परिचय
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नाम : सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
जन्म : 21 नवम्बर,1954 को आगरा में।
शिक्षा : क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर से वर्ष 1975 में अंग्रेज़ी में एम.ए.।
सेवायोजन : नवम्बर, 2014 में आई. ए. एस. अधिकारी के रूप में उ. प्र. शासन के गृह सचिव के पद से सेवानिवृत्त। पुनर्नियोजन के फलस्वरूप तत्पश्चात् भी फ़रवरी, 2017 तक सचिव के पद पर कार्यरत। मार्च, 2017 से 20 नवम्बर, 2019 तक उ. प्र. राज्य लोक सेवा अधिकरण में सदस्य (प्रशासकीय) के पद पर कार्य किया।
रचनाकर्म : वर्ष 1987 में कविता-संग्रह ‘शब्दों के शीशम पर’ प्रकाशित। दूसरा कविता-संग्रह ‘कितनी दूर और चलने पर’ वर्ष 2016 में प्रकाशित। पिछले चार दशकों में लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। छह दिसम्बर,1992 पर केंद्रित ‘परिवेश’ के चर्चित विशेषांक का अतिथि संपादन। दो कविता-संग्रह प्रकाशनार्थ तैयार हैं !

पहली कविता
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पैर की पाँचवीं उँगली
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मोज़े में
दुबकी-दुबकी रहती है
पैर की पाँचवीं उँगली

रहती है
जूते में
सहमी-सहमी
नीचे की ओर
सबसे ज़्यादा झुकी-झुकी

चाहकर भी
कुरेद नहीं पाती
अँगूठे के बराबर मिट्टी

दूसरी उँगलियों के मुक़ाबले
उस पर
सबसे कम भरोसा करता है पाँव
और हर चहलक़दमी के दौरान
उसे सबसे पीछे रखता है

सबसे कमज़ोर
सबसे छोटा नाखून
उसी का होता है

सबसे पहले
उसी को काटता है
जूता

बाहर आने की कोशिश में
सबसे पहले
वही उधेड़ती है जूते की सीवन

दूसरी कविता
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एक टेढ़े खम्भे को देखकर
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किसने किया है तुम्हारी रीढ़ के बीचोबीच प्रहार
किसने दी है तुम्हें यह अपाहिजी

क्या कभी कोई चिड़िया
बैठी थी तुम पर भारी मन से
या किसी आँधी में गिरते पेड़ ने
टिकना चाहा था कुछ देर तुम्हारे ऊपर
या अपने घर लौट रहा कोई प्रेमी
एकाएक खो बैठा था स्टेयरिंग पर नियंत्रण
या लोगों की नज़र बचाकर तुम झुके थे एकबारगी
ज़मीन पर गिरी कोई चीज़ उठाने के लिए
और सीधे नहीं हो पाये थे
नसों के खिंचाव के कारण

कहीं क्लान्त तो नहीं हो चुके हो तुम
इस तरह खड़े-खड़े
जैसे हम भी थक चुके हैं अपनी कोणहीनता से
और रह जाते हैं अक्सर मुँह के बल गिरते-गिरते

ऐसा तो नहीं
लोगों के पेचोख़म के चक्कर में आकर
तुम ही सोच बैठे थे अचानक लहरदार होने की

तुम कोई धनुष तो नहीं हो प्रत्यंचाविहीन
तुम छाया तो नहीं हो अर्धचंद्र की
कहीं इस कुब्जा दुनिया के सम्मान में तो
नहीं झुके हो तुम

सुनो वक्रता कोई मुद्दा नहीं है इस शहर के लिए
और भले ही यह चौराहा असुन्दर माने तुम्हें
मुझे तुम ऊँट की खड़ी पीठ जैसे नज़र आते हो
पहले एक-दो पाखी ही बैठ पाते थे
तुम्हारे शीर्ष पर
तुम्हारे नम्र और उदार होने से अब
ज़्यादा जगह निकल आयी है उनके किलोल के लिए

तीसरी कविता
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एक दिन
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क्या पता था
बचपन में बार-बार चूमे गये हमारे माथे
एक दिन सिलवटों से परेशान हो जायेंगे

परेशान हो जायेंगे
दुखती कनपटियों से
दिमाग़ को तड़काने वाली मथापच्चियों से
पसीने की वक़्त बेवक़्त चुहचुहाने कीआदत से

