स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, साहित्यकार, अध्यापक और सर्वश्रेष्ठ पत्रकार थे मुझे कलम पकड़ कर लिखना सिखाने वाले पंडित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी

आज फिर अविभाजित भारत के दिनों की याद आ रही है ।साथ ही याद आ रहा है मेरा डेनीज़ स्कूल जहां मैं तब छठी कक्षा में पढ़ता था। पहले पढ़ाई में अवरोध मार्च,1947 में हुआ। मई में गांधी जी के शांति के आश्वासन से स्कूल खुले ज़रूर लेकिन वहां का माहौल उस तरह से खुशगवार नहीं लगा जो मार्च के दंगों से पहला रहा करता था।काफी बड़ी तादाद में तालिबइल्म गैरहाजिर थे, खास तौर पर हिंदू और सिख । बच्चे थे फिर भी यह तो महसूस हो ही रहा था कि गांधी जी और खान अब्दुल खान गफ्फार के अमन के भरोसे के बावजूद हालात में तनाव है ।कुछ समय तक मैं तोपखाना बाज़ार के अपने घर से बस पकड़ कर स्कूल जाता रहा और मरीढ़ से मेरा फुफेरा भाई सुरजीत भी आता रहा। सुरजीत मुझसे एक साल बड़ा था और उसने बताया कि लालाजी(अपने पिताजी को वह लालाजी कह कर बुलाते थे) रात को झाई (माँ) को बता रहे थे कि अब यहां रहना खतरे से खाली नहीं है ।दुकान में आने वाले ग्राहकों की चालढाल और बोलचाल आम दिनों जैसी नहीं रही ।एक शख्स को तो यह कहते सुना कि इन ‘काफिरों’ को 1946 में ऐब्टाबाद से मुज़फ्फाराबाद की हमारी ‘कूच’ याद नहीं,नानी याद दिला देंगे। लगता है कि हमें अब रावलपिंडी का घरबार छोड़ ‘नये’ हिंदुस्तान की तरफ जाने की तैयारी करने के बारे में सोचना चाहिए ।बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा जी झाई के इस चिंतातुर सवाल के जवाब में लालाजी ने इतना भर कहा कि यह वहां जाकर देख लेंगे। मरीढ़ में मेरे फूफा का लंबा चौड़ा कारोबार था और वहां के चुनिंदा अमीरों में उनकी गिनती थी।

बहरहाल यहां रहना सुरक्षित नहीं है ।कुछ इसी तरह की बातचीत मैंने भी अपने माता पिता के मुंह से सुनी थी।मेरे पिता के मुस्लिम पार्टनर ने जब उन्हें यह सलाह दी कि तुम अपने इकलौते बेटे के बाल कटा दो और यहीं हमारे साथ रावलपिंडी में ही बने रहो तो वह सशंकित हो गये और उन्होंने वक़्त से पहले ही रावलपिंडी छोड़ने में परिवार की भलाई समझी।यहां भी आगे की पढ़ाई की बाबत जब मेरी माँ ने पूछा तो पिता का जवाब था कि टिनिच (बस्ती) चलकर देख लेंगे। वहां मेरे पिता की कुछ पहचान थी। पढ़ाई के बारे में दोनों माताओं को इसलिए फिक्र थी कि रावलपिंडी में उर्दू मीडियम में हम लोग पढ़ रहे थे जबकि ‘नये’ हिंदुस्तान में पढ़ाई का मीडियम हिंदी था। हम दोनों भाई हिंदी की वर्णमाला तक से परिचित नहीं थे।

