मानो न मानो अब यह सिद्ध होने जा रहा है कि मोदी विष्णु के अवतार हैं । मित्र अभय कुमार दुबे ने पिटारा खोल दिया है। गोदी मीडिया के जिन एंकरों और कर्ता धर्ताओं ने सुना होगा उनकी तो बल्ले-बल्ले समझिए । 2014 से हम देख रहे हैं कि मोदी हों या आरएसएस सभी इस देश का अपने तरीकों से पुनरूद्धार करने या कहिए पुनर्जागरण करने में लगे हैं। भारत को फिर से चमत्कारों और सांप संपेरों का देश बनाने और अवतारवाद की कल्पना सिद्ध करने में। अयोध्या को लेकर अभय दुबे की कल्पना कहीं से खोखली नहीं, जैसा कल उन्होंने वृतांत प्रस्तुत किया। जैसा कोई भी ईश्वर आज तक नहीं कर पाया होगा कि एक ही समय में दो दो युग अस्तित्व में रहें वह मोदी जी कर दिखाएंगे। गजब है भाई। आप कलियुग में भी रहेंगे और जब मन करेगा तब अयोध्या जाकर त्रेता युग में भी प्रवेश कर पाएंगे। उसी तरह जैसे विधानसभा चुनावों में जीत हार का मतलब और होता है और लोकसभा चुनावों में जीत हार का मतलब कुछ और। हमने भी काफी पहले कहीं यह बात दर्ज की थी कि भले मोदी जी विधानसभा के पांचों राज्य हार जाएं लेकिन लोकसभा की बात अलग है। तमाम तरह के झूठ, नौटंकियां और फूहड़ताओं के बावजूद उन्होंने अपने नाम की सार्थकता बनाए रखी है। जितना असभ्य और फूहड़ समाज होगा उतने ही मोदी जी प्रासंगिक बने रहेंगे। इस फूहड़ता को आरएसएस बनाए रखना चाहती है। जिनका बरसों का सपना पहली बार फलीभूत होता दिख रहा है उन्हें समाज की प्रगति और श्रेष्ठता से क्या लेना देना। नागरिक जब तक लौट कर प्रजा में तब्दील नहीं होंगे तब तक ये प्रयास चलते रहेंगे। गरीब शिक्षा के किसी कोण को नहीं समझता। उसके लिए आज भी यह प्रासंगिक है ‘कोऊ होऊ नृप हमें का हानि’ । तो लोकसभा चुनावों के लिए बीजेपी और आरएसएस की सारी तैयारियां अपनी जगह मुकम्मल हैं। अब यह इंडिया गठबंधन को देखना है इन चुनौतियों का कैसे सामना करके विरोधियों की रणनीतियों को धराशाई करती है या कर भी सकती है या नहीं। अभय दुबे कल लाउड इंडिया टीवी के अपने अभय दुबे शो में बोल रहे थे।
कल दो कार्यक्रम और मनभावन लगे । बहुत दिनों बाद ‘ताना बाना’ कार्यक्रम आया। बढ़िया बातचीत सुनी सिंधी समाज को लेकर। आज तक भारत में सिंधी समाज को लेकर शायद ही कोई पुस्तक आयी हो जिसमें इस ‘उपेक्षित’ से समाज के दुख दर्द को बयान किया गया होगा। मुकेश कुमार ने सही कहा कि विभाजन के बाद मुसलमानों को तो पाकिस्तान मिल गया। पंजाबियों को पंजाब मिल गया लेकिन सिंधियों को क्या मिला। आज तक हमारे समाज में सिंधियों को जिस निगाह से देखा जाता है कि वे बहुत गंदे होते हैं, शर्म या हया का कोई विचार नहीं करते, किसी भी हद तक जाकर सिर्फ धंधे के लिए जीना मरना आदि आदि। इस सबके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है। वे कितने कंजूस होते हैं उस पर तो ओशो का एक मशहूर चुटकुला है जिसे वे अक्सर सुनाया करते थे। संक्षेप में सिर्फ यह कि एक अमीर शेख के खून में सिंधी का खून चला गया तो वह भी निरा कंजूस हो गया। ये वो धारणाएं हैं जो सिंधी समाज को लेकर आज तक बनी हुई हैं। दुख तो तब होता है जब ऐसी धारणाओं को तोड़ने के लिए उसी समाज से कोई आवाज मुखर नहीं होती। ‘ज़हरख़ुरानी’ यह पुस्तक है निर्मला भूराड़िया की जिस पर मुकेश कुमार ने उनसे बात की । बहुत अच्छा लगा पूरी बातचीत सुन कर। पर क्या यह पुस्तक सिंधी समाज में कोई हलचल या तब्दीली ला पाएगी । मुझे लगता है सारे समाजों ने अपने अपने धर्मों में खुद को इस कदर जकड़ लिया है कि उसके आर पार वे कुछ देख ही नहीं पाते। आज का समाज ‘हमें क्या’ वाले अंदाज में जी रहा है। सिर्फ मैं, मेरा परिवार, मेरा समाज, मेरा धर्म । शायद कट्टरता यहीं से शुरु होती है। निर्मला भूराड़िया जी को उनकी पुस्तक के लिए साधुवाद !
