hqdefaultआम लिखो न खास लिखो,
फूस लिखो न घास लिखो,
और न कोई इतिहास लिखो,
सारा देश खा गए नेता, उनका सत्यानाश लिखो.

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बात जब छिड़ती आमों की, दशहरी याद आती है,
मिली ससुराल में थी, वह मसहरी याद आती है.

कवि सम्मेलन उत्तर प्रदेश के लखनऊ, कानपुर, उन्नाव, फैजाबाद, इलाहाबाद में हो या देश के किसी कोने में, मंच पर यदि श्रीनारायण अग्निहोत्री उ़र्फ सनकी मौजूद हों, तो हास्य के रसिक श्रोताओं की ओर से उक्त रचनाओं की मांग उठना लगभग तय माना जाता था. वह कविता पढ़ें, इससे पहले यानी उनके खड़े होते ही ठहाके बरबस गूंजने लगते थे. बीते चार अप्रैल को अवधी भाषा के प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य रचनाकार श्रीनारायण अग्निहोत्री उ़र्फ सनकी का 82 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. कानपुर के नर्वल गांव में आठ मार्च, 1933 को जन्मे सनकी ने शुरुआती शिक्षा हासिल करने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में परास्नातक किया. इसके बाद वह लखनऊ के चौक स्थित काली चरण इंटर कॉलेज में अध्यापक हो गए, जहां से 1993 में सेवानिवृत्त हुए.
सनकी न केवल आम जनता के कवि थे, बल्कि वह कवियों के बीच भी खासे लोकप्रिय थे. उनके सरल स्वभाव के सब कायल थे. हास्य कवि अशोक झंझटी के मुताबिक, कवि सम्मेलन जहां होता था, सनकी वहां का सूर्य नहीं देखते थे. कविता पढ़ने के बाद वह अपनी मंडली के साथ वहां से निकल लेते थे, चाहे साधन मिले या न मिले. उनके झोले में बिस्किट, किशमिश, काजू आदि हमेशा रहते थे, जो वह हम लोगों में बांटा करते थे. बकौल अशोक, सनकी देश के निर्विरोध कवि थे. हास्य कवि सर्वेश अस्थाना के शब्दों में, सनकी जी कवि सम्मेलन में जाने का पैसा नहीं मांगते थे. आयोजक जो कुछ दे देते थे, उसे वह खुशी के साथ रख लेते थे. सनकी कहते थे कि वह पैसा मांगकर कविता को छोटा नहीं करना चाहते.
हास्य कवि राजेंद्र पंडित कहते हैं कि रमई काका और वंशीधर शुक्ल के बाद अवधी हास्य व्यंग्य की पताका सनकी के हाथों में थी. पूरी गंभीरता के साथ हास्य लिखने वाले सनकी जिस मंच पर प्रस्तुति देते थे, वह उन्हीं के नाम से जाना जाता था. हास्य लेखन में उन्होंने नए-नए प्रयोग किए. पारंपरिक शैली के अलावा उन्होंने ग़ज़ल, लोकगीत और अतुकांत कविताओं में भी अद्भुत हास्य प्रस्तुत किया. जीवन के अंतिम समय में सनकी जी आर्थिक तंगी के शिकार रहे. पिछले काफी दिनों से वह अस्वस्थ थे. अपनी रचनाओं के ज़रिये पूरी ज़िंदगी जन-सामान्य को गुदगुदाने वाले सनकी जी ने क़रीब दस वर्ष पूर्व लखनऊ स्थित केजीएमयू को अपना शरीर दान कर दिया था. उनकी कुल तीन पुस्तकें प्रकाशित हुईं-सनक, आओ बच्चों, ठिठोली. बकौल वरिष्ठ कवि सूर्य कुमार पांडेय, रमई काका ने अवधी में जो हास्य लिखा, वह अतुलनीय है. लेकिन, उनके बाद जिनका नाम लिया जा सकता है, वह थे सनकी. दुर्भाग्य की बात यह है कि इतने बड़े जनकवि को जो पहचान मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली.


ससुराल की होली
शादी के बाद परी होली,
ससुरारी से पाती आई.
पहिली होली ससुरारी की,
लिखि भेजेन सब भौजाई.

होली जब निकचॉय लागि,
ब़िढया कपड़ा हम बनुवावा.
होली मा अईबे ज़रूर,
ससुरारि ़खबर या पहुंचावा.

सैकरन रूपैया खर्च कीन,
बनुवावा केतनिव शर्ट-पैंट.
दाढ़ी का करिकै सफाचट्ट,
बारन मा खुशबूदार सैंट.

जब ससुरारी पहुंचेन भाई,
सब दऊरि परीं सरहज-सारी.
जीजा-जीजा कहि टूटि परीं,
बरसावैं लागीं पिचकारी.

बारन मा माटी भरि दीन्हेन,
मुंह मा दीन्हेन कालिख लगाय.
सब दुर्गति हमरी कइ डारेन,
लखुवा बानर दीन्हेन बनाय.

भै कपड़न कै छीछालेदर,
घर फूंकि तमासा कई डारा.
बुरा न मानौ होरी है,
समुझावै लाग बड़ा सारा.

केतनेव नाखून लगे मुंह मा,
साली की हंसी-ठिठोली से.
अब कबौं न अईबे ससुरारी,
भरि पावा अईसी होली से.

हम तो धोखा अब खाय गयेन,
मुलु तुम भाई हुशियार रहेव.
हमरी अस दुर्गति होइ जईहै,
जो फागुन मा ससुरारि गयेव.

-श्रीनारायण अग्निहोत्री (सनकी)

 

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