मेरा बेटा मुंबई में रहता है । सालों बाद मिला । उसके लिए मैं कहीं खो गया था । मिला तभी 2014 में जब मोदी जी को जीत मिली । आजकल वह मुंबई में एक अच्छी सरकारी कंपनी में ब्रांच मैनेजर की पोस्ट पर है । उसके संयोग से और मेरे दुर्योग से वह हिंदूवादी है । मुझे तब पता चला जब वह मोदी के जीतने पर खुश हुआ । तब अर्नब गोस्वामी टाइम्स नाउ में था और मेरा बेटा उसका चैनल रोज देखता था । मैंने अपने पेपर के कुछ अंक उसको दिखाए जो उसे बिल्कुल पसंद नहीं आये क्योंकि उनमें मोदी की जबरदस्त आलोचना थी । पिछले दिनों नुपुर शर्मा पर एक जज की फटकार के संदर्भ में उसने फेसबुक पोस्ट लिखा जिसमें ‘लिब्रांडु’ शब्द का प्रयोग किया । मैंने इस शब्द पर लाइट मूड में उसे दो हंसते हुए इमोजी भेजे कि अच्छा लगा ‘लिब्रांडु’ । पर वह लाइट मूड में नहीं था । उसने गम्भीर होकर कुछ देर बहस की और अंत में लिखा कि अगर आप भी जज के पक्ष में हैं तो आप भी मेरे लिए ‘लिब्रांडु’ हैं । आप समझ सकते हैं कि एक बेटा अपने पिता को किस शब्द से सम्बोधित कर रहा है या करेगा । मुझे यकीन है कि आप इस शब्द का मतलब समझ रहे होंगे । ‘लिबरल + …..’। सिर पर एक गंभीर सवाल भूत की सवार है कि यह आग जो परिवारों तक आ गयी है यह कैसे बुझेगी । समझ से परे है , क्योंकि हम हर हाल में लिबरल कहलाते हैं । चाहे हमें ‘लेफ्ट लिबरल’ कह कर गाली दी जाए, चाहे ‘लिब्रांडु’ कह कर । लेकिन ये लोग लिबरल नहीं हैं । ये कट्टर हैं, आक्रामक हैं । आप पूरी दुनिया को खुली नजर और खुलेपन से देख सकते हैं पर इनकी नजर पर घोड़े की तरह दोनों ओर आड़ बंधी हुई है । ये इधर उधर देख ही नहीं सकते । मजबूर हैं । इस आक्रामकता को दिनों दिन बढ़ता हुआ देख रहे हैं हम , क्योंकि सत्ताधीश पार्टी ‘ओक्टोपस’ की भांति देश में अपना विस्तार कर रही है । उसके समस्त लचीले हाथ या पैर कहां कब किसको लील जाए कौन बता सकता है । उदयपुर की घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है । सवाल है क्या अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जिसे मुस्लिम आतंकवाद भी कहा जाता है, भारत में पैर पसार सकता है । यदा कदा तो ऐसे लोग पकड़े भी जाते हैं । पर नुपुर शर्मा प्रकरण के बाद इसकी आशंका बहुत बढ़ गयी है । कल ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर अपने शो में अभय दुबे ने इस ओर इशारा करते हुए चिंता व्यक्त की । उन्होंने कहा कि समय रहते इसको न रोका गया तो घर घर में फियादीन मिलेंगे । उन्होंने एक अच्छा और कारगर रास्ता भी सुझाया कि जो भी विपक्षी दल खुद को मुसलमानों के रहनुमा समझते हैं उन्हें चाहिए कि वे मुसलमानों के बीच जाएं और उनसे संवाद बनाएं, सम्पर्क जोड़ें । मुस्लिम धर्मगुरुओं और उनकी जमातों से मिल कर समय रहते ऐसी आशंकाओं पर अंकुश लगाने का काम करें । अभय दुबे की शंकाएं जितनी जायज़ हैं उतना ही जरूरी उनका समाधान है। यह खतरा आसन्न है जो तेजी से बढ़ता दीख रहा है । उदयपुर से पहले महाराष्ट्र के अमरावती में ऐसी ही वारदात हुई जिसका पता बाद में चला ।
