यदि भाजपा कर्नाटक का चुनाव हार जाती है, तब क्या होगा? सबसे पहले तो ये कि 2019 का मैदान सब के लिए खुल जाएगा. त्रिपुरा और नगालैंड से कितने सांसद आते हैं? भाजपा को सरकार बनाने के लिए 272 सांसदों की जरूरत होगी. इन दिनों भाजपा ने बहुत तेजी से अपनी लोकप्रियता खोई है. 282 सीटें भाजपा ने जीती थीं, आज वो घटते-घटते 273 के आसपास रह गई हैं. यह ठीक बात है कि सरकार पर अभी कोई खतरा नहीं है. लेकिन, आगे क्या होगा…

2019उत्तर प्रदेश के दो और बिहार के एक लोकसभा उपचुनाव के परिणाम आ चुके हैं. उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर व बिहार में अररिया लोकसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुए थे. इसके अलावा, बिहार में दो विधानसभाओं के भी उपचुनाव हुए थे. मुख्य मुद्दा लोकसभा के उपचुनाव हैं. इस उपचुनाव में भाजपा तीनों सीट हार गई. मोदी, उनके साथी अमित शाह और उनकी टीम ये कह सकती है कि ये वोट योगी आदित्यनाथ के खिलाफ एंटी इन्कम्बेंसी (सत्ता के विरोध में) की वजह से पड़े.

इसी तरह की एंटी इन्कम्बेंसी राजस्थान में वसुन्धरा राजे सरकार के खिलाफ थी. लेकिन, ऐसा कह कर वे अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते. लोग लोकसभा के चुनाव में मुख्यमंत्री के खिलाफ वोट क्यों डालेंगे? जिन लोगों को आप से उम्मीद  थी, आप पर अथाह भरोसा था और इसी वजह से उन्होंने 2014 में आपको अपना समर्थन दिया था, आज आपसे निराश क्यों हैं? वे (मोदी और उनकी टीम) इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं.

संघ परिवार से जुड़े और हिन्दुत्व का अनुसरण करने वाले 18 फीसदी हिन्दू वोट भाजपा के कोर वोट हैं. भाजपा को 2014 में 31 फीसदी वोट मिले थे. बाकी 13 फीसदी वोट उनके वोट थे, जिन्हें आपसे उम्मीद थी.कांग्रेस के खिलाफ एंटी इन्कम्बेंसी थी. लोग कांग्रेस से नाराज थे. लोग यह महसूस कर रहे थे कि कुछ भी नया नहीं हो रहा है. उन्हें लगा था कि नौकरियां पर्याप्त संख्या में पैदा नहीं हो रही हैं. घोटालों की खबरें सुन-सुन कर लोग ऊब गए थे. हालांकि, बाद में वे घोटाले एक-एक कर अदालत में साबित ही नहीं हो पा रहे हैं. लेकिन, उस वक्त कुल मिलाकर यह माहौल बन गया था कि भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया है. दूसरी तरफ, ऐसे माहौल में नरेन्द्र मोदी आए. उन्होंने लोगों को नई आशा दिखाई, नए-नए वादे किए. उन्होंने नौकरियों की बात की.

पाकिस्तान के खिलाफ मजबूत नीति बनाने की बात की. उन्होंने ऐसे और भी कई वादे किए. चुनाव हुए. परिणाम आया. भाजपा को 282 सीटें मिलीं. 1985 के बाद पहली बार किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत मिला था. इससे पहले राजीव गांधी को 400 सीटें मिली थीं. जाहिर है, नरेंद्र मोदी से लोगों की बहुत अपेक्षाएं थीं. यह भी सच है कि इतनी बड़ी अपेक्षाओं को पूरा करना किसी भी नेता के लिए मुश्किल है, चाहे वे राजीव गांधी हों या नरेन्द्र मोदी. नरेन्द्र मोदी चाहते तो समयबद्ध तरीके से काम कर सकते थे. पहले, दूसरे और तीसरे साल में हम ये-ये काम करेंगे. मुझे विश्वास है कि अगर भाजपा ने इस तरीके से काम किया होता, तो आज वो जनता का भरोसा नहीं खोती, जो 2014 में बना था. दुर्भाग्य से उन्होंने (नरेंद्र मोदी) न तो अपनी पार्टी को भरोसे में लिया, न कभी संसदीय दल, कार्यसमिति या मार्गदर्शक मंडल से चर्चा की और न ही नौकरशाही पर विश्वास किया.

