sansadमाता-पिता द्वारा धर्म की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा गया लड़का अगर मजदूरों की लड़ाई और उनके साथ न्याय को अपने जीवन का ध्येय बना ले, तो उसमें जनहित और समाज के लिए जीने का भाव कितना अधिक होगा ये सहज ही समझा जा सकता है. एक ट्रेड यूनियन नेता, राजनेता, पत्रकार और यहां तक कि देश के रक्षामंत्री के रूप में भी जॉर्ज फर्नांडिस के लिए जनता का हित सर्वोपरी रहा. वे जब तक सक्रीय राजनीति में रहे, हमेशा ही शोषितों, वंचितों और मजदूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे.
कर्नाटक के मैंगलोर में 3 जून 1930 को जॉर्ज फर्नांडिस का जन्म हुआ. उनकी मां का नाम एलीस मार्था फर्नांडिस और पिता का नाम जॉन जोसफ फर्नांडिस था. उनकी मां किंग जॉर्ज पंचम की बहुत बड़ी प्रशंसक थीं, जिनका जन्म भी 3 जून को हुआ था. इसी कारण इनका नाम जॉर्ज रखा गया. स्कूल की पढ़ाई के बाद परिवारिक परंपरा के निर्वहन के लिए बड़े पुत्र होने के नाते उन्हें धर्म की शिक्षा के लिए बैंगलोर में सेंट पीटर सेमिनरी भेज दिया गया. धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही 19 वर्ष की आयु में वहां हो रहे भेदभाव के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई और धार्मिक विद्यालय छोड़ दिया.
वहां विधालय के फादर्स उंची टेबलों पर बैठकर अच्छा भोजन करते थे, जबकि प्रशिक्षणार्थियों को ऐसी सुविधा नहीं मिलती थी. जॉर्ज को ये अच्छा नहीं लगा. इसके बाद उन्होंने मैंगलोर के सड़क परिवहन, उद्योग, रेस्टोरेंट और होटल में कार्यरत श्रमिकों को एकजुट किया. फिर 1949 में वे नौकरी की तलाश में बॉम्बे आ गए. यहां उन्हें एक अखबार में प्रूफ रीडर की नौकरी मिल गई. यहीं पर उनका संपर्क अनुभवी यूनियन नेता प्लासिड डी मेलो और समाजवादी राममनोहर लोहिया से हुआ. जिनका बहुत प्रभाव जॉर्ज के जीवन पर रहा.
जॉर्ज फर्नांडिस को डॉक्टर लोहिया जॉर्ज कहकर बुलाते थे और यही उनका संक्षिप्त नाम मशहूर हो गया. जॉर्ज ने बीस साल की उम्र के बाद अपने को आम आदमी, मज़दूर और ग़रीब के दु:ख से जोड़ लिया. उस समय की बंबई की बेस्ट की लड़ाई और उसमें जॉर्ज के नेतृत्व में जीत ने जॉर्ज को मज़दूरों का हीरो बना दिया. समाजवादी आंदोलन टुकड़ों में भले बंटा, पर जॉर्ज का संघर्ष नहीं बंटा. जहां मज़दूर वहां जॉर्ज. बिहार आंदोलन आया और जॉर्ज उसमें कूद पड़े. 1967 के आम चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में बॉम्बे की दक्षिण संसदीय सीट से उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उस दौर के प्रसिद्ध नेता सदाशिव कानोजी को हराया.
ऑल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन का अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने 1974 में लाखों कामगारों के रेलवे हड़ताल का नेतृत्व किया. जॉर्ज के नेतृत्व में रेल कर्मचारियों ने रेल पटरी तीन दिनों के लिए सूनी कर दी. पचहत्तर में आपातकाल लगा, जॉर्ज भूमिगत हो गए. अंडरग्राउंड होकर आपातकाल विरोधी आंदोलन संगठित किया. मशहूर बड़ौदा डायनामाइट कांड हुआ, जॉर्ज पकड़े गए. जेल में रहते लोकसभा का चुनाव जीते और सतहत्तर में केंद्रीय मंत्री बने.
कोकाकोला को भारत से जाने पर विवश किया, ताकि भारतीय पेय को बाज़ार मिल सके. 1994 में उन्होंने समता पार्टी की स्थापना की. परिस्थितियों ने उन्हें अटल जी के साथ जोड़ा. प्रधानमंत्री वाजपेयी के मंत्रिमंडल में वे एकमात्र ईसाई थे और संचार, उद्योग, रेलवे तथा रक्षा विभागों के मंत्री रहे. मार्च 2001 में तहलका रक्षा घोटाला सामने आने के बाद जॉर्ज फर्नांडिस ने इस गड़बड़ी की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. हालांकि आठ माह से भी कम समय के भीतर ही उन्हें फिर से उस पद पर नियुक्त कर दिया गया.
