भारत-बांग्लादेश क्रिकेट मैच के दौरान बाउंड्री पार करती बॉल को देखते ही एक सवाल कौंध गया. बाउंड्री पर सहारा इंडिया लिखा था. बांग्लादेश और भारत की टीमें सहारा कप जीतने के लिए खेल रही हैं. हैरानी इस बात की है कि सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत रॉय जेल में हैं. देश में चाहे क्रिकेट हो, बैडमिंटन हो, हाकी हो, फॉर्मूला वन हो या फिर पोलो, सुब्रत रॉय ने खेल को बढ़ावा देने में काफी सकारात्मक योगदान दिया है, लेकिन इस बार सहारा परिवार के मुखिया के साथ ही खेल हो गया. यह सचमुच हैरानी की बात है कि इस देश में घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं होती, वे जेल नहीं जाते, उन्हें अग्रिम जमानत मिल जाती है. शायद इसलिए, क्योंकि हमने सुना था कि भारत का क़ानून ऐसा है कि चाहे सौ गुनहगार छूट जाएं, लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए. तो इसका मतलब है कि सहारा श्री सुब्रत रॉय ने ज़रूर कोई ऐसा जुर्म किया होगा, जिसके लिए उन्हें सजा दी जा रही है. हमने यह जानने के लिए कि आख़िर सच क्या है, मामले की पूरी तहकीकात की.
subrat-raiसहारा श्री सुब्रत रॉय को 4 मार्च, 2014 को जेल भेजा गया, वह भी तब, जब उन्होंने बिना शर्त माफी मांगी और कोर्ट में उपस्थित हुए. उन्हें किस जुर्म में जेल भेजा गया, यह समझ के बाहर है. सुब्रत रॉय के ख़िलाफ़ क्या आरोप हैं? क्या ये आरोप सुब्रत रॉय को बताए गए हैं? क्या सुब्रत रॉय को जेल भेजे जाने से पहले कोई सुनवाई हुई? दरअसल, बात स़िर्फ इतनी थी कि अदालत चाहती थी कि सुब्रत रॉय उसके समक्ष उपस्थित हों. सुब्रत रॉय ने कहा कि उनकी बूढ़ी मां बीमार हैं. सुब्रत रॉय की उम्र 66 साल है, तो उनकी मां की उम्र अस्सी साल से ऊपर ही होगी. इस उम्र में कौन स्वस्थ रहता है आजकल? लेकिन, अदालत ने सुब्रत रॉय की एक नहीं सुनी. 26 फरवरी, 2014 को अदालत ने उनके ख़िलाफ़ ग़ैर जमानती वारंट जारी कर दिया. इसके बाद वह अदालत में उपस्थित भी हुए. अगर सुब्रत रॉय पर अदालत में उपस्थित न होने का आरोप है, तो जिस दिन उन्होंने उपस्थित होकर माफी मांग ली थी, उसी दिन मामला ख़त्म हो जाना चाहिए था. अगर यह अदालत की अवमानना का मामला है, तो क्या इसकी सुनवाई हुई? सजा तो अवमानना सिद्ध होने के बाद ही मिलेगी. लेकिन उन्हें सीधे जेल भेज दिया गया. एक और सवाल यहां उठता है कि क्या किसी कंपनी के छोटे-बड़े मुकदमों में हर बार कंपनी मालिक या सीईओ का उपस्थित होना ज़रूरी है? क्या हमारे देश में वकीलों द्वारा अदालत में उपस्थिति दर्ज कराने का कोई नियम नहीं है? देखा तो यह जाता है कि लोग बीमारी का बहाना बनाकर जेल से बाहर रहते हैं. एक ही देश में अलग-अलग लोगों के लिए अलग- अलग नियम कैसे संभव है?