मेरे माता पिता को मेरी पढ़ाई की हमेशा चिंता रहती थी।उन्हें बताया गया कि बिना हिंदी पढ़े मुझे कहीं भी दाखिला नहीं मिल सकता। इसलिए मुझे हिंदी सीखते सीखते अपनी पढ़ाई का एक साल गंवाना पड़ा ।इस बीच हमारे परिवार में एक के बाद कई हादसे हो गये। एक हलवाई की दुकान के पास से गुजरते हुए उसकी कड़ाही के खौलते हुए तेल से एक बूंद मेरी बाईं आंख में पड़ गयी जिसकी वजह से उस आंख की रोशनी वापस नहीं आयी ।बाद में मेरे पिता को किसी जहरीले बिच्छू के काट जाने से वह पूरे सात दिनों तक चारपाई पर पड़े रहे।बड़ी मुश्किल से उनकी जान बची ।ऐसे ही उनकी बड़ी बहन के बड़े बेटे सरबसिंह के निधन की खबर सुन कर कटक गये।रास्ते में उनकी जेब कट गयी । इन हादसों के चलते हम लोग टिनिच छोड़ रायपुर आ गये,मेरे मौसा ज्ञान चंद छाबड़ा की सलाह पर ।हम लोग ब्राह्मण पारा में रहते थे। यह 1949 की बात है ।

मेरे पिता ने मौसा के साथ मिलकर मेरी पढ़ाई को तरजीह दी।उस समय रायपुर में दो ही प्रमुख स्कूल थे सेंट पाल और लॉरी स्कूल जिसका नाम बदलकर माधवराव सप्रे स्कूल हो गया था। मुझे यहां दाखिला मिल गया छठी कक्षा में । यह विभाजन मेरी पढ़ाई की दो साल की बलि ले गया । खैर मन लगाकर पढ़ाई की।सभी विषय हिंदी में थे।शुरू शुरू में उन्हें समझने में दिक्कत हुई परंतु धीरे-धीरे सब समझ में आ गये।नवीं कक्षा में जाते जाते मैं अपने आप को हिंदी में पारंगत समझने लगा।यह मेरा भ्रम था,ऐसा कुछ था नहीं ।।यहां मेरे हिंदी के अध्यापक थे श्री स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी। प्रारंभ में उन्होंने मुझ से कई विषयों पर निबंध लिखवाए । उनके भाव उन्हें रुचे लेकिन उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम के अतिरिक्त भी तुम कुछ पढ़ा करो ।ऐसा करने से तुम्हारी भाषा में सुधार होगा और शैली में रवानी आयेगी।पहले उन्होंने मुझे प्रेमचंद साहित्य पढ़वाया, उसके बाद डॉ धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’पढ़ने को दिया, यशपाल का उपन्यास ‘झूठा सच’ और कहानी संग्रह ‘तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूं’ । बाद में अज्ञेय की ‘शेखर: एक जीवनी’ के दोनों भाग तथा ‘नदी के द्वीप’। अलावा इनके शरत चंद्र और बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की पुस्तकें भी पढ़ने को दीं ।जब उन्होंने देखा कि अब मेरी भाषा के बारे में समझ कुछ बेहतर हो गयी है तो उन्होंने एक विषय पर निबंध लिखने को कहा और साथ में यह ताकीद भी की कि यह स्कूल की कॉपी में नहीं बल्कि अलग से कागज़ पर लिखकर दो।अगले दिन वह निबंध जब मैंने उन्हें दिया तो उसे पढ़कर पहले वह मुस्कराये और फिर बोले,बहुत अच्छा,मैं इसे अपने पास रख लेता हूं । उन्होंने मुझ से इस प्रकार कई निबंध लिखवाए जो मैं लिखकर उन्हें दे दिया करता था।मैं इस बात से खुश था कि मेरे हिंदी के टीचर मुझे बहुत चाहते हैं और मेरे निबंध उन्हें खूब भाते हैं ।

एक दिन मेरे किसी सहपाठी ने बताया कि ‘दैनिक महकोशल’ में तुम्हारा एक लेख छ्पा है त्रिलोक सिंह ‘दीप’ के नाम से ।यह दीप कौन है यार? मैंने छोटा सा उत्तर दिया,’मिलवाऊंगा जल्द ही ‘। हमारे अध्यापक स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जब हिंदी का अपना पीरियड ले चुके तो उन्होंने मुझसे मिलने के लिए कहा ।जब मैं उनसे मिला तो उन्होंने ‘दैनिक महकोशल’ में छ्पा मेरा आलेख दिया और मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा ‘शाबास,अभी तुम्हारे और आलेख भी छपेंगे’। शाम को मेरे साथ ‘महकोशल’ के ऑफ़िस में चलना,तुम्हें कुछ लोगों से मिलवाऊँगा। उन्हें मैंने तुम्हारे बारे में बता रखा है ।’