दिन-रात चिन्ताओं में खपेंगे
बार-बार ठनकेंगे
बार-बार धुने और पीटे जायेंगे

क्या मालूम था
आशीर्वचनों से दीप्त हमारे मस्तक
एक दिन ढोयेंगे
दुर्भाग्य की लकीरें
सीधी पड़ती धूपों का दाह
रोज़-रोज़ होने वाली दर्दनाक कपालक्रियाएँ

क्या ख़बर थी
द्वादशी की चाँदनियों से होड़ लेते हमारे ललाट
एक दिन तरस जायेंगे
गर्म हथेलियों के लिए
तितली की तरह इधर-उधर उड़ती लटों के लिए
दुश्चिंताओं के बीच दिपदिप किसी अपूर्व विश्वास के लिए

नहीं सोचा था हमने कभी
एक दिन हमारे सारे दिठौने
अचानक धुल जायेंगे
वक़्त की तेज़ बारिश में

चौथी कविता
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रस्सियाँ
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रस्सियों को अफ़सोस है
वे इस सावन में
पेड़ों तक नहीं पहुँच पायीं

नहीं पहुँच पायीं हवाओं तक
नहीं पहुँच पायीं मल्हारों तक
नहीं पहुँच पायीं चिड़ियों के विस्मय तक

क़ैद रहीं
बड़ी-बड़ी इमारतों में ही

छत की कड़ियों पर ही
टँगी रहीं
लोहे के पाइपों पर ही
लटकती रहीं

नहीं देख पायीं इस बार
बारिश में भीगते हुए बाग़
पत्तों से टपकती हुई बूँदें
बादलों का अटूट बादलपन

नहीं भीग पायीं ख़ुद भी
महीन झींसियों में

रस्सियों को अफ़सोस है
वे इस बार
सावन को नहीं कर कर पायीं कृतार्थ
लड़कियों में नहीं बाँट पायीं खिलखिलाहटें
आसमान को खोलकर नहीं दिखा पायीं
अपनी एक-एक पींग

पाँचवीं कविता
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बड़ी होती लड़की
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लड़की साइकिल चलाना सीख रही है
गिरती है तो रोती नहीं है
कपड़े झाड़कर तुरन्त उठ खड़ी होती है
और इधर उधर देखती है
कि किसी ने देखा तो नहीं
उसके छिले घुटने देखकर
मम्मी डाँटती हैं
पापा प्यार करते हैं

लड़की कपड़े धोना सीख रही है
बबलू के यूनीफ़ॉर्म में प्यार से साबुन लगाती है
मम्मी के छोटे कपड़े धीरे से मलती है
मौक़ा मिलने पर झाग से खेलती है
पानी में भीगने से उसे छींकें आने लगती हैं
मम्मी डाँटती हैं
पापा प्यार करते हैं

लड़की किचेन का काम सीख रही है
मेहमानों के आने पर चाय का पानी चढ़ाती है
बारिश होने पर पकौड़ी के लिए बेसन घोलती है
फ़िल्मी गाने सुनती हुई चावल बीनती है
बरतन धोते समय प्याला टूट जाता है
मम्मी डाँटती हैं
पापा प्यार करते हैं

लड़की घरेलू कामों में दिलचस्पी लेने लगी है
बबलू के सीने पर विक्स मलती है
कंघी से मम्मी के बाल सुलझाती है
पापा के बालों को कलर करती है
टूटे बटनों को देखकर सुई में धागा डालने लगती है
अख़बार और पत्रिकाएँ व्यवस्थित करती है
डिनर के समय डाइनिंग टेबिल सजाती है
प्याज काटते समय हँसते-हँसते रोती है
अचानक चाक़ू से उसकी उँगली कट जाती है
मम्मी डाँटती हैं
पापा प्यार करते हैं

लड़की बड़ी हो रही है
अब उसने कॉमिक्स पढ़ना छोड़ दिया है
टीवी कार्टून्स भी उसे बोर करते हैं
अकसर शीशे के सामने मुस्कराती है
मम्मी उसे स्कर्ट पहनने से मना करने लगी हैं
पापा सबके सामने उसे प्यार करते हैं तो वह झिझकती है
शाम को छत पर जाकर बड़े लड़कों को पतंग उड़ाते देखती है
सहेलियों से मोबाइल पर देर तक दबी आवाज़ में बात करती है
मम्मी समझाती हैं
पापा मुस्कराते हैं

लड़की रात में अचानक जग जाती है
नीचे गिरे कम्बल को उठाकर बबलू को उढ़ाती है
बाथरूम जाते समय उसे डर नहीं लगता
पड़ोस के कमरे से उसे अस्फुट ध्वनियाँ सुनाई देती हैं
मुँह पर तकिया रखकर देर तक वह कुछ सोचती है
फिर निश्चिन्त होकर सो जाती है

अतिरिक्त कविता
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(अनुमति की प्रत्याशा में)

गीत
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आये बहेलिये
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आये झुण्डों में बहेलिये,
कहाँ परिन्दों का कुल जाये?