सुब्रत रॉय को किस जुर्म की सजा मिल रही है? अगर मामला धोखाधड़ी का है, तो वे लोग कौन हैं, जिनके साथ धोखा हुआ? हाल में ही शारदा का मामला सामने आया, जिसमें पश्‍चिम बंगाल में जगह-जगह पर निवेशक सड़कों पर आ गए, कुछ लोग आत्महत्या कर बैठे. लेकिन, सहारा के तीन करोड़ निवेशकों में से एक ने भी कोई शिकायत नहीं की. दरअसल, सहारा का मामला यह है कि सेबी ने सहारा की कंपनियों द्वारा निवेशकों से पैसे लेने पर प्रतिबंध लगा दिया और जितने भी निवेशक हैं, उन्हें उनके पैसे वापस करने को कहा. सहारा ने कहा कि उसने पैसे लौटा दिए हैं. सेबी का मानना है कि पैसे नहीं लौटाए गए हैं. वह अदालत के जरिये पैसे की मांग कर रहा है कि वह स्वयं निवेशकों को उनका पैसा लौटाएगा. अब सहारा के लिए मुश्किल यह है कि वह एक ही निवेशक को दो-दो बार पैसे क्यों लौटाएगा. सहारा ने वर्ष 2008 में 18,000 करोड़ रुपये भारतीय रिजर्व बैंक की निगरानी में चार करोड़ निवेशकों को चुकाए थे. सेबी या अन्य किसी एजेंसी को सहारा के निवेशकों की ओर से कभी कोई शिकायत नहीं मिली और न सहारा ने कभी केवाईसी (अपने ग्राहक को जानो) के प्रावधानों का उल्लंघन किया. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने सहारा इंडिया फाइनेंशियल कॉरपोरेशन लिमिटेड के बोर्ड का जुलाई 2008 में पुनर्गठन किया था और तीन स्वतंत्र निदेशकों को नियुक्त किया था. सभी जमाकर्ताओं के फोटोग्राफ लिए गए, शाखाओं को ऑडिट किया गया और आकस्मिक जांच की गई और तकनीकी तौर पर वैयक्तिक रूप से सत्यापन भी किया गया, किंतु नियमों के उल्लंघन का एक भी मामला सामने नहीं आया. सहारा का दावा है कि निवेशकों को 93 प्रतिशत धनराशि यानी 23,500 करोड़ रुपये का भुगतान किया जा चुका है और इससे संबंधित सभी कागजात सेबी के पास जमा कराए जा चुके हैं. तब किसी ने सहारा की दोनों कंपनियों की वैधानिकता पर कोई सवाल नहीं उठाया. उस वक्त तो यह मामला सेबी के अधिकार क्षेत्र में नहीं था. तो फिर अचानक से एक काल्पनिक व्यक्ति रौशन लाल की शिकायत पर सेबी क्यों सक्रिय हो गया? इसके अलावा पुनर्भुगतान के लिए सेबी को 5,620 करोड़ रुपये दिए गए हैं, लेकिन अभी तक वह केवल एक करोड़ रुपये का वितरण कर पाया है, जो इस बात का प्रमाण है कि अधिकांश निवेशकों को उनका पैसा लौटाया जा चुका है.
सहारा शुरू से यह दावा करता आया है कि वह 93 फ़ीसद ओएफसीडी निवेशकों को पैसा वापस कर चुका है. अगर फिर भी निवेशकों को पैसा लौटाने के नाम पर सेबी सहारा से पैसा लेता है, तो यह सहारा क्या, किसी के लिए भी मुश्किल की बात है. अब यह सेबी की ज़िम्मेदारी है कि वह इस बात की जांच करे कि निवेशकों को पैसे लौटाए गए हैं या नहीं. सेबी ने अब तक कोई जांच नहीं की है, लेकिन यह मान बैठा है कि उक्त निवेशक फर्जी हैं, उनका अस्तित्व ही नहीं है. अब सवाल यह है कि अगर निवेशक हैं ही नहीं, तो फिर सेबी का यहां काम क्या है? सेबी तो निवेशकों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए बनाया गया बोर्ड है.

सहारा शुरू से यह दावा करता आया है कि वह 93 फ़ीसद ओएफसीडी निवेशकों को पैसा वापस कर चुका है. अगर फिर भी निवेशकों को पैसा लौटाने के नाम पर सेबी सहारा से पैसा लेता है, तो सहारा को क्या निवेशकों दोबारा पैसे लौटाने होंगे. अब यह सेबी की ज़िम्मेदारी है कि वह इस बात की जांच करे कि निवेशकों को पैसे लौटाए गए हैं या नहीं. सेबी ने अब तक कोई जांच नहीं की है, लेकिन यह मान बैठा है कि उक्त निवेशक फर्जी हैं, उनका अस्तित्व ही नहीं है. अब सवाल यह है कि अगर निवेशक हैं ही नहीं, तो फिर सेबी का यहां काम क्या है?

