विवाहेत्तर संबंधों के मामले में केवल पुरुष को दोषी मानने वाली भारतीय दंड संहिता के कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अभी अहम फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो प्रावधान के अनुसार जो महिला के साथ गैरसमानता का बर्ताव करता है, वह असंवैधानिक है. जो भी व्यवस्था महिला की गरिमा से विपरीत व्यवहार या भेदभाव करती है, वह संविधान के कोप को आमंत्रित करती है. व्यभिचार-रोधी कानून एकपक्षीय और मनमाना है. देश के प्रधान न्यायाधीश ने व्यभिचार-रोधी कानून पर फैसला सुनाते हुए कहा कि पति महिला का मालिक नहीं है. यह कानून महिला के जीने के अधिकार पर असर डालता है. हालांकि उन्‍होंने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि यह तलाक का आधार हो सकता है.

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने आठ अगस्त को इस पर फैसला सुरक्षित रखा था. सुनवाई करने वाली पीठ में जस्टिस आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा भी शामिल हैं. 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में विवाहेत्तर संबंधों को अपराध माना गया है. इसमें विवाहेत्तर संबंध रखने वाले पुरुष को आरोपी कहा गया है.

इसके मुताबिक, किसी व्यक्ति की सहमति के बिना उसकी पत्नी से संबंध रखना दुष्कर्म नहीं होगा, बल्कि इसे व्यभिचार माना जाएगा. इस पर सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा था कि प्रथम दृष्टया यह कानून लैंगिक समानता की अवधारणा के खिलाफ है. ऐसे मामले में केवल पुरुष को ही दोषी क्यों माना जाए? केंद्र सरकार ने यह कहते हुए कानून का समर्थन किया है कि विवाह संस्था की पवित्रता बनाए रखने के लिए यह कानून आवश्यक है.

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