आज दशहरा है। कथाएं बताती हैं कि त्रेता युग में रावण का संहार करने के लिए राम को कितने पापड़ बेलने पड़े थे। नौ दिन देवी की आराधना करनी पड़ी। फिर भी बात न बनी तो अंत में विभीषण काम आया। तभी से रावण विद्वता और दुष्टता दोनों का प्रतीक बन गया। दोनों चीजें किसी व्यक्ति में समानांतर रूप से चलती हैं। यह तो इतिहास ही बताता है। भारत अनोखा देश है यहीं रावण की अवधारणा होती है तो राम स्वयं उतर आते हैं। कंस होते हैं तो कृष्ण को आना पड़ता है। और दोनों से दो महाकाव्यों की रचना होती है। ये महाकाव्य इसलिए महान नहीं हैं कि राम रावण, कृष्ण और कंस की बात है। ये महान इसलिए हैं कि इनमें जीवन की रचना है। सत्य और असत्य की, नैतिक और अनैतिक का विचार है। महाभारत तो भौतिक जीवन तक को हर रोज परिभाषित करता है। आज इस ‘द्वंद्वात्मक राजनीति’ के चक्रव्यूह में इसे हम रोजाना देख सकते हैं।

राजनीति का मौजूदा माहौल किसी महाभारत से कम नहीं। आज रावण का ब्रम्हास्त्र गोदी मीडिया के रूप में मौजूद है। शिखंडी तब भी थे, शिखंडी आज भी हैं। आज की दर रोज की राजनीति का ‘नैरैटिव’ गोदी मीडिया तय कर रहा है। सबसे बड़ा रंज है तो यह कि हमारे विद्वानों में दूरंदेशी का सरासर अभाव दिखता है। जो है वह किसी मृग मरीचिका से कम नहीं।यह मनोविज्ञान का खेल है। दुष्टात्मा हमेशा उस चीज को बढ़ावा देती है जिससे उसका साधन सधता हो। हमारा पहले दिन से यह आकलन रहा है कि गोदी मीडिया इनका अंत तक ब्रम्हास्त्र रहेगा। लिहाजा इसे ध्वस्त करना हमारी पहली कोशिश होनी चाहिए। रवीश कुमार ने हमेशा अपने प्राइम टाइम में गोदी मीडिया से अपने श्रोताओं को सचेत किया। लेकिन वह कितना प्रभावी रहा, यह शोध का विषय है। वरिष्ठ चिंतक और पत्रकार अभय दुबे ने आखिर स्वीकार किया कि गोदी मीडिया के इन चैनलों में जाने की अब बिल्कुल इच्छा नहीं होती। लेकिन बाकी लोगों की इच्छा बलवती रहती है।

इस सरकार ने अपने पक्ष में एक और बड़ा काम किया है जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जा पा रहा है। वह कि इसने ‘परसेप्शन’ की अवधारणा पर ही चोट मारी है। कोई भी चुनाव परसेप्शन पर लड़ा और जीता या हारा जाता है। यह सरकार नहीं चाहती कि किसी भी विरोधी पक्ष का कोई परसेप्शन जनता में रूढ़ हो सके। इसलिए घटनाएं दर घटनाएं और जब तक वह घटना स्थायी रूप ले कुछ नया पैंतरा जिसमें गोदी मीडिया के जरिए एक नया नैरेटिव सैट हो जाए। रणनीति यह है कि जब तक ऐसा चलता है तब तक चलाए रखने और विपक्ष को लगातार उलझाए रखने का खेल जारी रखा जाए। दूसरी तरफ नफरत की लहर निर्बाध तरह से चलती रहे। अल्पसंख्यकों के प्रति विदेशी होने का भाव बना रहे।

आकाशवाणी, दूरदर्शन, गोदी मीडिया और आईटी सेल के जरिए मोदी जी की नायकत्व की छवि बरकरार रखी जाए। यह सब हो रहा है। मोदी जाएंगे या रहेंगे। यह किसी भ्रम की भांति राजनीति और समाज के पूरे नक्षत्र पर आच्छादित है। और यह कोई नयी बात नहीं है। 2019 के चुनावों का माहौल याद कीजिए, उधर यूपी में राहुल और अखिलेश की जुगलबंदी याद कीजिए और इधर बिहार में तेजस्वी यादव का संघर्ष याद कीजिए। फिर परिणाम देखिए। इसलिए मोदी किसी भी स्थिति से बेफिक्र रहते हैं। वे जानते हैं कि निष्क्रिय विचारवानों से कुछ होने जाने वाला नहीं। मोदी का वोटर विचारवान प्राणी नहीं है। वो जो है गोदी मीडिया के भरोसे है। और गोदी मीडिया को हमारे ही लोग चलाए रखने में अपनी बहादुरी समझते हैं। ये ठसके हुए विद्वान हैं।