सवाल है कि मोदी समर्थक और हिन्दू वादी लोग इतने कट्टर और आक्रामक क्यों हैं । इसका बड़ा कारण तो यह लगता है कि इनमें से अधिकांश (बहुत बड़ी संख्या में) लोग ज्यादा पढ़े लिखे और व्यापक समझ वाले नहीं हैं । वे अपनी बुद्धि से संचालित नहीं हैं । वे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के उत्पाद हैं । दूसरा वे मोदी की सत्ता को लंबे अरसे तक टिकाए रखने में मददगार बनना चाहते हैं । इसलिए बहस करते करते चाहे वे तू तड़ाक और गाली गलौज पर क्यों न आ जाएं , हारना नहीं चाहते । यही अंतर हैं हम ‘लिब्रांडुओं’ में और उनमें । इन सारी बातों से अलग यह स्वीकार कीजिए कि महाराष्ट्र में बीजेपी की आमद के बाद पूरे देश के समस्त राज्यों पर इनकी नजर है । वे पूरे देश में एकछत्र राज्य के लिए चौबीस घंटे सक्रिय हैं । अब उनका मिशन विपक्षमुक्त भारत का निर्माण करना है । इसमें फिलहाल वे सफल होते दिख रहे हैं । आप स्वयं देखिए 2024 के लिए मैदान में विपक्ष कहां है और किस हाल में है । सब कुछ के लिए बहुत देर हो चुकी है । फिर भी दो विकल्प हैं अभी भी । पहला यह कि ,तमाम बुद्धिजीवी, समाज सेवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, शिक्षक वर्ग आदि विपक्ष के साथ सामाजिक आंदोलन की भूमिका तैयार करें और शीघ्रातिशीघ्र उस पर अमल करें । equipoise cicli विपक्षी एकता के अब कोई मायने नहीं हैं क्योंकि विपक्ष जनता का विश्वास खो चुका है और उस एकता को पंचर करने का उपाय मोदी खूब जानते हैं । इसलिए समय है सामाजिक आंदोलन का । और दूसरा अभय दुबे वाला सुझाव । मुस्लिमों के बीच जाकर विश्वास बहाली के साथ उन्हें मुख्य धारा में लाने का आश्वासन दिया जाए । वे पहले से मुख्यधारा में हैं पर उनका विश्वास आज डावांडोल है ।
आजकल लोकतंत्र, संविधान, फ़ासिज़्म आदि की बहुत बातें की जाती हैं । होनी भी चाहिए । पर लोकतंत्र हमने हमारे देश में किस रूप में देखा है । आजादी के बाद से आज तक लोकतंत्र कब और कितना रहा । सच तो यह है कि हमने देश में लोकतंत्र का न तो कभी मानस तैयार किया और न अपनी कौम को इस लायक (ऊपर उठाने के संदर्भ में) बनाया कि वह लोकतंत्र का अर्थ समझ पाती । आंदोलन तो तब भी होते थे अब भी होते हैं । पर ‘ओक्टोपस’ की कल्पना तब नहीं थी । फ़ासिज़्म इसी तरह आता है दबे पांव । इसी सब के मद्देनजर तीसरा सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या हम अपने संविधान को बचा पाएंगे । आज हमारा काम ‘डिफेंसिव’ होना नहीं है । बल्कि इन्हें पीछे खदेड़ना है ताकि संविधान की रक्षा की जा सके । न्यायाधीशों की वे बातें बहुत अच्छी लगती हैं जो वे अदालतों से बाहर जन समुदाय में देते हैं । पर अदालतों में वे जकिया जाफरी वाले जज बन जाते हैं । क्या आपको याद है कि पिछले दिनों या हफ्तों में किसी जज ने ‘स्वत: संज्ञान’ से कोई मुद्दा उठाया हो । मात्र जस्टिस सूर्यकांत के गुस्से से हम गदगद हैं क्योंकि वह गुस्सा हमारा भी है । बहरहाल, अब सवाल इस सत्ता को चलाने वालों और उनको बचाने वालों का नहीं, सवाल स्वयं को जल्दी से जल्दी खड़ा करने का है । समय बहुत तेजी से निकल रहा है । मोदी को 2024 में हराया जा सकता है जरूरत केवल वक्त के साथ समझ-बूझ की है । सोशल मीडिया पर बहसें अब अपनी केंचुली छोड़ चुकी हैं । उनका कोई अर्थ नहीं रह गया है । अब समय है समर क्षेत्र में कूदने का । संकल्प लीजिए ।

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