मार्च, 1914 में बिशप जॉर्ज हर्बर्ट ने इसकी बुनियाद रखी थी। जहाँ ये नींव रखी गयी थी उसे मुनब्बर बाग़ कहते थे।
1923 में ये स्टेशन बन कर तय्यार हुआ।
जेकब होरनिमेन ने इसका नक़्शा तय्यार किया था।
उस वक़्त ये स्टेशन 70 लाख रुपये में बना था जो कि उस ज़माने में बहुत महँगा था।
ये देश के सबसे खूबसूरत स्टेशन में से एक है।
पहले इसका नाम चहार बाग़ था, बाद में इसका नाम चारबाग़ में तब्दील हुआ।
चारबाग़ से पहले लखनऊ का रेलवे स्टेशन ऐशबाग़ था।
इसकी एक विशेषता यह है कि इसके अंदर से ट्रेनों के आवाजाही की आवाज़ स्टेशन बिल्डिंग से बाहर नहीं आती।
ऊपर से देखने पर इस बिल्डिंग के छतरीनुमा छोटे बड़े गुम्बद शतरंज की बिछी बिसात की तरह लगती है।
अंग्रेज सरकार ने उस वक़्त मोहम्मद बाग़ से लेकर आलमबाग़ के बीच का इलाक़ा इस स्टेशन के लिए पसंद किया था। चहार बाग़ और चार महल के नवाबों को मुआवज़े में मौलविगंज और पुरानी इमली का इलाक़ा दिया गया था।
चारबाग़ रेलवे स्टेशन काम्पाउंड में शाह सयीद क़यामुद्दीन का मज़ार स्थित है, जो ख़मभन पीर बाबा का मज़ार के नाम से मशहूर है और ये लगभग 900 साल पुराना है। पहले अंग्रेजों ने इस मज़ार को कहीं और शिफ़्ट करने का मन बनाया था, पर यहाँ आनेवाले हिंदू और मुसलमान श्रद्धालुओं की भारी भीड़ को देख कर इस मज़ार को यहीं रहने दिया गया और इसके दोनो तरफ़ से थोड़ी दूरी बनाकर लाइन बिछा दिया गया।
लखनऊ का चारबाग़ रेलवे स्टेशन के बारे में कुछ रोचक जानकारी…
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