ind-usनरेन्द्र मोदी के हालिया अमेरिका दौरे ने दो महान लोकतांत्रिक देशों के बीच 70 साल से रिश्तों में चली आ रही कड़वाहट और गैर जरूरी विवादों को दूरकर पटरी पर ला दिया है. अमेरिका के नवोदय (अपस्टार्ट) के दौरान ब्रिटेन के संभ्रांत वर्ग में व्याप्त पूर्वग्रहों से जवाहरलाल नेहरू खुद को कभी निकाल नहीं पाए. प्रथम विश्व युद्ध से कुछ समय पहले जब वे एक छात्र थे, तब ब्रिटेन एक महान शक्ति था. उस दौर में अमेरिका ने धीरे-धीरे विकास की राह पर कदम बढ़ाना शुरू किया था. जब नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने, तब तक शीत युद्ध शुरू हो चुका था. अमेरिका की सोच थी कि एक लोकतांत्रिक देश की हैसियत से भारत स्वयं उसके खेमे में आ जाएगा. हालांकि युवा नेहरू का कमइन्टर्न के सम्राज्यवाद विरोधी विचारों से हमेशा एक जुड़ाव था, जिसपर अमेरीकियों ने कभी गौर नहीं किया. 1920 के दशक के आखिर में ब्रसेल्स कॉन्फ्रेन्स के दौरान कमइन्टर्न से नेहरू का जुड़ाव हुआ था. लिहाजा, भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई. इस नीति का झुकाव सोवियत संघ की ओर था. गुटनिरपेक्ष आंदोलन अमेरिका के प्रति हमेशा उदासीन रहा. दुर्भाग्यवश नेहरू-महालनोविस के दिनों की आर्थिक नीति ने देश के कृषि क्षेत्र की अनदेखी की, जिसके कारण भारत को अमेरिका से सहायता लेनी पड़ी. नेहरू को अमेरिका के पीएल 480 के तहत सहायता स्वरूप दिए जाने वाले गेहूं की जरूरत पड़ी. इसके बावजूद अहंकार ने साम्राज्यवादी अमेरिका को धन्यवाद देने से रोक दिया और भारत का सोवियत संघ द्वारा हंगरी के विद्रोह और पराग स्प्रींग को कुचले जाने का समर्थन जारी रहा.

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हालात तब और गंभीर हो गए, जब चीन के साथ सीमा युद्ध में भारत को शर्मिंदगी उठानी पड़ी. नेहरू और अन्य राजनेता लड़ाकू जहाज व सामरिक सहायता के लिए अमेरिकी दूतावास गए. वास्तव में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की मौत उसी दिन हो जानी चाहिए थी, क्योंकि भारत का कोई भी गुटनिरपेक्ष मित्र सहायता के लिए आगे नहीं आया. लेकिन ऐसी बातों को अक्सर भुला दिया जाता है. इंदिरा गांधी पीएल 480 सहायता लेती रहीं, लेकिन उनका अमेरिकी विरोध भी जारी रहा. भारत में वामपंथ के समर्थन से साम्राज्यवाद विरोधी आलोचना का दौर भी चलता रहा और समय के साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन अमेरिका विरोधी मोर्चे में बदल गया. अमेरिका के वियतनाम में खूनी खेल ने हालात और बदतर बना दिए, लेकिन इस दौरान भी आर्थिक सहायता जारी रही. नेहरू-गांधी परिवार का ब्रिटिश प्रेम जगजाहिर था, साथ में अमेरिका के लिए उनकी उपेक्षा की भावना भी जीवित रही. जब देश में हरित क्रांति का आगमन हुआ तो रॉकफेलर फाउंडेशन की भूमिका को महज़ नाम के लिए ही स्वीकार किया गया.

अमेरिका का अन्य देशों के प्रति साम्राज्यवादी व्यवहार का दौर जारी रहा. इसी दौरान सोवियत संघ का विघटन हो गया. अब शीत युद्ध अमेरिका के विजय के साथ समाप्त हो गया था. इसके बावजूद गुटनिरपेक्ष आंदोलन जारी रहा. ज़ाहिर है इसके पीछे एक दर्शन था. भाजपा/एनडीए की पहली गैर कांग्रेसी सरकार ने दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य बनाने का प्रयास किया. इसके बावजूद परमाणु परीक्षण और  एनपीटी पर हस्ताक्षर से इंकार ने भारत को अमेरिका से दूर कर दिया.

मनमोहन सिंह पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे जिन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के साथ व्यक्तिगत घनिष्ठता स्थापित की. मनमोहन सिंह को बाइबिल की गहरी जानकारी थी. उनकी आर्थिक और कई अन्य विशेषताओं से बुश खासे प्रभावित थे. बुश ने एनएसजी के प्रतिबन्ध से भारत को मुक्त कराने में मदद की. ऐसा करने के लिए मनमोहन सिंह को देश में वामपंथ के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपनी जगह पर डटे रहे. वामपंथ का यह फैसला आत्मघाती साबित हुआ. वामपंथ राहुल गांधी की मदद के बावजूद इस नुकसान से अभी तक बाहर नहीं निकल सका है.

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मोदी अब उस रिश्ते को और मज़बूती दे रहे हैं. इस दिशा में आगे बढ़ने से रोकने के लिए उनके पास ओक्सब्रीज का कोई पूर्वग्रह नहीं है. उन्हें स्वाभाविक रूप से अमेरिका से लगाव है. अमेरिका ने 1960 के दशक के मध्य में अपनी इमिग्रे्रशन नीति में बदलाव किया, जिसका फायदा बहुत सारे भारतीय परिवारों को मिला. अमेरिका में कई भारतीयों ने सुख-समृद्धि हासिल की. उनमें से बहुतों ने मोदी का तब साथ दिया जब वे कांग्रेस द्वारा तिरस्कृत किए जा रहे थे. अब दोनों देशों के बीच रिश्तों की ठोस बुनियाद स्थापित हो चुकी हैैं. अमेरिका में भारत के दो सबसे बड़े क्रांतिकारी नेताओं बीआर अम्बेडकर और जय प्रकाश नारायण ने शिक्षा हासिल की थी. हालांकि दोनों देशों के बीच अभी और सांस्कृतिक और राजनीतिक तालमेल की जरूरत है.

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