जॉर्ज का व्यक्तिगत जीवन का़फी दु:खपूर्ण रहा है. 1971 में उन्होंने मशहूर कांग्रेसी नेता हुमायूं कबीर की बेटी लैला कबीर से शादी की, लेकिन लैला कबीर कभी लैला जॉर्ज फर्नांडिस नहीं बन पाईं. उनका इगो, उनकी अकड़ और जॉर्ज की ज़िंदगी पर उनकी छींटाकशी के कारण वे कभी भी जॉर्ज का हमसफर नहीं बन पाईं. एक बेटा होने के बाद भी 1980 में दोनों अलग हो गए.
इसके बाद जॉर्ज 1984 में जया जेटली के करीब आए. व्यक्तिगत जीवन से इतर राजनीति में भी जॉर्ज को धोखे मिले. जिनके लिए जॉर्ज ने लड़ाई लड़ी, बाद में उन्होंने ही जॉर्ज को किनारे कर दिया. 2009 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद जॉर्ज की बुरी हालत हो गई थी. उनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था. मुंबई की यूनियन के साथियों ने उनके लिए हौजखास में एक मकान ख़रीदा था, पर मकान का टाइटिल यूनियन के नाम था. उस यूनियन ने जॉर्ज को मकान में न आने देने की कोशिश की.
जॉर्ज के दोस्त उनके लिए किराए का मकान तलाश रहे थे. तभी नीतीश कुमार ने उन्हें बिहार से राज्यसभा के लिए भेज दिया. यह नीतीश का जॉर्ज के प्रति आदर था, क्योंकि तीन महीने पहले ही जॉर्ज नीतीश और शरद यादव से अलग होकर लोकसभा का चुनाव लड़े थे और हारे थे.
पिछले कुछ सालों से जॉर्ज फर्नांडिस बीमारी से जूझ रहे हैं, जिसके कारण राजनीति से उनका नाता टूट गया है. वे पार्किन्संस और अल्जाइमर रोग से पीड़ित हैं. जॉर्ज की बिमारी छठी स्टेज में आ गई है. इसकी केवल सात स्टेज होती हैं. इस दौर में जया जेटली जॉर्ज के साथ लगातार रहीं और उनकी देखभाल एक बच्चे की तरह करती रहीं. जॉर्ज अपनी छोटी-बड़ी हर आवश्यकता के लिए उन पर निर्भर थे.
जॉर्ज का इलाज एम्स के दो डॉक्टर पिछले दस सालों से कर रहे थे. अचानक लैला कबीर, लैला फर्नांडिस बनकर भारत आ गईं, उनके साथ उनका बेटा भी था. जॉर्ज उन्हें देखकर ब़िफर गए. जॉर्ज ने कभी लैला को पसंद नहीं किया, उनके हज़ारों साथी इस बात को जानते हैं, देश का हर नेता इसे जानता है. जॉर्ज की स्थिति बिल्कुल बच्चे जैसी हो गई है. लैला कबीर जॉर्ज को लेकर बाबा रामदेव के आश्रम पहुंच गईं. वहां जॉर्ज कुछ दिन रहे. बाबा रामदेव ने दावा किया कि उन्होंने जॉर्ज को बोलने के क़ाबिल बना दिया है.
अब जॉर्ज को लैला कबीर दिल्ली वापस लाई हैं और उन्हें अपने मकान में रखा है. यहां जॉर्ज के लिए सब अजनबी हैं. उनके साथ पच्चीस सालों से रह रहे लोग नहीं हैं, बिस्तर नहीं है, किताबें नहीं हैं, उनके पालतू पशु नहीं हैं, दीवारें नहीं हैं. यहां हैं तो लैला, जिन्हें जॉर्ज ने कभी पसंद नहीं किया. जॉर्ज फर्नांडिस हमारे बीच हैं, लेकिन उनकी ज़िंदगी आज ऐसे मोड़ पर पहुंच गई है, जो कितनी है कितनी नहीं, पता ही नहीं. एक जानदार ज़िंदादिल आदमी, जिसके जीवन में संघर्षों की लंबी फेहरिस्त है, आज बेजान खिलौना सा बन गया है.प
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