333महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के पहले सारे गठबंधन टूट गए. एक और छोटा गठबंधन टूटा, जिसकी तरफ़ उत्तर प्रदेश के राजनीतिज्ञ बहुत उम्मीद और आशंकाओं, दोनों के प्रिज्म से देख रहे थे. उत्तर प्रदेश के नेताओं को इससे मतलब नहीं था कि महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी का गठबंधन बना रहता है कि नहीं अथवा भाजपा-शिवसेना का गठबंधन बना रहता है या टूट जाता है. बल्कि उन्हें इस बात की उम्मीद थी कि महाराष्ट्र में अगर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन होता है, तो उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा के ख़िलाफ़ वृहत्तर गठबंधन की संभावनाएं पैदा हो सकती हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. महाराष्ट्र में कांग्रेस और सपा के बीच गठबंधन का ऐलान हुआ और अगले ही दिन टूट भी गया. इसमें कांग्रेस का अड़ियलपन कारण बना.
पहले कांग्रेस-सपा गठबंधन का ऐलान हुआ, लेकिन अगले ही दिन समाजवादी पार्टी की महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष अबू आसिम आजमी ने सार्वजनिक तौर पर जानकारी दी कि समाजवादी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन टूट गया है और अब उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी. आजमी ने बताया कि कांग्रेस सपा को उचित संख्या में सीट देने के लिए तैयार नहीं थी, जिसके चलते सपा को गठबंधन से अलग होना पड़ा. कांग्रेस का व्यवहार भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना की तरह है. आजमी ने कहा कि केंद्र में जब कांग्रेस की सरकार थी, तो उस समय सपा नेता मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस को बिना मांगे समर्थन दिया. सपा धर्मनिरपेक्ष मतों का विभाजन रोकने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहती थी, लेकिन कांग्रेस उचित सीटें देने के लिए तैयार नहीं हुई.
वहीं कांग्रेस ने भी अपनी तीसरी एवं अंतिम सूची में 26 सीटों पर प्रत्याशियों के नाम घोषित करके समाजवादी पार्टी से एक दिन पुराना गठबंधन तोड़ने की मुनादी कर दी. अबू आसिम आजमी ने कांग्रेस पर धोखा देने का आरोप लगाया और कहा कि 77 लोगों ने समाजवादी पार्टी से टिकट की मांग की थी. कांग्रेस ने अपना फैसला पहले सुना दिया होता, तो सपा उसके अनुरूप पहले ही फैसला कर लेती. आजमी ने कहा कि सपा की प्राथमिकता भाजपा-शिवसेना को रोकने की थी. कांग्रेस से आठ सीटों के लिए बात हुई थी, जबकि कांग्रेस ने महज तीन सीटों को लेकर मामला फंसा दिया, जबकि इस सिलसिले में उनकी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मानिक राव ठाकरे के साथ निर्णायक वार्ता हो चुकी थी. आजमी को वार्ता करने और आवश्यक निर्णय लेने के लिए सपा के राष्ट्रीय महासचिव प्रो. राम गोपाल यादव ने अधिकृत किया था. महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने की कोशिश ने उत्तर प्रदेश को लेकर कई संभावनाएं दिखाई थीं. पहली बार कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने से समाजवादी पार्टी के लिए महाराष्ट्र नए समीकरणों की नायाब प्रयोगशाला साबित होता और उत्तर प्रदेश में यह और विस्तार ले सकता था, लेकिन कांग्रेस के कारण ऐसा नहीं हो सका. गठबंधन की कोशिश के पीछे भाजपा के ख़िलाफ़ तमाम राजनीतिक दलों को व्यापक रूप से एकजुट करने की मंशा थी, लेकिन महज तीन सीटों के स्वार्थ ने कांग्रेस को इस गठबंधन से वंचित कर दिया. आंकड़े बताते हैं कि इस गठबंधन से फ़ायदा होता और वोटों का बिखराव बचता.
ग़ौरतलब है कि सपा ने 2009 में भिवंडी, मानखुर्द (शिवाजी नगर) एवं नवापुर सीटें जीती थीं. इससे पहले 2004 में भिवंडी में शिवसेना महज इसलिए जीत गई थी, क्योंकि कांग्रेस को 25 हज़ार वोट मिले और सपा को 82 हज़ार. वोटों के बिखराव से दोनों दलों का ऩुकसान हुआ था. अगर साथ चुनाव लड़ते, तो फ़ायदा कांग्रेस और सपा दोनों को होता. महाराष्ट्र प्रयोग के पीछे बिहार प्रयोग की प्रेरणा काम कर रही थी.
