दो कहावतें हैं. एक लालू यादव और राम विलास पासवान पर तथा एक कांग्रेस पर लागू होती है. कछुए और खरगोश की दौड़ की कहानी हम सबने बचपन में पढ़ी भी है और जीवन में कई बार सुनी भी है. खरगोश सोचता था कि कछुआ कहां उसके सामने दौड़ पाएगा, इसलिए आराम कर लो, बाद में दौड़ कर हरा ही दूंगा. लालू यादव को लगता था कि वह और राम विलास पासवान मिल जाएंगे तो ताक़तवर दो समाजों का गठजोड़ हो जाएगा. यादव और पासवान और फिर मुसलमान उनके साथ रहेगा ही. वह भाजपा के साथ जाएगा नहीं. दोनों ने खरगोश की तरह सोचा और आराम से छह महीने पहले पंद्रह साल पुरानी रणनीति पर अमल करने लगे. नीतीश ने दो साल में खामोश चेतना पैदा कर दी, आशाएं पैदा कर दीं. कछुआ जीत गया और एक बार फिर खरगोश हार गया.
कांग्रेस ने हिसाब लगाया कि यदि वह सभी दो सौ तैंतालिस सीटों पर चुनाव लड़े तो कम से कम चालीस सीटें मिलेंगी. राहुल गांधी ने जमकर प्रचार किया. चुनाव से पहले राहुल गांधी पटना में लड़कियों के कॉलेज में गए. कहा कि नौजवानों को टिकट देंगे. पर टिकट बंटे तो, लेकिन मिले उन्हें, जिन्होंने टिकटों के लिए पैसा दिया. पांच या सात बड़े लोगों की सिफारिशों से टिकट बंटे, जिनमें ठेकेदारों ने पैसे लिए. पार्टी की कोई रणनीति थी ही नहीं. सारा हिसाब-किताब सही था कि दो सौ तैंतालिस में चालीस सीटें आ जाएंगी और कांग्रेस बैलेंसिंग स्थिति में आ जाएगी. कांग्रेस का यह हिसाब नदी के किनारे खड़े उस आदमी की तरह था, जिसने नदी की गहराई का औसत निकाला और नदी पार करने लगा. नदी पार करने के बाद देखा कि उसका लड़का है ही नहीं. वह डूब गया था. वह सोचने लगा कि औसत तो ठीक था, फिर लड़का डूबा क्यों. बिहार की चुनावी नदी में कांग्रेस का लड़का डूब गया, अब कांग्रेस हिसाब-किताब कर रही है.

दरअसल यह बिहार के लोगों की जीत है. बिहार की जनता बिहार को तऱक्क़ी के रास्ते पर देखना चाहती है. बिहार की राजनीति में अब तक जातिपात की रोटी सेंक कर राज करने वाले राजा होते थे. राजनीतिक दलों ने यह मान लिया था कि बिहार की जनता स़िर्फ जाति के आधार पर वोट डालती है, लेकिन लोगों ने इस बार मतदान में जो उत्साह दिखाया, युवाओं और खासकर महिलाओं ने जिस प्रकार आगे बढ़कर मतदान में हिस्सा लिया, उससे यही नतीजा निकाला जा सकता है कि बिहार की जनता ने इस चुनाव में जातिपात की दीवार को गिरा दिया.

