आज सियासत को, ज़िंदगी को, नफ़रत को, मुहब्बत को देखने के बाद अगर आपको कोई चार या पांच चीज़ें आज की सरकार से कहनी हो, तो क्या कहेंगे? सरकार को क्या करना चाहिए? गिलानी साहब ने बहुत साफ़गोई से कहा, यहां जो सरकार है, यहां की जो हिंद-नवाज़ (प्रो-इंडिया) पार्टियां हैं, उनके बारे में हमारा ये आइडिया है और हमारी ये ज़रूरत भी है और चाहत भी है कि इन्हें इस ख़ून-ख़राबे को देखकर अपने पदों से त्यागपत्र दे देना चाहिए और ख़ासतौर से इस हुकूमत को त्यागपत्र दे देना चाहिए. इसके बग़ैर इनका कोई इलाज नहीं है और इनके पास ऐसा कोई तर्क नहीं है, इस कुर्सी पर बैठने का.
यानी पुलिस इनके पास है, इनके कंट्रोल में है, सीआरपीएफ इनके कंट्रोल में है, हर मुख्यमंत्री यूनिफाइड कमांड का चेयरमैन होता है, तो इनमें ये ताक़त क्यों नहीं रही कि उनको रोकें कि तुम्हारे हाथों से क़त्ल हो रहा है, तुम्हारे हाथों से ये ख़ून बह रहा है, तुम्हारे हाथों से ये ज़ुल्म हो रहा है. तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? मैं तो आपके साथ नहीं रहूंगा. चाहे फ़ारूक़ अब्दुल्ला हों, उमर अब्दुल्ला हों, तारिगामी साहब हों या कोई और हो, इन सबको कर्रा साहब ने जैसा नमूना दिखाया, इन्हें उस पर अमल करना चाहिए.
इस मामले में तारिक़ कर्रा साहब ने जो किरदार दिखाया वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. उन्होंने कहा कि हमारे जवानों को क़त्ल किया जा रहा है, मैं इसको बर्दाश्त नहीं कर सकता हूं. उन्होंने पार्लियामेंट के मेम्बरशिप से इस्तीफ़ा दे दिया, पार्टी से भी इस्तीफ़ा दे दिया. उन्होंने एक अच्छा कैरेक्टर दिखाया सारे लीडर्स को. लेकिन नेशनल कांफ्रेंस या कांग्रेस के ये लोग, जो सत्ता के पीछे दौड़ रहे हैं, इनको इंसानियत के साथ कोई मोहब्बत नहीं है. या अपने क़ौम पर जो ज़ुल्म हो रहा है, उसका इनको कोई एहसास नहीं है.
मैंने उनसे कहा कि ईद के दिन मैं और मेरे दो साथी कर्रा साहब के साथ थे. शाम को उन्होंने बुलाया था. हमलोग डेढ़ घंटे तक वहां थे, इशारा तो इन्होंने उसी समय ही दे दिया था कि मैं बहुत ज्यादा दूर पीडीपी के साथ नहीं चलूंगा. मैं कुछ सोच रहा हूं, तो उस समय लगा तो था कि शायद वो साथ नहीं रहेंगे, पर इस्तीफ़ा दे देंगे, इसका अंदाज़ा नहीं था. गिलानी साहब ने कहा कि हां उन्होंने बहुत अच्छा किया. लेकिन अब उनका टेस्ट ये है कि आइंदा उन्हें अब कभी चुनाव में हिस्सा नहीं लेना चाहिए. ये उनके लिए टेस्ट है.
क्योंकि एक चीज़ तो अब उन्होंने समझी, जिसपर उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया. इतना जो ज़ुल्म हो रहा है, आइंदा भी जारी रहेगा, शायद उस वक्त तक, जब तक हम ग़ुलाम हैं. हिंदुस्तान के फौजी तसल्लुत (वर्चस्व) में हैं, ज़ुल्म चलता रहेगा. इसलिए आइंदा उन्हें कभी चुनाव में हिस्सा नहीं लेना चाहिए. मैंने बातचीत को यहीं बंद करना ठीक समझा, क्योंकि मैं उनसे राजनीति पर बात कर चुका था.
मैंने घड़ी देखी. कुल मिलाकर डेढ़ घंटे बीत चुके थे. इसके बाद गिलानी साहब उठे और उन्होंने मेरे सर के ऊपर हाथ रखा. शायद इस डेढ़ घंटे के दौरान बातचीत से जो भावनाएं प्रकट हुईं, उसने उन्हें अपना राजनीतिक पक्ष किनारे रखने के लिए प्रेरित किया और जब मैं बातचीत करके उठ रहा था, तो उन्होंने फिर चाय पीने का हुक्म दिया. वहां बैठे हुए उनके साथी और ख़ुद उनके बेटे नसीम का भी ये कहना था कि इतने सालों में किसी ने भी गिलानी साहब से राजनीति से अलग हटकर इस तरह के सवाल नहीं पूछे या शायद पूछने की हिम्मत नहीं की.
आपने पूछा और जिस तरह से गिलानी साहब ने जवाब दिया उसके ऊपर भी हमें बड़ी हैरानी है. लेकिन मैं गिलानी साहब के अंदर के उस इंसान को तलाश पाया, जो अपनी ज़िंदगी में अपने बच्चों के बचपन को न देख पाने, बच्चों को बड़ा होते हुए न देख पाने, बच्चों की शरारतों को न देख पाने की कसक लिए, लेकिन उस कसक को अपने दिल में ख़ामोशी के साथ बंद किए अपने मक़सद के लिए लड़ने की तैयारी करता रहा.