शाम को ‘दैनिक महकोशल’के दफ्तर में सबसे पहले उन्होंने वैशम्पायन जी से मिलवाया जो उन दिनों समाचारपत्र के संपादक थे। त्रिवेदी जी ने उनका परिचय देते हुए कहा कि जिन अज्ञेय जी की ‘शेखर: एक जीवनी’ तुमने पढ़ी है वह और वैशम्पायन जी क्रांतिकारी थे,देश की स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहे थे। मेरे लिए यह नयी जानकारी थी। अब वैशम्पायन जी ने बताना शुरू किया कि अज्ञेय का असली नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन है ।तुमने सरदार भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद का नाम तो सुना ही होगा।हम लोग उनके साथी थे।भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु को फांसी हो गयी थी और चंद्रशेखर आज़ाद अंग्रेज़ों की पकड़ में नहीं आए थे।इससे पहले कि अंग्रेज़ उन तक पहुंचते उन्होंने अपने आप को गोली मार ली थी। बावजूद इसके क्रांतिकारी संगठन कायम रहा,हम लोग देश की स्वाधीनता के लिए क्रांति की मशाल थामे रहे।हम लोगों पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाये गये और कई तरह की कानूनी धाराओं के अंतर्गत जेल में डाला गया। मैं,वात्स्यायन,विद्याभूषण और बिमलप्रसाद जैन दिल्ली षडयंत्र केस में धरे गये।यशपाल और पंडित परमानंद भी हमारे साथी थे।वक़्त का कुछ पता नहीं, तुम्हरा कभी अगर दिल्ली जाना हुआ तो वात्स्यायनजी और बिमल प्रसाद जैन से मिलने का प्रयास करना । उन्हें बताना कि रायपुर में वैशम्पायन से मुलाकात हुई थी।बेशक दोनों से मेरी भेंट हुई और उन्हें वैशम्पायन जी से हुई मुलाकात का ब्योरा दे दिया ।उन्हें यह जानकर अच्छा लगा था।अज्ञेय जी के आशीर्वाद से ही मैं ‘दिनमान’ से जुड़ा ।उनका यह आशीर्वाद मुझे उन्होंने आजीवन दिया, ‘दिनमान’ छोड़ने के बाद भी।बिमल प्रसाद जैन से उनके घर दरियागंज के पास कई बार भेंट हुई थी।

और हां यह तुम्हारे जिन गुरु जी (स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी की तरफ इशारा करते हुए) ने तुम्हें कलम पकड़ना सिखाया है वह ही नहीं इनके पिता श्री गयाचरण त्रिवेदी भी स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे।तुम जानते हो स्वराज्य प्रसाद त्रिपाठी ने 1935 में पंद्रह साल की उम्र में ही साहित्य रचना और पत्रकारिता शुरू कर दी थी। मैंने उन्हें बताया कि मेरा तो जन्म ही 1935 में हुआ है ।वैशम्पयान जी बोले तभी तो आज वह इतने प्रसिद्ध हैं और व्यस्त भी। सच पूछा जाये तो ‘महकोशल’ के जन्मदाता ही त्रिवेदी जी हैं ।पहले इसे साप्ताहिक पत्र से शुरू किया गयाऔर इसकी लोकप्रियता देख पंडित रविशंकर शुक्ल ने इसे दैनिक समाचारपत्र कर त्रिवेदी जी की ज़िम्मेदारी बढ़ा दी थी।केवल पंडित रविशंकर शुक्ल ही नहीं, श्यामाचरण और विद्याचरण शुक्ल भी त्रिवेदी जी को बहुत मानते हैं । माधवराव सप्रे स्कूल के बाद वह ‘महकोशल’ में आ जाते हैं ।इस समय यही रायपुर का सबसे बड़ा अखबार है ।मैं 1952-53 की बात कर रहा हूं ।

