श्रम क़ानूनों में किए जा रहे संशोधन से केंद्रीय ट्रेड यूनियनें मोदी सरकार से ख़ासी नाराज़ हैं. श्रमिक संगठनों का कहना है कि नब्बे के दशक के बाद सरकारों का रवैया पूरी तरह मज़दूर विरोधी हो गया है. उनका कहना है कि मंत्रिमंडल ने श्रम क़ानूनों में तब्दीली के जिस मसौदे को मंजूरी दी है, वह श्रमिक हितों को रौंदने वाला है. मज़दूर नेताओं का आरोप है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विश्‍व बैंक और पश्‍चिमी देशों के इशारे पर श्रम क़ानूनों को प्रभावहीन बनाना चाहते हैं. केंद्र सरकार ट्रेड यूनियनों को नज़रअंदाज़ कर श्रम क़ानूनों में संशोधन करने की जल्दबाज़ी क्यों दिखा रही है, पढ़िए चौथी दुनिया की इस ख़ास रिपोर्ट में…
IMG_1070आख़िरकार मोदी सरकार ने वही किया, जिसकी आशंका लोगों को पहले से थी. केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन अहम फैसले लिए. सरकार ने सबसे पहले रक्षा सौदों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को मंजूरी दी. फिर उसने बीमा क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति प्रदान की और अब श्रम क़ानूनों में संशोधन की प्रक्रिया शुरू कर केंद्र सरकार ने लाखों कर्मचारियों और मज़दूरों को हड़ताल पर जाने के लिए विवश कर दिया है. हैरानी की बात यह है कि श्रम क़ानूनों में किए जा रहे संशोधन से पहले सरकार ने केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से इस बाबत बातचीत करना भी मुनासिब नहीं समझा. जबकि अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन के नियमानुसार, सरकार को श्रम क़ानूनों में किसी तरह के संशोधन करने से पहले ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों और कारखाना मालिकों से बातचीत करनी चाहिए.
फ़िलहाल श्रम क़ानूनों में संशोधन संबंधी प्रस्ताव को कैबिनेट से मंजूरी मिल चुकी है. संसद में भी श्रम क़ानून संशोधन विधेयक पर चर्चा शुरू हो गई है. हालांकि, केंद्र सरकार के रुख़ से यह साफ़ हो चुका है कि वह श्रम क़ानूनों में संशोधन करने के इरादे से पीछे नहीं हटेगी. ज़ाहिर है, सरकार के पास स्पष्ट बहुमत है और ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में आर्थिक विकास पर ज़ोर देने की बात कहते रहे हैं. उनका मानना है कि श्रम क़ानूनों में सुधारों के बग़ैर देश में बड़ा निवेश संभव नहीं है.
इस मामले में प्रधानमंत्री की दलील चाहे जो हो, लेकिन लाखों मज़दूरों की क़ीमत पर इसका फ़ायदा कॉरपोरेट घरानों को मिलना तय है.
श्रम क़ानूनों में बदलाव के तहत फैक्ट्रीज एक्ट-1948, अप्रेंटिसशिप एक्ट-1961 और लेबर लॉज एक्ट-1988 में कुल 54 संशोधन किए जा रहे हैं. नए श्रम क़ानूनों के लागू होने के बाद उन कारखाना मालिकों को श्रम क़ानूनों की बंदिशों से छूट मिल जाएगी, जहां 40 से कम कर्मचारी काम करते हैं. वैसे अभी 10 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों को यह छूट हासिल है. इसके अलावा, अप्रेंटिसशिप एक्ट के तहत कंपनी मालिकों को हिरासत में लेने का प्रावधान भी ख़त्म हो जाएगा. सरकार की दलील यह है कि इससे ज़्यादा से ज़्यादा कंपनियों को अप्रेंटिसशिप योजना में शामिल होने में मदद मिलेगी. केंद्र सरकार ने ओवर टाइम ड्यूटी की सीमा भी बढ़ाकर दोगुनी करने का प्रस्ताव किया है. फ़िलहाल तीन महीने में अधिकतम 50 घंटों का ओवरटाइम निर्धारित है, जो बढ़कर 100 घंटों का हो जाएगा. फैक्ट्रीज एक्ट-1948 में किए जा रहे संशोधनों के बाद कारख़ानों और कंपनियों में महिलाओं को नाइट ड्यूटी करने की छूट मिलेगी. हालांकि, सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनें सरकार के इस फैसले का विरोध कर रही हैं. उनका कहना है कि कॉल सेंटरों और मल्टीनेशनल कंपनियों में नाइट शिफ्ट में काम करने वाली महिलाओं को वाहन इत्यादि की सुविधाएं मिलती हैं, लेकिन छोटे कल-कारख़ानों में इस तरह की सुविधाएं नहीं दी जाती हैं.
