supreme courtकुछ सवाल ऐसे हैं, जिनका उत्तर कभी नहीं मिलता है. हर दिवाली पर, दिवाली से पहले प्रदूषण स्तर की बात होती है. बच्चे पटाखे न जलाएं, इसकी शिक्षा स्कूलों में दी जाती है. पर घर में मां-बाप बच्चों के लिए पटाखे खरीदते हैं और इस बार तो गजब हो गया. हालांकि, पटाखे कम चले, लेकिन प्रदूषण स्तर बढ़ गया. इसका मतलब, कई इलाकों में पटाखे बहुत जले. लेकिन इससे अलग, एक और महत्वपूर्ण और बड़ा सवाल है. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पटाखे बेचने पर पाबंदी लगाई जाती है.  दिवाली की रात जिस तरह से टुकड़ों-टुकड़ों में पटाखे चले, उससे ये लगा कि सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला लोगों के सर से गुजर गया. बहुत छोटी संख्या में लोगों ने इसे माना, लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने इसे नहीं माना.

सुुप्रीम कोर्ट ने पटाखे बेचने के ऊपर पाबंदी लगा दी, इसके बावजूद पटाखे बिके. कुछ व्यापारियों के ऊपर एफआईआर भी हुई. लेकिन 30 या 35 व्यापारियों पर केस करने या पाबंदी का असर नहीं पड़ा. हर जगह पटाखे खुलेआम बिक रहे थे और ये राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ही हो रहा था. दिवाली के अगले दिन टीवी के जरिए सवेरे से जो खबरें फैलीं, उसमें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का जिक्र कम, लेकिन राजधानी क्षेत्र का जिक्र ज्यादा हो रहा है. वहां प्रदूषण का स्तर बढ़ गया और इसके अलग-अलग हिस्सों की रिपोर्ट दिखाई जा रही थी.

दिमाग में ये सवाल उठता है कि सुप्रीम कोर्ट की बात लोगों ने क्यों नहीं मानी? ये सवाल जितना हमारे मन में है, उससे ज्यादा सुप्रीम कोर्ट के मन में होनी चाहिए कि आखिर सुप्रीम कोर्ट की बात लोग मानते क्यों नहीं हैं? सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अमल की जिम्मेदारी सरकारों की है, चाहे वो केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें. राज्य सरकारें या केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अनुपालन नहीं करती हैं, तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला कोई मायने नहीं रखता है.

सुप्रीम कोर्ट को इस पर इसलिए ध्यान देने की जरूरत है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की साख घट रही है, सुप्रीम कोर्ट का असर घट रहा है या सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अगर प्रशासन मानने से इंकार कर दे या सरकारें उसे अनदेखा कर दें तो सुप्रीम कोर्ट के पास क्या ताकत है कि उनके ऊपर अमल करवा पाए. दरअसल, इसका थोड़ा बहुत दोष सुप्रीम कोर्ट के ऊपर भी है. हम जब देखते हैं कि पिछले कितने वर्षों का समय हम परीक्षण के लिए रखें ये आप तय करें, लेकिन मान लीजिए कि हमने 20 साल का समय रखा. इस 20 साल के समय सुप्रीम कोर्ट के जितने फैसले हुए हैं, उनमें जिनका रिश्ता केन्द्र सरकार या राज्य सरकार से है, उन फैसलों में से लगभग 40 प्रतिशत फैसलों पर सरकारों ने कोई अमल नहीं किया.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक कागज पर लिखी इबारत बनकर रह गई. उस पर अमल हुआ ही नहीं और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसकी मॉनिटरिंग कभी नहीं की कि वो जो फैसले देेते हैं, उनका पालन राज्य सरकारें या केन्द्र सरकार कैसे करती हैं? अब राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के ऊपर अगर सुप्रीम कोर्ट के कहने का असर नहीं होता है, तो इसका मतलब है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था दरक रही है. अब जब मैं कहता हूं कि सुप्रीम कोर्ट के ऊपर भी कुछ दोष जाता है, तो उसका सीधा मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट जितना ज्यादा राजनीतिज्ञों के साथ मित्रता करेंगे, उनके साथ दिखाई देंगे, उनके साथ पार्टियां करेंगे या अपने लिए रिटायरमेंट के बाद जगह तलाशेंगे और उन्हें प्रभावित कर अपने लिए लाभ चाहेंगे तो उसका परिणाम यही होगा, जो दिवाली पर पटाखे न बेचने के आदेश का हुआ है.

दरअसल हमारा देश जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाए हुए है, उसमें तीनों अंगों की समान भूमिका है, लेकिन न्यायपालिका की भूमिका सामान्य भूमिका से थोड़ी सी ज्यादा है. न्यायपालिका को संविधान ने ये अधिकार दिया है कि वो किसी भी फैसले को रिव्यू कर सकता है और अपना फैसला दे सकता है. जिस फैसले की काट संसद संविधान संशोधन करके ही कर सकती है. अगर संविधान संशोधन नहीं होता है या उतना बहुमत किसी सरकार के पास नहीं है जितना संविधान संशोधन के लिए चाहिए, तब तक वो फैसला प्रभावी रहता है. लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पिछले 40 साल या 20 साल का समय देखें, उनमें बहुत सारे ऐसे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, उनमें आपस में द्वंद्व हुआ, युद्ध हुआ, कुछ पर महाभियोग की कार्रवाई भी हुई.