बिहार में भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रोकने का प्रयोग उपचुनाव में सफल हुआ. लालू एवं नीतीश ने मिलकर भाजपा को पीछे धकेल दिया. राजद अध्यक्ष लालू यादव ने मुलायम सिंह को भी उत्तर प्रदेश में कुछ ऐसा महा-गठबंधन करने की सलाह दी थी. महाराष्ट्र में गठबंधन कायम करने की पहल के पीछे यही प्रेरणा थी, जिसका फ़ायदा चुनाव में दिखता और उत्तर प्रदेश का रास्ता खुलता, लेकिन कांग्रेस ने सारी रूपरेखा पर पानी फेर दिया.
महाराष्ट्र चुनाव में प्रचार के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव का कार्यक्रम बन रहा था. यह भी कोशिश थी कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, उपाध्यक्ष राहुल गांधी, मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की साझा सभाएं आयोजित हों. दोनों साथ प्रचार करते, तो उसका राजनीतिक संदेश जाता. इस आधार पर उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के लिए गठबंधन का स्वरूप तय होता, लेकिन महज तीन सीटों की खातिर मैडम ने गठबंधन की स्वीकृति नहीं दी. उल्लेखनीय है कि समाजवादी पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ रहे यूपीए-1 और यूपीए-2 का साथ हमेशा देती रही. सपा ने लोकसभा चुनाव में रायबरेली एवं अमेठी में उम्मीदवार न उतार कर सोनिया गांधी और राहुल गांधी का रास्ता आसान बनाकर यह संदेश दिया था कि भविष्य में व्यापक मित्रता कायम हो सकती है. हालांकि कांग्रेस ने भी मैनपुरी में मुलायम सिंह और कन्नौज में उनकी बहू डिंपल यादव के ख़िलाफ़ उम्मीदवार नहीं उतारे थे. इन्हीं तमाम बातों को आधार बनाकर व्यापक मित्रता की पहल हो रही थी, लेकिन महाराष्ट्र में झटका देकर कांग्रेस ने अपना रुख साफ़ कर दिया. सपा 2012 में मिले व्यापक जनादेश की कुर्बानी दे नहीं सकती और कांग्रेस उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में खुद को स्वाहा कर लेने का निर्णय नहीं कर सकती, भले ही वह एक भी सीट न जीत पाए.
महाराष्ट्र का झटका कुछ वैसा है, जैसा कांग्रेस ने 2009 में फिरोजाबाद सीट पर राजबब्बर द्वारा डिंपल को हराकर दिया था. कुछ कांग्रेसी नेताओं को आज तक इस बात की कसक है कि 1989-90 में मुलायम सिंह सरकार को समर्थन देने का ़फैसला कांग्रेस को काफी महंगा पड़ा. उन्हें लगता है कि कांग्रेस के समर्थन का फायदा उठाकर मुलायम सिंह अल्पसंख्यकों के दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि भाजपा का विरोध वही कर सकते हैं. ऐसा करके उन्होंने कांग्रेस को वह ऩुकसान पहुंचाया, जिसकी भरपाई आज तक नहीं हो सकी.
बहरहाल, मौजूदा राजनीतिक स्थिति और समझ तो यही है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के ख़िलाफ़ मोर्चा लेने में समाजवादी पार्टी कांग्रेस से काफी आगे खड़ी है तथा लोकसभा चुनाव में हार के बावजूद खुद को राष्ट्रीय राजनीति में समीकरण बनाने-बिगाड़ने की भूमिका में लाने का प्रयास कर रही है.
उपचुनाव में मिली जीत ने भी सपा में आत्मविश्‍वास भरने का काम किया है. सपा के एक नेता ने कहा कि उत्तर प्रदेश में समझौते की संभावना अब तभी बन सकती है, जब कांग्रेस 90 फ़ीसद से अधिक सीटें सपा को देने के लिए तैयार हो जाए. लेकिन, कांग्रेस ऐसा करने से रही और गठबंधन होने से रहा.

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