नोटबंदी से जुड़े सवाल ज़िन्दा हैं

ब्यूरोक्रेसी नियम से बंधे होते हैं. वे इनोवेटिव नहीं होते. वे नए प्रोजेक्ट के बारे में नहीं सोच सकते. उनका काम ये देखना है कि हर चीज सुचारू ढंग से चले. मोदी सरकार के पहले ढाई साल में क्या हुआ? मई 2014 से 8 नवंबर 2016 के बीच क्या हुआ? सभी चीजें सिस्टम के भीतर चल रही थीं. मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री बोर हो गए. मुझे नहीं मालूम कि उन्हें किसने ये सुझाव दिया कि जब तक आप कोई नाटकीय काम नहीं करेंगे, तब तक आपके खाते में कोई बड़ा काम दर्ज नहीं किया जाएगा. इसलिए 8 नवंबर 2016 को मोदी जी ने विमुद्रीकरण (नोटबंदी) की घोषणा कर दी. उन्होंने आरबीआई से भी सलाह-मशविरा नहीं किया, जो देश में करेंसी को नियंत्रित करने वाली मुख्य संस्था है. आरबीआई कभी नोटबंदी की सलाह नहीं देती.

नोटबंदी से जुड़े तकनीकी सवाल अब भी जिन्दा हैं. 31 दिसंबर तक पुराने नोट बदलने का समय दिया गया. लेकिन, आरबीआई के पास नए नोट तैयार नहीं थे. देश में 4 महीने तक भगदड़ का माहौल बना रहा. नोट प्रिंट हो रहे थे. लोग कतार में लगे हुए थे. केवल धनी व्यक्ति ही इससे प्रभावित नहीं हुआ. धनी व्यक्ति लाइन में लगने नहीं गया. लाइन में गरीब और किसान लगे थे, जिनके लिए सौ रुपए का भी बहुत महत्व था. सामान्य जनता की जिन्दगी को इस फैसले ने झकझोर कर रख दिया. 4 महीने बाद, किसी बुद्धिमान व्यक्ति की तरह सरकार को ये एहसास हो गया कि नोटबन्दी ने काम नहीं किया. इसका मकसद सफल नहीं रहा. इसे लेकर मोदी ‘बैड लूजर’ साबित हुए.

इसके बाद उन्होंने जीएसटी लागू कर दिया. एक बार फिर  मार्केट, बिजनेस, किराना दुकानदारों, छोटे दुकानदारों और इंडस्ट्री के लिए कठिन समय आ गया. कुल मिलाकर कहें तो 8 नवंबर 2016 से लेकर अभी तक कुछ भी सामान्य नहीं हुआ है. कोई सहमत हो या न हो, लेकिन यही कारण है कि भाजपा को गोरखपुर, फूलपुर और अररिया की सीटें गंवानी पड़ीं. वे सहमत नहीं होंगे, वे कहेंगे कि हम मेघालय जीत गए, नगालैंड जीत गए. त्रिपुरा जीत गए. त्रिपुरा में कम्युनिस्ट 25 साल से सत्ता में थे. वहां एंटीइन्कम्बेंसी थी.

फूलपुर और गोरखपुर की जनसंख्या मेघालय और नागालैंड की संयुक्त जनसंख्या से भी अधिक है. मेघालय जीतना और फूलपुर हारना, दोनों बराबर है. नगालैंड जीतना और गोरखपुर हारना, दोनों बराबर है. मेघालय में पीए संगमा के बेटे सीएम बने हैं. उनका भाजपा से क्या लेना-देना? वहां चुनाव अभियान में भाजपा ने क्या कहा? उन्होंने कहा था कि यहां बीफ बैन नहीं होगा? कहां गया भाजपा का गोरक्षा दल, गोरक्षा अभियान?

खैर, ये उपचुनाव भाजपा हार चुकी है. आगे कर्नाटक में चुनाव है. मान लीजिए, भाजपा कर्नाटक का चुनाव हार जाती है, तब क्या होगा? सबसे पहले तो ये कि 2019 का मैदान सब के लिए खुल जाएगा. कोई भी यह गणना कर सकता है. त्रिपुरा और नगालैंड से कितने सांसद आते हैं? भाजपा को सरकार बनाने के लिए 272 सांसदों की जरूरत होगी. इन दिनों भाजपा ने बहुत तेजी से अपनी लोकप्रियता खोई है. 282 सीटें भाजपा ने जीती थीं, आज वो घटते-घटते 273 के आसपास रह गई हैं. यह ठीक बात है कि सरकार पर अभी कोई खतरा नहीं है. लेकिन, आगे क्या होगा? मैं हमेशा कहता रहा हूं कि महज चुनाव जीतने और सरकार बनाने से कहीं बड़ी जिम्मेदारी इस देश की जिम्मेदारी है. मोदी और अमित शाह खुद कहते थे कि हम यहां 15-20 सालों के लिए हैं. इसका क्या मतलब है?

