी कुछ बातें ध्यान में रखकर लागत ख़र्च निकालना असंभव कार्य नहीं माना जाना चाहिए.
एक सवाल यह भी है कि किसान को वाजिब दाम मिलने से किसान की अमीरी और विषमता ब़ढेगी. यह सही नहीं है. हमने पहले देखा कि खेती घाटे का सौदा है. गांवों में अमीर दीखने वाले किसान खेती के कारण अमीर नहीं हैं. कृषि के अलावा दुकानदारी, साहूकारी, उद्योग, ठेकेदारी, डॉक्टरी, वकालत आदि पेशा यह उनकी अमीरी का कारण है. केवल खेती पर कोई 10 सालों में अमीर हुआ हो, यह अपवाद है, नियम नहीं.

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