सहारा के पूरे प्रकरण पर नज़र डालें, तो यह पूरा मामला कई विरोधाभासों से ग्रसित है. दो साल से चल रही सुनवाई के दौरान हुईं कई घटनाएं ऐसी हैं, जो हैरान करने वाली हैं. सेबी ने बिना जांच-पड़ताल किए सहारा के निवेशकों को फर्जी बता दिया. सुनवाई के दौरान सहारा के दो निवेशकों का मामला आया. इन दो निवेशकों के नाम कलावती और हरिद्वार हैं. कलावती के बारे में अदालत ने कहा कि उनका जो पता दिया गया है, उसमें घर का नंबर, गली, सड़क और मुहल्ले का नाम सही नहीं है. हरिद्वार के बारे में कहा गया कि यह समझ से बाहर है कि किसी व्यक्ति का नाम हरिद्वार हो सकता है. यह तो किसी स्थान का नाम हो सकता है, व्यक्ति का नहीं. यह भी अजीब बात है कि गांव के लोग घर का नंबर, गली और सड़क का नाम कहां से लाएं. उत्तर प्रदेश एवं बिहार के गांवों में घर के नंबरों का प्रचलन ही नहीं है. गांव में सड़कों या गलियों का नाम होता है, यह सुनकर गांव वाले तो मजाक ही समझेंगे. जहां तक बात हरिद्वार के नाम की है, तो हर सौ आदमियों में से एक आदमी का नाम किसी शहर या स्थान के नाम से जुड़ा होता है. वैसे भी, जब इन दोनों के मामलों पर अदालत ने आपत्ति जताई, तो साक्ष्य के रूप में उन्हें सुनवाई के दौरान बुला लिया गया. वे सुनवाई के दौरान बैठे रहते थे. जब एक सुनवाई के दौरान जजों को दोनों से मिलवाया गया, तो उन्होंने कहा कि वह तो हमने महज एक टिप्पणी की थी. हैरानी की बात यह है कि जब सेबी की पूरी दलील ही इस बात पर टिकी है कि निवेशक फर्जी हैं, तो इस टिप्पणी को इस मामले के लिए अनौपचारिक नहीं माना जा सकता है. सेबी अब तक इस बात को प्रमाणित करने में विफल रहा है कि सहारा के निवेशक फर्जी हैं.
लेकिन विडंबना देखिए, इस मामले की शुरुआत रौशन लाल नामक एक व्यक्ति की शिकायत से हुई. रौशन लाल ने खुद को एक चार्टेड एकाउंटेंट और इंदौर निवासी बताया. उसने सहारा की दो कंपनियों द्वारा जारी ओएफसीडी के ख़िलाफ़ सेबी से कार्रवाई करने की अपील की थी. लेकिन यह रौशन लाल कौन है, यह अब तक किसी को पता नहीं चल पाया है. सेबी ने कभी उसे अदालत में हाजिर नहीं किया. सेबी ने एक काल्पनिक व्यक्ति की शिकायत पर राई का पहाड़ बना दिया. काल्पनिक इसलिए, क्योंकि इनाम सिक्योरिटीज की तरफ़ से जब रौशन लाल द्वारा बताए पते पर एक चिट्ठी भेजी गई, तो वह पता फर्जी निकला. एक अख़बार ने भी रौशन लाल की तलाश की, लेकिन वह पत्रकार भी असफल रहा. रौशन लाल द्वारा दिया गया पता फर्जी है. अजीब बात है कि जिस रौशन लाल की शिकायत पर सेबी इतना बड़ा केस लड़ रही है, अगर वही फर्जी है, तो सेबी यह कैसे कह सकता है कि सहारा में निवेश करने वाले लोग फर्जी हैं. जो सेबी एक रौशन लाल का पता नहीं लगा पाया, वह तीन करोड़ लोगों की प्रामाणिकता कैसे जांच सकेगा?