इन सारे अंतर्विरोध में सुप्रीम कोर्ट अपनी साख कहीं खोता चला गया. सुप्रीम कोर्ट के कई सारे फैसले लोगों की नजर में ऐसे रहे, जिन फैसलों ने देश के ताने-बाने के ऊपर या जिसे हम कहें संविधान के ताने-बाने से लोगों को दूर ले जाते दिखे. शायद इसीलिए धीरे-धीरे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर सरकारों ने, केन्द्र सरकारों ने और प्रशासन ने अमल करने की जगह उनकी काट के रास्ते तलाशने शुरू कर दिए. क्योंकि उन्हें मालूम था कि सुप्रीम कोर्ट के पास इतना समय है ही नहीं कि वो अपने दिए फैसलों के ऊपर अमल करवाने के तरीकों का विश्लेषण कर सके.

भारत के राजनीतिक ताने-बाने के ऊपर बड़ी जिम्मेदारी थी कि न्याय कैसे सस्ता हो, इसका वो रास्ता तलाशें. सबसे ज्यादा सुप्रीम कोर्ट के ऊपर ये जिम्मेदारी थी कि न्याय कैसे सस्ता हो, वो भी इसके रास्ते सुझाए. लेकिन आजादी के बाद से अबतक इसे लेकर कोई कोशिश नहीं हुई. देश में सबको मालूम है कि अगर सुप्रीम कोर्ट में आपको मुकदमा लड़ना है, तो अब वहां ऐसे वकील हैं जो जज साहब के सामने जाने के लिए पेशी के लिए 40-40 लाख रुपए ले लेते हैं.

वो एकाउंटेंड मनी होती है या अनएकाउंटेंड होती है प्रश्न ये नहीं है? प्रश्न ये है कि वो इतने महंगे वकील हैं और अगर वो न्यायालय में न खड़े हों, तो सुप्रीम कोर्ट के जज साहब ध्यान ही नहीं देते हैं. इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट देश के लोगों की आखिरी आशा है. लोग अपना घर, संपत्ति, गहने बेचकर भी सुप्रीम कोर्ट के पास न्याय की आशा में जाते हैं. जब वो हार कर या जीतकर लौटते हैं तो उनके साथ सच्चाई तो होती है, लेकिन वो अपना सबकुछ खो चुके होते हैं. और यहां पर उनका दुख शुरू होता है कि उनके पक्ष में दिए हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सरकार, सरकारें या प्रशासन अमल नहीं करवा पाता है.

ये अंतर्विरोध और ये दर्द हमारी व्यवस्था का दर्द है. जो काम सरकारों को करना चाहिए, वो काम भी अब सुप्रीम कोर्ट करने लगा है. और जब मैं सुप्रीम कोर्ट कहता हूं तो आप ये मान लीजिए कि हम पूरी न्याय व्यवस्था के ऊपर सवाल उठाते हैं. हाई कोर्ट फैसले दे देते हैं, लोगों के पास सुप्रीम कोर्ट जाने के साधन नहीं होते, राजनीतिक लोग न्यायपालिका का इस्तेमाल अपने हित में करते हैं, जैसा कि अभी गुजरात की एक अदालत ने कहा कि मशहूर जय शाह केस की रिपोर्टिंग मीडिया में नहीं हो सकती, न इलेक्ट्रॉनिक में और न प्रिंट में. वो कौन सा ऐसा मामला है, जो देश की सुरक्षा से जुड़ा है, जिसकी रिर्पोटिंग नहीं हो सकती, लेकिन अदालत ने फैसला दे दिया. हाई कोर्ट को उसे निरस्त करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट खामोश है. तो क्या हम ये मानें कि फैसले भी दोस्तियों के ऊपर होते हैं या राजनीतिक प्रभाव में होते हैं. शायद ये सच्चाई नहीं हो, लेकिन लोगों को तो ऐसा ही दिखाई देता है.

इसलिए सुप्रीम कोर्ट अगर अपने फैसलों के ऊपर अमल करवाना चाहता है, तो उसे सरकार और राजनेताओं से 10 हाथ दूर रहना चाहिए. उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि न्यायपालिका के शीर्षस्थ व्यक्ति यानि जज, वे लोग निष्पक्ष रहें और लोगों के हितों को ध्यान में रखकर संविधान के अनुसार फैसले दें. इससे उनकी साख भी बढ़ेगी और वो सरकारों और प्रशासन से फैसले पर अमल नहीं होने के सवाल भी पूछ सकेंगे. हमारी आखिरी आशा अभी भी न्यायपालिका ही है, खासकर सर्वोच्च न्यायालय.

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