वैसे कर्मचारियों की छंटनी के मामले में कारखाना मालिकों को ज़्यादा अधिकार देने से सरकार पीछे हट गई है, क्योंकि इसके ख़िलाफ़ ट्रेड यूनियनों का गुस्सा भड़क सकता है. मौजूदा अप्रेंटिसशिप एक्ट-1961 के तहत किसी भी फैक्ट्री और कंपनी में रखे जाने वाले कुल प्रशिक्षुओं (ट्रेनी) में से पचास प्रतिशत लोगों को नियमित कर्मचारी बनाए जाने का प्रावधान है. ऐसे सभी कर्मचारियों को श्रम क़ानूनों के तहत पीएफ और ईएसआई समेत सभी बुनियादी सुविधाएं देने का प्रावधान है. इसके अलावा, किसी कंपनी में बतौर प्रशिक्षु (ट्रेनी) रखने की अवधि दो साल तक ही निर्धारित है. हालांकि, अप्रेंटिसशिप एक्ट-1961 में संशोधन के बाद कारखानों और कंपनियों में प्रशिक्षुओं का शोषण होना तय है, क्योंकि नए संशोधनों के बाद किसी भी कंपनी में कार्यरत प्रशिक्षुओं में से पचास प्रतिशत लोगों को नियमित रोज़गार देने की पाबंदी हटा दी गई है. इतना ही नहीं, कर्मचारियों को बतौर प्रशिक्षु दो साल से अधिक नहीं रखने की बाध्यता भी श्रम सुधारों के नाम पर ख़त्म कर दी गई है. देश में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है, इसलिए शिक्षित नौजवान कम तनख्वाह पर भी काम करने के लिए मज़बूर हैं. बेरोज़गार युवाओं की मज़बूरियों का फ़ायदा निश्‍चित रूप से कल-कारखानों और अन्य कंपनियों के मालिकान उठाएंगे. श्रम क़ानूनों में नए संशोधनों के बाद अब कोई भी कंपनी अधिक संख्या में युवाओं को बतौर ट्रेनी रखेगी, वह भी कम वेतन पर. नए श्रम क़ानूनों का फ़ायदा बड़े अख़बार समूह और समाचार चैनल भी उठाएंगे.
इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) के अध्यक्ष जी. संजीव रेड्डी ने चौथी दुनिया को बताया कि एनडीए सरकार ट्रेड यूनियनों से बग़ैर सलाह-मशविरा किए और संसद को यकीन में लिए बिना श्रम क़ानूनों में संशोधन करने पर आमादा है. उनके अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के समय अपनी चाय बेचने वाली छवि का जमकर इस्तेमाल किया, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने श्रमिकों के हितों पर ही आघात करना शुरू कर दिया. वहीं इस मुद्दे पर हिंद मज़दूर सभा (एचएमएस) के महासचिव हरभजन सिंह सिद्धू ने कहा कि केंद्र सरकार को श्रम क़ानूनों में संशोधन की जल्दबाज़ी इसलिए है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी के ऊपर उद्योगपतियों का काफ़ी दबाव है. सभी जानते हैं कि लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 10 हज़ार करोड़ से ज़्यादा रुपये ख़र्च किए हैं. भाजपा को इतने रुपये कॉरपोरेट घरानों से मिले हैं. ज़ाहिर है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उद्योगपतियों की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं. उद्योगपतियों को ख़ुश करने के मक़सद से ही केंद्र सरकार ने पहले रक्षा सौदों में एफडीआई को मंजूरी दी, उसके बाद बीमा क्षेत्र में एफडीआई को मंजूरी दी और अब वह ट्रेड यूनियनों के नेताओं को विश्‍वास में लिए बग़ैर श्रम क़ानूनों में संशोधन करने जा रही है. 17 मई, 2013 को नई दिल्ली में 45वीं इंडियन लेबर कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि फरवरी में ट्रेड यूनियनों की दो दिवसीय हड़ताल ने कई ऐसे मुद्दों पर सरकार का ध्यान खींचा, जो न स़िर्फ मज़दूर, बल्कि आम जनता की खुशहाली से भी संबंधित हैं. इनमें ऐसी मांगें शामिल थीं, जिन पर कोई मतभेद नहीं हो सकता. ग़ौरतलब है कि डॉ. मनमोहन सिंह और तत्कालीन श्रम मंत्री ट्रेड यूनियनों की मांग के समर्थन में थे, लेकिन वित्त मंत्री पी चिदंबरम उसके सख्त ख़िलाफ़ थे. इस तरह मनमोहन सिंह की लाचारी उस समय भी देखी गई.
सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू) की सचिव ए आर सिंधु ने इस मुद्दे पर चौथी दुनिया को बताया कि श्रम क़ानूनों में किए जा रहे इस बदलाव से कारख़ानों में मज़दूरों की स्थिति दयनीय हो जाएगी. उनके अनुसार, 5 जून को श्रम क़ानूनों में संशोधन का प्रस्ताव श्रम मंत्रालय की वेबसाइट पर आम लोगों की टिप्पणियों के लिए डाल दिया गया. सिंधु बताती हैं कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने श्रम सुधारों के नाम पर पिछले दिनों जिस तरह औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947, फैक्ट्रीज एक्ट-1948 और ठेका मज़दूर अधिनियम-1971 में संशोधन किया है, वह सरासर ग़लत है. राजस्थान में नए श्रम क़ानून के अनुसार, 300 कर्मचारियों तक की छंटनी पर अब केंद्र सरकार से अनुमति लेने की बाध्यता नहीं रह गई है. मौजूदा क़ानून में 100 कर्मचारियों तक की छंटनी के लिए सरकार की अनुमति नहीं लेनी पड़ती है. जहां तक ठेका मज़दूर क़ानून का सवाल है, तो यह अब मौजूदा 20 श्रमिकों की तुलना में 50 कर्मचारियों पर ही लागू होगा. संबंधित विधेयक ज़ल्द ही राजस्थान विधानसभा में पेश किया जाएगा. उसके बाद इसे मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा.
भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस) ने भी मोदी सरकार के इस ़फैसले का कड़ा विरोध किया है. बीएमएस के महामंत्री विरजेश उपाध्याय ने बताया कि न स़िर्फ श्रम क़ानूनों में संशोधन, बल्कि बीमा और रक्षा सौदों में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का विरोध ट्रेड यूनियनों द्वारा किया जा रहा है. उनके मुताबिक़, अगर केंद्र सरकार इस बाबत विधेयक पेश करती है, तो सभी ट्रेड यूनियनें एक साथ मिलकर हड़ताल करेंगी. ग़ौरतलब है कि श्रम क़ानूनों में संशोधन समेत कई अन्य मुद्दों पर 7 अगस्त, 2014 को नई दिल्ली स्थित इंटक कार्यालय में सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के पदाधिकारियों की बैठक हुई, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि सितंबर के प्रथम सप्ताह में सरकार की मज़दूर विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय अधिवेशन किया जाएगा. सच्चाई यह है कि विदेशी निवेशक भारत के मौजूदा श्रम क़ानूनों की पेचीदगियों से निवेश करने में हिचकिचा रहे हैं. उनका मानना है कि वर्तमान श्रम क़ानून कारखाना मालिकों के हितों के ख़िलाफ़ हैं और निवेशकों पर दबाव बनाने के लिए श्रमिक संगठन अक्सर इनका इस्तेमाल करते हैं.
ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के महासचिव गुरुदास दासगुप्ता ने चौथी दुनिया से ख़ास बातचीत में बताया कि नरेंद्र मोदी सरकार श्रम क़ानूनों में संशोधन कर कॉरपोरेट घरानों को खुश करना चाहती है. उनके मुताबिक़, केंद्र सरकार का रवैया पूरी तरह मज़दूर विरोधी है. दरअसल, भारी बहुमत के साथ आई भाजपा सरकार श्रम क़ानूनों में इस तरह का बदलाव करना चाहती है, जिससे देशी-विदेशी पूंजीपतियों को अधिकाधिक लाभ मिल सके.श्रम क़ानूनों में बदलाव किए जाने संबंधी मसौदे को कैबिनेट से मंजूरी मिलने को उन्होंने दुर्भाग्यपूर्ण बताया और हड़ताल करने की चेतावनी दी. याद रहे कि पिछले साल 20 और 21 फरवरी को सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने यूपीए सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ हड़ताल की थी. बावजूद इसके केंद्र सरकार इस पूरे मामले पर ख़ामोश रही. सरकार के इस रवैये से यह कहा जा सकता है कि उसने मज़दूरों के हितों के लिए क़ानून बनाना तो दूर, अब उनके विषय में सोचना भी बंद कर दिया है.
नब्बे के दशक में लागू हुई नई आर्थिक नीतियों के बाद पश्‍चिमी देशों की नज़रों में भारत स़िर्फ एक बाज़ार है. विश्‍व बैंक समेत विदेशी कॉरपोरेट घरानों की शुरू से यह इच्छा रही है कि भारत में लागू श्रम क़ानूनों में व्यापक संशोधन किए जाएं, ताकि कंपनियों को निवेश करने और व्यापार चलाने में कोई परेशानी न हो. अगर देखा जाए, तो उद्योग जगत हमेशा श्रम क़ानूनों को कमज़ोर करने की वक़ालत करती रही है. वहीं कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की कई मांगें भी वर्षों पुरानी हैं, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि उनकी मांगों पर सरकार कभी ग़ौर नहीं करती. कॉरपोरेट घरानों का कहना है कि भारत में नई आर्थिक नीतियां तो लागू हो गई हैं, लेकिन यहां मौजूद श्रम क़ानून काफ़ी पुराने हैं, जो वैश्‍वीकरण के लिहाज़ से सही नहीं हैं. उनके अनुसार, कठोर नियमों की वजह से उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और विदेशी कंपनियां हमारे यहां निवेश से हिचकती हैं. प्रधानमंत्री, उद्योग जगत के प्रमुख संगठनों, ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों और सभी राज्यों के श्रम मंत्रियों की मौजूदगी में हर साल दिल्ली के विज्ञान भवन में इंडियन लेबर कांफ्रेंस का आयोजन होता है. इस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री मज़दूरों के हितों की बात तो करते हैं, लेकिन मौजूदा सरकार जिस हड़बड़ी के साथ श्रम क़ानूनों में संशोधन करने के लिए उतावली दिख रही है, उससे इस सरकार की मज़दूर विरोधी मानसिकता का पता चलता है.

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