इस बीच एक अजीबोग़रीब घटना हुई. जब सहारा की तरफ़ से कहा गया कि हमने पैसा वापस कर दिया है, तो अदालत ने सहारा से कहा कि आपने जिनके पैसे वापस किए हैं, उनकी जानकारी दीजिए. अदालत ने सहारा को दस दिनों का समय दिया. दो लाख निवेशकों के सारे कागजात जमा करने और उन्हें मुंबई में सेबी के दफ्तर तक पहुंचाने के लिए स़िर्फ दस दिन दिए गए. फाइलों से लदे 157 ट्रक लखनऊ से मुंबई भेजे गए. किसी भी ट्रक को साधारण रूप से लखनऊ से मुंबई पहुंचने में सात दिनों का समय लगता है. ये ट्रक सेबी के दफ्तर 6 घंटे देर से पहुंचे, तो दफ्तर के लोगों ने कहा कि अब समय समाप्त हो गया है. ट्रक पहुंचने में देरी की वजह से सेबी ने फाइलें लेने से मना कर दिया. फाइलें पड़ी रहीं. फिर अदालत ने सेबी से कहा कि फाइलें लीजिए. तब जाकर सेबी ने फाइलें लीं. अब सेबी को यह प्रमाणित करना है कि सहारा के निवेशक नकली हैं, लेकिन सेबी ने अभी तक कोई तहकीकात नहीं की है. अगर ये निवेशक सही निकले, तब क्या होगा? देश के एक बड़े कंपनी समूह को डुबोने की ज़िम्मेदारी किसकी होगी? सहारा श्री सुब्रत रॉय को जो जेल भेजा गया, सहारा में काम करने वाले कर्मचारियों को जो मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी और कंपनी समूह को जो हानि पहुंची, इन सबका हर्जाना कौन भरेगा?
अदालत कह रही है कि सुब्रत रॉय को जेल से बाहर निकलने के लिए सहारा को पैसा जमा करना होगा. पांच हज़ार करोड़ रुपये नकद और पांच हज़ार करोड़ रुपये की अचल संपत्ति का बांड दीजिए, तो आपको जमानत मिलेगी. क्या सुब्रत देश छोड़कर भाग रहे हैं? अदालत ने तो वैसे भी उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया है. अगर वह भाग भी जाते हैं, तो उनकी संपत्तियां तो भारत में ही हैं. सरकार और क़ानून उन्हें जब्त कर सकते हैं और निवेशकों का पैसा लौटाया जा सकता है. जेल भेजने की ज़रूरत क्या है? अदालत ने जमानत के लिए ऐसी शर्त रख दी है, जो एक विश्‍व रिकॉर्ड है. वह पांच हज़ार करोड़ रुपये नकद और पांच हज़ार करोड़ रुपये की संपत्ति के बांड पर जमानत देने को तैयार हुई. यह अब तक की दुनिया की सबसे बड़ी जमानती रकम है. लेकिन यहां भी एक शर्त है. अदालत ने उन्हें भारत में अपनी संपत्तियां बेचने से मना कर दिया और बैंक एकाउंट्स पर प्रतिबंध लगा दिया. मतलब यह कि आप संपत्तियां बेच नहीं सकते, बैंक से पैसे निकाल नहीं सकते. तो फिर इतनी बड़ी रकम कोई कहां से लाएगा?

अदालत कह रही है कि सुब्रत रॉय को जेल से बाहर निकलने के लिए सहारा को पैसा जमा करना होगा. पांच हज़ार करोड़ रुपये नकद और पांच हज़ार करोड़ रुपये की अचल संपत्ति का बांड दीजिए, तो आपको जमानत मिलेगी. क्या सुब्रत देश छोड़कर भाग रहे हैं? अदालत ने तो वैसे भी उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया है. अगर वह भाग भी जाते हैं, तो उनकी संपत्तियां तो भारत में ही हैं. सरकार और क़ानून उन्हें जब्त कर सकते हैं और निवेशकों का पैसा लौटाया जा सकता है. जेल भेजने की ज़रूरत क्या है?

