कांग्रेस अभी इस सोच में जी रही है कि जो कुछ हुआ, वह सब कुछ एक खराब सपना था. एक दिन हम सब जागेंगे और सब कुछ पहले की तरह नॉर्मल हो जाएगा. सत्ता एक बार फिर उनके हाथ में आ जाएगी, जो उसके वास्तविक हक़दार हैं, जैसे न कोई उनसे ज़्यादा धर्मनिरपेक्ष है, काबिल है और न समर्पित. निश्‍चित रूप से दूसरी पार्टी ने कुछ चालाकी की होगी, षड्यंत्र किया होगा और लोगों को यह विश्‍वास दिलाया होगा कि आम जनता घोटालों, मुद्रास्फीति और धीमी विकास दर से परेशान है.  
left-front_02_660_103013103पहले भारत-इंग्लैंड टेस्ट के दौरान जब मैं भारत में था, तो एक नई सरकार के उच्चस्तरीय सदस्य ने मुझसे पूछा कि चुनाव के दौरान आपने किसका समर्थन किया था. राजनीतिक बारीकियों से वाकिफ होने के कारण मैंने उनसे कहा कि जीतने वाले पक्ष की तरफ़. दु:खद रूप से मुझे उनकी तरफ़ से बहुत खुशी मनाने जैसा कोई व्यवहार नहीं दिखाई दिया. अब एक पैटर्न स्पष्ट हो गया है, जो भारतीय राजनीति की परेशानियों की भी व्याख्या करता है. सीरीज जीतने के बाद इंग्लैंड की टीम वापस ट्रेनिंग कर रही है और न स़िर्फ वह एक दिवसीय क्रिकेट की तैयारी कर रही है, बल्कि आगामी टेस्ट सीरीज की तैयारी भी. जबकि इसके जवाब में भारतीय टीम में सभी लोग स़िर्फ यही सफाई देने में लगे हैं कि इसमें किसी की गलती नहीं है. जो भी हुआ, उसके लिए न तो किसी पर आरोप लगाए गए और न किसी को निकाला गया. रवि शास्त्री को टीम का डायरेक्टर बना दिया गया (उन्हें मेरी तरफ़ से गुडलक). यह भी घोषणा कर दी गई कि डंकन फ्लेचर की शक्तियां कम नहीं की जाएंगी और वे अपना काम पहले की तरह करते रहेंगे. और, सभी मासूम हैं, यह भी सिद्ध कर दिया गया.
कुछ क्षणों के लिए मैंने सोचा कि बीसीसीआई ने ए के एंटनी की उसी रिपोर्ट को कॉपी कर लिया है, जिसमें उन्होंने बताया था कि कांगे्रस चुनाव क्यों हारी. निश्‍चित रूप से रिपोर्ट सीक्रेट थी, लेकिन इससे एक निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता था कि चुनाव हारने में किसी की कोई गलती नहीं है, विशेष रूप से शीर्ष नेतृत्व में से तो किसी की नहीं. राहुल गांधी गौतम गंभीर की तरह ही प्रतिभाशाली हैं, चाहे वह जितने भी शून्य के स्कोर पर आउट हुए हों. सोनिया गांधी धोनी की तरह कभी कोई गलती करती ही नहीं हैं. अब जल्दी ही फिर कुछ चुनाव होने वाले हैं, लेकिन कांग्रेस इस बात के लिए निश्‍चित नहीं है कि उसकी चिंतन बैठक में क्या बात होगी. इस बैठक में एक बार फिर नेतृत्व को गलतियों से रहित बता दिया जाएगा.
कांग्रेस अभी इस सोच में जी रही है कि जो कुछ हुआ, वह सब कुछ एक खराब सपना था. एक दिन हम सब जागेंगे और सब कुछ पहले की तरह नॉर्मल हो जाएगा. सत्ता एक बार फिर उनके हाथ में आ जाएगी, जो उसके वास्तविक हक़दार हैं, जैसे न कोई उनसे ज़्यादा धर्मनिरपेक्ष है, काबिल है और न समर्पित. निश्‍चित रूप से दूसरी पार्टी ने कुछ चालाकी की होगी, षड्यंत्र किया होगा और लोगों को यह विश्‍वास दिलाया होगा कि आम जनता घोटालों, मुद्रास्फीति और धीमी विकास दर से परेशान है. जो वर्तमान समय में हो रहा है, वह सब माया है. वास्तविक सच अभी अदृश्य है, जिसके अनुसार कांग्रेस अभी भी सत्ता पर काबिज है. और, वहीं भाजपा अपने पूरे तंत्र को एक बार फिर से इस तरह संगठित करने में लगी है, जैसे वह अभी चुनाव हारी है. पार्टी के नए अध्यक्ष चुने गए हैं और उनके पास अपनी एक नई टीम है. भाजपा सांसदों से यह कहा गया है कि वे बेहतर तरीके से काम करें, अपनी रिपोर्ट पार्टी मुख्यालय को दें, अपने संसदीय क्षेत्र में जाएं और मतदाताओं की परेशानियां सुनें. यह तरीका बिल्कुल भारतीय नहीं है, लेकिन ब्रिटेन में सांसद इस काम को रूटीन के तौर पर करते हैं.
चुनाव के बाद अगर थोड़ा-बहुत परिवर्तन देखने को मिला है, तो वह जगह स़िर्फ बिहार है. लालू-नीतीश का साथ आना यह संकेत देता है कि पुरातन लोहियावादी शिविर राजनीतिक रूप से कांग्रेस से ज़्यादा जागृत है. लालू यादव की मुलायम-माया के साथ आने की अपील काल्पनिक मानकर खारिज नहीं कर देनी चाहिए. इसके पीछे तर्क 1977 की जनता पार्टी बनाने का है, जिसमें स़िर्फ जनसंघ या भाजपा न हो. लोहिया ने कांग्रेस विरोध को मुख्य एजेंडे के तौर पर रखा था. उनके लगभग पचास साल बाद कांग्रेस ऐसी अवस्था में आ गई है, जिसका विरोध किया जाना ही ज़रूरी नहीं रह गया है. अब भाजपा ज़्यादा ताकतवर है, इसलिए उसके विपक्ष के लिए गठबंधन बनाने की ज़रूरत है. अभी यह कहना कठिन है कि यह फॉर्मूला काम करेगा या नहीं, लेकिन इसे मिलने वाला रिस्पांस काफी कुछ कहेगा. और, कांग्रेस का चिंता पैदा कर देने वाला व्यवहार यह बताता है कि अगर भविष्य में कोई विपक्ष उभरने वाला है, तो वह जनता दल हो सकता है.
पुराने जनता दल से निकले जदयू, राजद, सपा, जनता दल सेकुलर एवं बीजद शायद वापस साथ आ जाएं और अपनी एक पार्टी बनाएं. ये क्षेत्रीय पार्टियां आपस में जातीय वोट बैंक आधारित राजनीति करती हैं. राष्ट्रीय स्तर पर इन्हें स़िर्फ भाजपा का भय है, जो साथ ला सकता है. और, शायद स़िर्फ इतनी-सी वजह से ही ये एक होकर राष्ट्रीय विपक्ष न बनाएं. इसके अलावा वामपंथ गायब हो गया है. आम आदमी पार्टी खुद को ही नुक़सान पहुंचाने वाली है. शायद भारत आज़ादी के बाद के दिनों की तरह एक पार्टी केंद्रित राजनीति की तरफ़ बढ़ रहा है, लेकिन इस बार सामने कांग्रेस नहीं, भाजपा है. क्या अच्छे दिन आ गए?

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