एक तितली की उम्र एक दिन की होती है. एक दिन में ही वो अलग-अलग रंग बिखेर कर अपनी खूबसूरती दिखा देती है. यह महत्वपूर्ण नहीं है कि व्यक्ति की उम्र कितनी लंबी होती है या सरकार कितने लंबे समय तक चलती है. व्यक्ति या सरकार क्या काम करती है, यह महत्वपूर्ण होता है. सरकार ने पिछले चार वर्षों में जनता को दिखाने के लिए क्या काम किया है? दरअसल सरकार के काम करने की शुरुआत ही त्रुटिपूर्ण थी. सरकार बनाने के बाद प्रधानमंत्री की पहली घोषणा चुनावों में किए गए वादे नहीं थे, बल्कि लालकिले से अपने पहले सम्बोधन में उन्होंने स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा की थी. स्वच्छ भारत अभियान उनके चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा नहीं था.

कांग्रेस नहीं, कांग्रेस की कार्यशैली से मुक्ति  

उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत की भी घोषणा की थी, लेकिन जब यह होता नहीं दिखा तो उन्होंने अपनी सुविधानुसार इसे कांग्रेस की कार्यशैली से मुक्ति का अभियान कह दिया. हमने इसका स्वागत किया. यदि कांग्रेस एक ऐसी पार्टी बन गई हो, जो केवल पैसे पर चलती हो, तो बेशक उसे खत्म हो जाना चाहिए. लेकिन अब भाजपा की कार्यशैली कांग्रेस से भी बदतर हो गई है. भाजपा में अधिक भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है. यहां अफसर, मंत्री, सांसद और विधायक सभी पैसे लेते हैं. हालांकि इसे साबित करना मुश्किल होगा, क्योंकि जिन्होंने पैसे लिए, वे यह नहीं कहेंगे कि हमने पैसे लिए और जिन्होंने पैसे दिए, वे यह नहीं कहेंगे कि हमने पैसे दिए. इसके भी सबूत उतने ही हैं, जितना कैग ने 2-जी घोटाले के बारे में लिखा है.

सरकार चल रही है. भाजपा के कुछ मुख्यमंत्री ठीक काम कर रहे हैं, कुछ औसत दर्जे का काम कर रहे हैं. ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन कुल मिलाकर प्रधानमंत्री को सोचना पड़ेगा कि उनकी लोकप्रियता क्यों कम हो रही है? दरअसल उनकी लोकप्रियता इसलिए कम हो रही है, क्योंकि उन्होंने चुनाव के दौरान जितने भी वादे किए थे, उनमें से एक भी वादे पूरे नहीं कर सके. न तो नए रोज़गार का सृजन हो सका और न ही नए उद्योग लगे. किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात भूल जाइए.

उनकी हालत बदहाल है. उनके लिए ज़िन्दगी गुज़ारना मुश्किल हो रहा है. इन्हीं कारणों से प्रधानमंत्री की लोकप्रियता लगातार गिर रही है. अब सवाल यह है कि क्या इन चीजों को एक साल में ठीक किया जा सकता है? इसका जवाब है, नहीं! उन्हें अपना संवाद बदलना होगा. वे लोगों से और अधिक समय मांग सकते हैं, लेकिन यह कहना ठीक नहीं है कि सरकार सफल रही है. जनता इसे पसंद नहीं करेगी, क्योंकि लोग बहुत गुस्से में हैं.

यही नहीं, भाजपा के समर्थक तरह-तरह की बातें बनाते फिर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि चुनाव जीतने के लिए हम पाकिस्तान के ख़िला़फ युद्ध छेड़ सकते हैं, अर्थात चुनाव जीतने के लिए वे युद्ध करेंगे, सैनिकों को मारेंगे. इससे अधिक खतरनाक, गैर-जिम्मेदाराना, असंवेदनशील बात कुछ हो ही नहीं सकती है! लेकिन यह काम नहीं करेगा. भारत के लोग इस तरह के झांसे में नहीं आने वाले हैं. गोरखपुर, फूलपुर और अररिया के नतीजों ने साबित कर दिया है कि वे बहुत समझदार हैं. इस बात से मुझे कोई इंकार नहीं है कि 18 प्रतिशत वोट भाजपा का निश्चित वोट है, वह किसी भी हालत में उसे मिलेगा. ये प्रतिबद्ध वोट है, लेकिन चुनाव जीतने के लिए ये काफी नहीं हैं.