आप देखिए कि यह सरकार किसमें पारंगत है। वह पारंगत है कि समाज में कोई विचार स्थायी न हो। खासतौर से सरकार के खिलाफ। तो उनके हिसाब से तथाकथित विद्वानों और सोशल मीडिया को उलझाए रखने के लिए या तो प्रधानमंत्री की ओर से या गृहमंत्री की ओर से या संघ प्रमुख की ओर से या किसी मंत्री अथवा सांसद की ओर से कोई न कोई शगूफा छेड़ना जरूरी है। ताजा है राजनाथ सिंह का गांधी-सावरकर वाला शगूफा। राजनाथ सिंह के मुंह से यह निकला भी नहीं कि बहसें शुरू हो गयीं। मजेदार तो यह कि जिन दो विद्वानों को आशुतोष बुला रहे हैं उन्हीं दोनों को आरफा खानम बुला रही हैं। अजीब द्वंद्व में गूंथा जा रहा है समाज को। किसी को इस बात की फिक्र नहीं कि मोदी जीतेंगे तो कैसे जीतेंगे। हारेंगे, यह तो अपना मन मानता नहीं। मोदी ने कहा देश की जनता मुझे भगवान समझती है तो मान कर चलिए फिलहाल यही सत्य है। क्योंकि आपने मोदी के वोटरों में सेंध नहीं लगायी है। रावण की नाभि को पहचान पाने में हर कोई फिलहाल तो नाकामयाब ही दिख रहा है। लोकतंत्र की मोदी की राह अपने तरीके से है।

ऐसे में दोस्तो सोशल मीडिया और उसके प्रोग्राम खोटे सिक्के जैसे लगते हैं। क्या देखें क्या सुनें। एक अभय दुबे को लाउड इंडिया टीवी पर देखने और सुनने की चाह ही नहीं आदत सी हो गयी है। पर बीच बीच में संतोष भारतीय जी की मजबूरियां उनको रुखसत कर देती हैं। मजा इसलिए आता है कि वो करेंट मुद्दों और परिवेश को समझने में दिलचस्प रहता है। संतोष जी से आग्रह है कि इस रविवार को राजनाथ सिंह वाले शोशे पर तो बिल्कुल बात न करें। बहुत बोथरा हो चुका है। ‘द वायर’ में आरफा खानम शेरवानी के अलावा जैसे कुछ बचा ही नहीं। पुण्य प्रसून वाजपेयी की बातें दमदार होती हैं लेकिन भयानक तरीके से इतने प्रकार के ‘सच’, हिंदी की अनाप शनाप गलतियां। कब स्थिति परिस्थिति बन जाती है। कब खदान खादान हो जाता है। बहुत हैं क्या क्या बताएं। पर वो कहेंगे जनाब या महाराज आप मुद्दे पर जाइए इन चीजों पर क्यों अटकते हैं। ऐ

से ही दूसरा कहेगा आप मेरे नमस्कार की लंबी चिल्लाती तान पर क्यों अटकते हैं। उसके पीछे तो एक कहानी है। और मेरे हर वाक्य में ‘दरअसल’ ‘दरअसल’ पर क्यों अटकते हैं, मुद्दे पर जाइए। पता नहीं ओम थानवी साहब की इन चीजों पर क्या प्रतिक्रिया है, जो हमेशा हिंदी भाषा और उसकी वर्तनी पर गहराई से गौर करते और टोकते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी एक शब्द पर जड़ हो जाए तो समझ लीजिए वह कहीं न कहीं आत्मविश्वास खो रहा है। या किसी हीनता का शिकार है। आज की तारीख में सबसे बेहतर शो होता है संतोष भारतीय और अभय दुबे का। जिसके इंतजार में बहुत लोग रहते हैं। बहुत से लोगों को मुझे लिंक भेजना पड़ता है। भाषा सिंह अपने स्तर की मेहनत करती हैं। फील्ड में रहती हैं। कम से कम लफ्फाजी नहीं होती उनमें। बाकी आलोक जोशी और विजय त्रिवेदी सत्य हिंदी की बहस की जान होते हैं। जिनके तर्क सुनने पर मजबूर करते हैं।

आजकल राजा की जान तोते में नहीं होती, नाभि ढूंढी जाती है। क्या इन फालतू की बहसों और डिबेट्स से ढूंढ पाएंगे ? सवाल यही है। गोदी मीडिया नाभि है, ध्वस्त कर पाएंगे ? इसीलिए इस सत्य को आत्मसात कर लीजिए कि रावण मरा नहीं, रावण कभी मरते नहीं। हमें ही अपनी लड़ाई को रावण के स्तर तक ले जानी होगी। सारा खेल नाभि का है। आखिर धुरी तो वही होती है न।

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