स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी अपने आप में एक संस्था थे।यदि मुझे स्कूल के दिनों में इतने बहुमूल्य साहित्य का अध्ययन न करा मुझे कलम पकड़ना सिखाया होता तो मैं ताजिंदगी या तो क्लर्क रहता अथवा ज़्यादा से ज़्यादा अनुवादक के पद से अवकाश प्राप्त कर लेता।मेरे पत्रकार बनने की इबारत स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी ने लिखी थी जिसे मैं अपनी हर किताब में बड़ी शिद्दत के साथ दर्ज करता हूं ।ऐसी मेरी एक पुस्तक को पढ़कर मेरे बचपन के दोस्त और वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर ने इस बाबत डॉ सुशील त्रिवेदी से चर्चा की थी।उस समय तो उनसे फोन पर बातचीत हुई थी ।अब तो हम दोनों की रूबरू मुलाकातें हैं ।आखिर हम तीनों अर्थात स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, उनके पुत्र डॉ सुशील त्रिवेदी और यह बंदा हैं तो लॉरी यानी माधवराव सप्रे की ही पौध न। इस नाते सुशील जी मेरे गुरु भाई हुए ।

1 जुलाई,1920 को रायपुर में जन्मे स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी छत्तीसगढ़ के पत्रकार,साहित्यकार,स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिन्हें ये अद्वितीय गुण विरासत में प्राप्त हुए थे।उन्होंने राष्ट्र सेवा के लिए साहित्य रचना की तथा ‘आलोक’मासिक और साप्ताहिक ‘अग्रदूत’ से होते हुए मार्च 1946 में साप्ताहिक ‘महकोशल’ की नींव रखी। वह काफी समय तक मध्यप्रदेश सरकार के जनसंपर्क अधिकारी भी रहे। 1978 से 1983 तक वह पुन: ‘दैनिक महकोशल’ के संपादक रहे । स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर गुरु घासीदास विश्वविद्यालय,बिलासपुर तथा पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय,रायपुर में बहुत से शोधकार्य हुए हैं तथा कई लोगों ने पीएचडी भी की है स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी शिक्षक भी थे।वह माधवराव सप्रे स्कूल में 1946 से 1953 तक रहे। ‘दैनिक महकोशल’ से उनके भावनात्मक संबंध थे इसलिए शाम को वहां जाया करते थे।

पंडित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के बहुआयामी व्यक्तित्व के किस आयाम को लूं और किस को छोड़ू यह समझ में नहीं आता। 13 अप्रैल, 1952 को मेरे पिता का हृदयघात से निधन हो जाने के बाद मुझे हमारे स्कूल के हैडमास्टर कन्हैयालाल शर्मा, हिंदी के अध्यापक स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी और अंग्रज़ी के टीचर दुबे सर ने जो सहारा दिया था उसे न मैं कभी भूला हूं और न ताजिंदगी भूल सकता हूं । ये मानवता की जीती जागती मिसालें हैं । जब कभी रायपुर आता तो अपनी पत्रकार बिरादरी के रमेश नैयर,गिरीश पंकज,कुमार साहू,बसंत कुमार तिवारी से त्रिवेदी जी से इन महान गुणों की चर्चा अवश्य हुआ करती ।इसी प्रकार विद्याचरण शुक्ल उन्हें बड़ी शिद्दत से याद किया करते थे तथा पुरुषोत्तम कौशिक, केयूर भूषण तथा सत्यनारायण शर्मा भी ।इन राजनेताओं के लिए तो स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी ‘छत्तीसगढ़ की शान ‘ थे जिनकी जीवन के हर क्षेत्र में गहरी पैठ थी।

जब वैशम्पायन जी और स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी स्वतंत्रता संग्राम में अपने अपने योगदान के बारे में चर्चा कर रहे थे तो मार्च और अगस्त,1947 में मेरी आपबीती सुनकर वे अवाक रह गये लेकिन मेरे माता पिता द्वारा हम बच्चों की पढ़ाई की चिंता की तारीफ किये बिना अलग-अलग धाराओं में भारत की स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी नहीं रह सके । मेरे इस कलम पकड़ कर सिखाने वाले गुरु स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी का जहां 1 जुलाई को जन्मदिन है वहीं 11 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि भी है । मेरे लिए ये दोनों ही तिथियाँ महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय हैं।इस पुण्य आत्मा को जन्मदिन की बधाई और पुण्यतिथि पर सादर नमन ।

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