भाजपा को राम मंदिर नहीं चाहिए

दूसरी तरफ सीबीआई का दारोगा, कभी लालू यादव के पीछे लगता है, तो कभी कार्ति चिदंबरम या अब मायावती को घेरने की कोशिश कर सकता है, लेकिन इससे भाजपा को कोई फायदा नहीं होने वाला है. यदि दारोगा चुनाव जीत सकता, तो वो खुद ही प्रधानमंत्री बन सकता है. दारोगा कुछ नहीं कर सकता है. पार्टी और प्रधानमंत्री को लोगों से अपील करनी पड़ेगी. लालू यादव के मामले में क्या हुआ? मुझे लगता है कि उनका बेटा तेजस्वी बिहार का मुख्यमंत्री बनेगा और वो भी बहुत ही लोकप्रिय मुख्यमंत्री बनेगा. उन्हीं का भाई क्या कह रहा है? वह कह रहा है कि ये लोग (भाजपा के लोग) क्या करेंगे, हम उत्तर प्रदेश में राम मंदिर बनाएंगे. ऐसा इसलिए, क्योंकि राम मंदिर का विरोध कोई मुसलमान नहीं करता है. साथ ही कोई हिन्दू यह नहीं सोचता है कि राम मंदिर के निर्माण के बाद सारी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी.

राम मंदिर देश के हिन्दुओं की भावनाओं का एक छोटा प्रतीक है, लेकिन आरएसएस और भाजपा की समस्या यह है कि उन्हें राम मंदिर नहीं चाहिए. उन्हें मुसलमानों के मानस पर चोट पहुंचाना है. उन्हें मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुंचानी है. यदि मुसलमान राम मंदिर बनाने को तैयार हो जाएं, तो उन्हें राम मंदिर में कोई दिलचस्पी नहीं होगी. उन्हें मालूम ही नहीं है कि राम इस धरती पर क्यों अवतरित हुए थे? वे हिन्दू शास्त्रों को नहीं समझते हैं. इन्हें इस बात में दिलचस्पी है कि राम यहां पैदा हुए थे, कृष्णा यहां पैदा हुए थे. दरअसल राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे. वे एक ऐसे राजा थे, जो मर्यादा में रह कर शासन चलाते थे. अब सवाल यह उठता है कि क्या आज हमारे प्रधानमंत्री मर्यादा के साथ शासन चला रहे हैं? वे ऐसे मजाक करते हैं, जो प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के अनुरूप नहीं हो सकता है.

मुझे उनसे कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं है. उन्हें लम्बी उम्र मिले, लेकिन मेरे लिए प्रधानमंत्री पद अति-पवित्र है. उस पद से कोई भी व्यक्ति कुछ बोलता है, तो वो सब पर लागू होता है. क्या मौजूदा प्रधानमंत्री इस बाद का ध्यान रख रहे हैं? राम को भूल जाइए. राम ने एक धोबी की शिकायत पर अपनी पत्नी को अग्नि-परीक्षा देने के लिए कहा था. यहां उनकी पार्टी के सदस्यों, पार्टी के सांसदों, मंत्रियों पर धांधली के आरोप लग रहे हैं. अग्नि परीक्षा की कौन कहे, सरकार उन्हें संरक्षण दे रही है. क्या सरकार को ऐसा लगता है कि लोग इन चीज़ों को नहीं देख रहे हैं? ये सभी चीज़ें जनता की नज़र में हैं. यहां यह बात सा़फ कर दूं कि भारत के लोगों का भगवान से बहुत लगाव है. उन्हें छोटी से छोटी बात समझ में आती है. वे धरती पर कान लगा कर स्पंदन महसूस कर लेते हैं.

भाजपा को सहयोगियों की भी सुननी पड़ेगी

दरअसल, हवा सरकार के ख़िला़फ है. यदि वे इसे नज़रंदाज़ करना चाहते हैं, तो इसका उन्हें नुकसान ही होगा. यदि वे इसे नज़रंदाज़ नहीं करते तो भी उनके विकल्प बहुत सीमित हैं. भाजपा के पास जो एकमात्र विकल्प है, वो है दूसरे दलों को अपना सहयोगी बनाना. फिलहाल ऐसा नहीं लग रहा है कि भाजपा अपने बूते पर बहुमत हासिल कर लेगी. यदि सहयोगियों की ज़रूरत पड़ती है तो उसे अपने सहयोगियों की भी सुननी पड़ेगी. उन्हें समायोजित करना पड़ेगा. जैसे कोई पार्टी गठबंधन के लिए तैयार हो जाती है, भारत में फिर कोई समस्या ही नहीं है. यदि संघ चाहता है कि वो पूरे भारत को अपने सिद्धांतों वाले हिंदुत्व का मानने वाला बना लेगा, तो यह नहीं हो सकता है. ये लोग हेडगेवार, गोलवलकर की जो दो-तीन किताबें पढ़ते हैं, उनमें कहा गया है कि भारत के तीन दुश्मन मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट हैं. इन वाहियात बातों पर कौन विश्वास करता है?