इसके बाद सहारा के वकीलों ने 12 मार्च, 2014 को सुप्रीम कोर्ट में हिबियस कोर्पस रिट दायर की. उनके मुताबिक, न्यायाधीश राधा कृष्णन और न्यायाधीश केहर की बेंच ने सहारा श्री सुब्रत रॉय को ग़ैर कानूनी तरीके से जेल भेजा है. कहने का मतलब यह कि सहारा के मुकदमे की सुनवाई करने वाली बेंच से चूक हुई है. इन लोगों ने चीफ जस्टिस से गुहार लगाई थी, लेकिन यह केस न्यायाधीश के एस राधा कृष्णन और न्यायाधीश जे एस केहर की बेंच के समक्ष भेज दिया गया, जिनके ख़िलाफ़ यह रिट थी. मतलब यह कि इस केस की सुनवाई उन्हीं जजों द्वारा हुई, जिनके ख़िलाफ़ सहारा के वकीलों ने शिकायत की थी. सहारा के वकील यह गुहार लगाते रहे कि कम से कम इस केस की सुनवाई उन जजों द्वारा न हो, जिनके फैसले के ख़िलाफ़ यह याचिका है. अब समझ में नहीं आता कि यह कैसे संभव है कि जिन जजों के ख़िलाफ़ यह रिट पिटिशन दायर की गई, वही इस पर फैसला करें. सुब्रत रॉय को जेल भेजने के बाद 6 मई, 2014 को न्यायाधीश केहर ने खुद को इस केस से अलग करा लिया. ख़बर आई कि उन्होंने कहा कि सहारा के वकीलों का बहुत दबाव है, इसलिए वह इस केस से अलग होना चाहते हैं. तो क्या अब तक जो फैसला उन्होंने लिया, वह दबाव में लिया? न्यायाधीश के एस राधाकृष्णन 14 मई, 2014 को रिटायर हो गए. अब इस केस की सुनवाई जस्टिस ठाकुर एवं जस्टिस सीकरी की बेंच कर रही है. अब वही फैसला करेंगे कि इस मामले में सेबी कितना सही है, सुब्रत रॉय का अपराध क्या है और सहारा कंपनी समूह का भविष्य क्या है.
वैसे, एक बात समझ में नहीं आती है कि मुंबई की कोका कोला सोसाइटी के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट लोगों को बेघर करने का ़फैसला दे देता है. जिन लोगों ने ज़िंदगी भर की कमाई से अपने लिए एक घर खरीदा था, वे अब कहां जाएंगे? आदर्श घोटाला मामले में किसी को कुछ नहीं होता है, किसी से घर नहीं छीना जाता है, कोई बेघर नहीं होता है. क्या इसलिए कि कोका कोला सोसाइटी में किसी मुख्यमंत्री का फ्लैट नहीं है, किसी मंत्री के रिश्तेदार नहीं रहते या फिर जनरल दीपक कपूर जैसे थलसेना अध्यक्ष का उसमें फ्लैट नहीं है? सहारा समूह रेलवे के बाद देश में सबसे ज़्यादा नौकरियां मुहैया कराता है. इस कंपनी समूह से लाखों लोगों का गुजारा होता है. सहारा परिवार के मुखिया सुब्रत रॉय के जेल जाने के बाद ग़रीब और मध्यम वर्ग के लाखों परिवारों की ज़िंदगी अधर में लटक गई है. जब सुप्रीम कोर्ट सुब्रत रॉय से 10,000 करोड़ रुपये जमा करने को कहता है, तो उसका असर लाखों परिवारों पर होता है कि पता नहीं, हमारा क्या होगा. समूह से जुड़े लोग सोचते हैं कि वे जिस ऑफिस में काम करते हैं, कहीं वह बिक न जाए. अगर यह कंपनी समूह डूबता है, तो पता नहीं, इतने सारे लोग कहां जाएंगे.
यूनान में थ्रैसिमैकस नामक एक दार्शनिक ने न्याय को सबसे पहले परिभाषित किया था. उन्होंने माइट इज राइट यानी जिसकी लाठी उसकी भैंस को न्याय बताया था. आज न्याय की परिभाषा जिसकी कलम उसकी भैंस में बदल गई है. परिभाषा बदली, लेकिन उसका मर्म नहीं बदला है. सेबी के पास कलम की ताकत है, जिसे वह लाठी की तरह इस्तेमाल कर रहा है. वैसे भी, वर्तमान में न्याय स़िर्फ अदालत से मिल सकता है. वह जो फैसला करेगी, उसे तो मानना ही होगा.

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