‘सिनेमा संवाद’ का विषय इस बार बहुत रोचक और ज़रूरी लगा। हाल ही में ’12वीं फेल’ फिल्म आयी है। समाज में प्रेरणा जगाती एक जबरदस्त फिल्म है। मैंने स्वयं देखी और कईयों को प्रेरित किया। दरअसल विधु विनोद चोपड़ा ने यह फिल्म बनाई ही ऐसी है कि बड़ी बड़ी फिल्मों का भी इस पर कोई असर न पड़े ।‌ तो क्या प्रेरक सिनेमा अपनी जगह बना रहा है। इस विषय पर कल चर्चा थी । चर्चा तो अच्छी थी लेकिन अब निराशा मेहमानों को लेकर होने लगी है। दो चार मित्रों ने कहा भी कि कब तक हम इन्हीं चेहरों को देखते रहेंगे। एक नए तो पूछा कि क्या यह शो ज्यादा नहीं देखा जाता? कमेंट भी बहुत कम आते हैं। क्या इसीलिए अमिताभ जी को नये नये लोग मिल नहीं पाते। क्या जवरीमल पारेख के अलावा उन जैसे प्रतिभावान और दूसरे लोग नहीं? ऐसी क्या मजबूरी है उन्हें हर बार लेने की । चार छः महीने के लिए उन्हें विराम दिया जाए। अब इसी विषय पर कम से कम चार प्रबुद्ध लोगों को बुलाया जाना चाहिए था।
दूसरी बात यह कि प्रेरक कहानियों पर पहले फिल्में नहीं बनीं क्या? अमिताभ ने ‘आनंद’ का जिक्र किया। लेकिन मुझे तो लगता है कि उससे भी बहुत पहले प्रेरक कहानियों पर फिल्में बनती रही हैं। फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ कैसी फिल्म थी? कार्यक्रम से इधर की दो एक फिल्मों के बारे में भी जानकारी मिली जैसे ‘द इंडियन ग्रेट फैमिली’ । मुझे उसका पोस्टर पसंद नहीं आया था, चलताऊ फिल्म लगी इसलिए नहीं देखी । अब देखनी ही पड़ेगी। अजय ब्रह्मात्मज ने हंसी मजाक में एक बार आमिर खान से कहा था कि ‘कमोड’ के सही इस्तेमाल पर भी एक फिल्म बनाएं। मुझे लगता है कि यह हंसी मजाक की बात नहीं गम्भीर बात है । हेल्थ और हाईजीन हमेशा इस देश में गम्भीर मुद्दा होना चाहिए। लोगों को वास्तव में नहीं पता कि कमोड का इस्तेमाल कैसे किया जाता है।
सोशल मीडिया की चर्चाओं पर मेहमानों को हर बार दोहराएं जाने का रोग बहुत उबाऊ हो गया है। कोई प्रोग्राम हो बार बार वही चेहरे। संतोष भारतीय जी ने भी लीगल विषयों को लेकर एक कार्यक्रम शुरु किया है जो तभी लोकप्रिय होगा जब कार्यक्रम में आने वाले वकीलों और लीगल एक्सपर्ट्स को हर बार बदला जाएगा। मैं लाउड इंडिया के हर कार्यक्रम को नहीं देख पाता हूं लेकिन चुनिंदा कार्यक्रम देखने की इच्छा होती है। बहुत से ऐसे वकील और जज हैं जो दूसरी जगहों पर चर्चाओं में आते रहते हैं उनसे संपर्क कर सकते हैं संतोष जी। अच्छा और रोचक बन पड़ेगा। ऐसे कार्यक्रमों की बहुत जरूरत है।
कल क्रिकेट का पागलपन समाप्त हो गया। मैंने फेसबुक पर तमन्ना की थी कि देश को पागलपन से बचाने के लिए फाइनल का यह मैच भारत को हारना चाहिए और भारत हारा। जो प्रधानमंत्री मणिपुर जाने का समय नहीं निकाल पाया आज तक वह न जाने कितनी जगह ट्रैफिक को जाम करता हुआ अपने ही नाम के स्टेडियम में पहुंचा। यह भी एक बेहूदगी ही है कि जीते जी अपने नाम पर स्टेडियम बनवा लेना और इतना ही नहीं निर्लज्जता की पराकाष्ठा तो यह है कि पिचों के दोनों एंड अंबानी और अडानी के नाम पर रख लेना। फिर भी विष्णु का अवतार कल कोई चमत्कार नहीं दिखा पाया। मुझे तो बहुत संतुष्टि है। वरना आप देखते अंकल और आंटियां तैयार बैठे थे पटाखों में आग लगाने को। ऑस्ट्रेलिया सभ्य और समृद्ध देश है हम उतने ही असभ्य और गरीब देश हैं । वहां किसी तरह का नशा और पागलपन नहीं है पर हमारे यहां ? हम सब जानते हैं। फिलहाल देश बचाने का एक ही विकल्प है नयी सत्ता को लाने का प्रयास हो।‌ कल राहुल गांधी ने कहा दिया नरेंद्र मोदी जातीय जनगणना नहीं करा सकता। विवाद बन गया। बनना ही था। राहुल गांधी की यही समस्या है। नहीं करा सकता या नहीं करा सकते। भाषा, उच्चारण और अभिव्यक्ति की समस्या बहुत बड़ी है जब आप राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं तब । पर बात तो वही कि राहुल नेचुरल पॉलिटिशियन नहीं हैं। कांग्रेस के लोग इस बात को नहीं समझते। जितना जल्दी समझें उतना अच्छा। वैसे आजकल हर बात राहुल गांधी से शुरु होकर राहुल गांधी पर समाप्त होती है यह भी अच्छा ही है । देखिए आगे।

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