यहां जो कुछ भी कहा जा रहा है, उसे हर कोई देख सकता है. सरकार भी देख रही है, लेकिन वो इस पर कोई कार्रवाई नहीं करना चाहती. ऐसा लगता है कि मौजूदा सरकार का एकमात्र लक्ष्य चुनाव जीतना है. चुनाव जीतने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं. लेकिन चुनाव के बाद क्या! चुनाव जीतने के चार साल बाद भाजपा ने देश के लिए क्या किया है? यह नहीं बता रहे हैं. उद्योग नहीं लग रहे हैं, लोगों को रोज़गार या नौकरियां नहीं मिल रही हैं. हालत ये हैं कि विमुद्रीकरण और जीएसटी के बाद उद्योग-धंधे बंद हो रहे हैं, कारोबार में मंदी आ गई है. हद तो यह है कि जो लोग रोज़गार से जुड़े हुए थे, वो बेरोज़गार हो रहे हैं.

इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? इसका हिसाब कौन करेगा? तमिलनाडु में हाल में राजनीति में आए कमल हासन कहते हैं कि अब भी वक़्त है जीएसटी को कूड़ेदान में डाल दीजिए. मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा. सवाल यह है कि क्या सरकार सुधार करने के लिए तैयार है? इसका जवाब नकारात्मक है. दरअसल भाजपा के समर्थक यह कहते फिर रहे हैं कि चुनाव से ठीक पहले 2000 और 500 के नोट बन्द हो जाएंगे और हजार का नोट फिर चालू हो जाएगा. क्यों? क्योंकि भाजपा ने हजार रुपए के नोट जमा किए हुए हैं, इसका उसे फायदा हो जाएगा और विपक्ष के पास जो 2 हजार और 5 सौ के नोट हैं, वे बेकार हो जाएंगे. भारत को चलाने का ये बहुत ही भौंडा तरीका होगा.

देश में हिन्दुत्व की विचारधारा नहीं चलेगी

तमिलनाडु में जयललिता की सहयोगी रही शशिकला के भतीजे, जो अभी किसी भी पार्टी में नहीं हैं, उन्होंने एआईडीएमके और डीएमके के उम्मीदवार को हरा दिया. यह भारत है. आप इसे कैसे नियंत्रित करेंगे? भाजपा ने भी यहां चुनाव लड़ा था, पता नहीं किस उम्मीद में. लेकिन, भाजपा के उम्मीदवार को नोटा से भी कम मत मिले. यह देश इतना सरल नहीं है. यह कोई मॉरिशस या सिंगापुर जैसे कुछ लाख लोगों का देश नहीं है. यहां दुनिया की आबादी का छठवां हिस्सा निवास करता है.

यदि इस पर शासन करना इतना आसान होता, जैसा आरएसएस चाहती है, तो भारत में कोई समस्या ही नहीं होती. यहां बहुमत हिन्दुओं का है. केवल 18 प्रतिशत लोग ‘हिन्दुत्व’ के विचारों से सहमत हैं, बाकी 82 प्रतिशत हिन्दू सिर्फ हिन्दू हैं, जो मुसलमानों से नफरत नहीं करते, जो ईसाइयों से नफरत नहीं करते, कम्युनिस्टों के खिलाफ जिनके मन में घृणा नहीं है, यही असली हिन्दू हैं. हिन्दू वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास करता है, यानी पूरी दुनिया एक परिवार है. लेकिन, हिन्दुत्व इसमें विश्वास नहीं करता है. भारत में हिन्दुत्व की विचारधारा नहीं चलेगी. अमित शाह एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहते हैं कि हम अगले 25 साल तक शासन करेंगे. फिलहाल ऐसा नहीं लगता है. ये नहीं मालूम कि अगले चुनाव का क्या नतीजा होगा, लेकिन अभी के हालात से यह नहीं लगता कि भाजपा एक लंबी रेस का घोड़ा है. अल्पकालिक तौर पर भाजपा को भले ही प्रसिद्धि मिली, लेकिन वो इसे बरकरार नहीं रख सकी.

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