इस बार बिहार चुनाव की खासियत यह भी रही है कि राज्य की जनता ने धर्म के नाम पर वोट को बंटने नहीं दिया. बिहार के मुस्लिम मतदाताओं ने इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण संदेश दिया है. पहली बार बिहार के  मुसलमानों ने भावनात्मक मुद्दों को दरकिनार कर वोटिंग की है. पहली बार बिहार के  मुसलमानों ने पूरे राज्य की समस्याओं, विकास और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से खुद को जोड़कर वोटिंग की है. पहली बार बिहार के मुसलमानों ने राजनीति की मुख्यधारा में हिस्सा लिया और चुनाव नतीजों की रंगत ही बदल दी. बिहार में 16.5 फीसदी आबादी मुसलमानों की है. राज्य के  87 फीसदी मुसलमान गांवों में रहते हैं, स़िर्फ 13 फीसदी शहर में. बिहार में मुसलमान सबसे पिछड़ा समुदाय है. गांवों की हालत खराब है. मुसलमान ग़रीब हैं, अशिक्षित हैं, बेरोज़गार हैं. ज़्यादातर मुसलमान भूमिहीन या छोटे किसान हैं. चुनाव के व़क्त हर दल खुद को उनका मसीहा साबित करने में लग जाता है. कोई मुसलमान मुख्यमंत्री बनाने का भरोसा देता है तो कोई नाइंसा़फी के खिला़फ आवाज़ बुलंद करने का आश्वासन देता है. आज़ादी हासिल हुए 63 साल हो गए. बिहार में हर रंग की सरकारें आईं और चली गईं, लेकिन मुसलमानों की हालत साल दर साल खराब होती गई. समस्या यह है कि मुसलमानों का वोट पाने वाली पार्टियां उनकी समस्याओं को खत्म करना तो दूर, चुनाव के बाद उनके लिए आवाज़ भी नहीं उठाती हैं. कुछ नेताओं और राजनीतिक दलों को लगता है कि मुसलमानों को भावनात्मक विषयों में उलझा कर वोट पाया जा सकता है. इस बार ऐसे दलों और नेताओं को बिहार के मुसलमानों ने नकार दिया. यही वजह है कि अब तक लालू यादव और राम विलास पासवान को समर्थन देते आए बिहार के अल्पसंख्यकों ने उनका दामन छोड़ दिया. कांग्रेस पार्टी ने क़रीब पचास मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा और चुनाव से कुछ व़क्त पहले एक मुसलमान को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया, लेकिन इस रणनीति से कांग्रेस को फायदा नहीं पहुंचा और पार्टी स़िर्फ चार सीटों पर ही सिमट कर रह गई. बिहार में करीब 54 सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमान मतदाताओं की संख्या बीस फीसदी से ज़्यादा है. इन चुनाव क्षेत्रों में मुसलमानों का समर्थन निर्णायक है. हैरानी की बात यह है कि इन 54 सीटों में से चालीस से ज़्यादा सीटों पर जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल की है. इन सीटों पर भाजपा या जदयू की जीत का मतलब तो यही है कि बिहार के मुसलमान और दूसरे समुदाय के लोग एक ही तरह से सोच रहे थे. उर्दू टीचरों की बहाली, बिहार में सड़कों का बनना, स्वास्थ्य सेवाओं में बढ़ोत्तरी और कानून व्यवस्था का बेहतर होना बिहार के मुसलमानों को भी पसंद आया. चुनाव के नतीजे इस बात को साबित करते हैं कि दूसरे समुदायों की तरह बिहार के  मुसलमानों ने भी एक बेहतर सरकार और विकास के पक्ष में वोट दिया. यह कहा जा सकता है कि भारत की चुनावी राजनीति में यह चुनाव मील का पत्थर साबित होगा.
बिहार चुनाव के  नतीजे कई मायनों में ऐतिहासिक हैं. सबसे पहली वजह यह है कि बिहार की जनता ने चुनाव को जातिपात के बंधन से मुक्त कर दिया है. बिहार चुनाव में नीतीश कुमार ने विकास के  रथ पर सवार होकर जो तीर छोड़ा, वह बिल्कुल निशाने पर लगा, जिसमें लालू प्रसाद यादव की लालटेन बुझ गई तो राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी की झोपड़ी भी उड़ गई. सोनिया गांधी और राहुल गांधी के हाथ बिहार की राजनीति में ओझल हो गए. का़फी सालों बाद एक अच्छी सरकार का स्वाद चखने वाली जनता ने नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनाया है. राज्य को आगे ले जाने की फिर से उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपी है. एनडीए गठबंधन को तीन चौथाई बहुमत हासिल हुआ है. नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड को 115 सीटें मिलीं, जबकि उसकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी को 91 सीटें मिलीं. दोनों दलों को कुल मिलाकर 206 सीटों पर जीत मिली है, जबकि राजद और लोजपा गठबंधन 25 सीटों पर सिमट कर रह गया. लालू यादव का मुस्लिम और यादव वोट बैंक और राम विलास पासवान का दलित वोट बैंक किसी भी ताकतवर विरोधी को चुनाव में हराने के लिए पर्याप्त है, लेकिन चुनाव के नतीजों से यह साबित होता है कि बिहार के लोगों ने वोट बैंक की राजनीति को नकार दिया.
दरअसल यह बिहार के लोगों की जीत है. बिहार की जनता बिहार को तऱक्क़ी के रास्ते पर देखना चाहती है. बिहार की राजनीति में अब तक जातिपात की रोटी सेंक कर राज करने वाले राजा होते थे. राजनीतिक दलों ने यह मान लिया था कि बिहार की जनता स़िर्फ जाति के आधार पर वोट डालती है, लेकिन लोगों ने इस बार मतदान में जो उत्साह दिखाया, युवाओं और खासकर महिलाओं ने जिस प्रकार आगे बढ़कर मतदान में हिस्सा लिया, उससे यही नतीजा निकाला जा सकता है कि बिहार की जनता ने इस चुनाव में जातिपात की दीवार को गिरा दिया. वोट बैंक की राजनीति को एक सिरे से नकार दिया. बिहार के लोग आगे बढ़ना चाहते हैं. अंधकार के उस दौर में फिर से नहीं जाना चाहते, जहां खौ़फ और निराशा जीवन का अभिन्न अंग बन चुका था. यही वजह है कि लालू यादव और राम विलास पासवान की पार्टियों के परंपरागत समर्थकों ने उन्हें छोड़ दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि पूर्व मुख्यमंत्री एवं राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद की पत्नी राबड़ी देवी राघोपुर और सोनपुर दोनों विधानसभा सीटों से चुनाव हार गईं. अगर लोगों ने जाति के नाम पर वोट दिया होता तो राबड़ी देवी अपने ही घर की सीट राघोपुर से कभी नहीं हारतीं. राम विलास पासवान के भाइयों को हार का सामना नहीं करना पड़ता. कांग्रेस पार्टी ने इस चुनाव में काफी कन्फ्यूजन फैलाया, लेकिन पार्टी को महज चार सीटें मिली हैं. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष महबूब अली कैसर और साधु यादव को भी चुनाव में हार झेलनी पड़ी है. विश्लेषक यह कहते रहे कि कांगे्रस पार्टी अगड़ी जाति का समर्थन पाएगी, जिसका नुक़सान नीतीश कुमार को होगा, लेकिन बिहार की जनता जातिपात की राजनीति से आगे निकल चुकी थी. नीतीश कुमार ने जनता की नब्ज़ को समझा. भ्रष्टाचार को खत्म करने का वादा कर उसका समर्थन हासिल किया. नीतीश विकास के मुद्दे पर डटे रहे. जातिपात की राजनीति और विकास की इस लड़ाई में वोटरों ने विकास को चुना. बिहार की जनता ने एक ऐसा फैसला दिया, जिसकी उम्मीद खुद नीतीश कुमार को भी नहीं थी.

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