किस कोटर में छिपे कपोती,
जाकर कहाँ चकोर विलापे?
क्या विदेह हो जाये सुगना,
कहाँ सिमटकर चकवी काँपे?

बया सिहरकर किस प्रपात में
पलक झपकते ही घुल जाये?

तीतर की झिलमिल आँखों को
दिखे निशानेबाज़ हर कहीं।
सहमी-सहमी हर बटेर है,
कहाँ बत्तख़ें शोख़ अब रहीं!

ज्यों ही तने गुलेल, तुरत ही
मैना का डैना खुल जाये।

मासूमों की बेफ़िक्री के
दिन अब गिने-चुने लगते हैं।
रात हुई, सो गयीं मुँडेरें,
पर घर के तोते जगते हैं।

कुछ ऐसे हों बोल पिकी के,
सारी वीरानी धुल जाये।

सुनो टिटिहरी! दूर नहीं हैं
आसमान गिरने के दिन अब।
जग क्या समझेगा पंखों में
चोंच छिपाकर सोने का ढब?

किस कनेर पर श्यामा चहके,
किधर चुलबुली बुलबुल जाये ?

सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी

टिप्पणियां

 

ब्रज श्रीवास्तव

🟣

एक वास्तविक कवि साधारण सी चीजों, दृश्यों, और घटनाओं से संवेदित होता है।जब प्रयोगवाद आया था तो इस दृष्टि को रेखांकित किया गया, इस काव्य निर्वाह को समकालीन और नूतन माना गया, इसी परंपरा की कविताओं की याद आई जब हमने आगे की कविता आज यहां पढ़ी।प्रतीकों का यथेष्ठ प्रयोग, विषय वस्तु के साथ गतिशील निर्वहन और संप्रेषण का तार सदैव पकड़े रखना हम सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी जी के शिल्प से सीख सकते हैं।जो कमियाँ प्रचलित समकालीन कविता में अक्सर देखी जाकर उन्हें लांछित किया जाता है, वे यहां मिल ही नहीं सकतीं।एक सुगठित कवित्त के दर्शन करना हो और कविता का सत पाना हो तो ये कविताएं उदाहरण हो सकती हैं।

मुझे नये नये शब्द, गहन और उच्च कल्पना से युक्त विचार यहां मिले।रस्सी की तरफ से,पाद कनिष्ठा की ओर से,बड़ी होती लड़की की सोच के साथ कोई अगर कविता में आपसे दो बातें करे तो यह निश्चित ही भावनाओं की दुनिया का एक अच्छा व्यवहार कहा जा सकता है।इस सबके साथ यदि विनयशीलता भी जुड़ी हो तो क्या कहना।यह तो विद्या ददाति से ही आयी है।एक सुपात्र और बड़े व्यक्तित्व की कविता हमें आश्वस्त करती है कि सच में वह कविता और बड़ी होती है जिसके कवि अध्ययन प्रिय,विनीत,सहिष्णु और भाषा और कविता के दीवाने होते हैं।आज के कवि ऐसे ही हैं।यह अतिशय कथन नहीं है, एक अनुभव जन्य टिप्पणी है।सादर।

ब्रज श्रीवास्तव

मधु सक्सेना

सत्येंद्र रघुवंशी जी की कविताएं छोटी छोटी माने जाने वाली चीजों के संदर्भ में बड़ी बात कह जाती है ।छोटी अंगुली की ताकत को बताना एक रहस्यवाद की तरह है । गहरे अर्थ में इसके अर्थ छुपे है ।

एक टेढ़े खम्बे को देखकर इतने सारे भाव और विकल्प बिखेर दिए कि पाठक अचंभित हो जाये । खम्बा मात्र खम्बा नही… प्रतीक के कई अर्थ समेटे है ।

द्वादशी की चाँदनियों से होड़ लेते हमारे ललाट
गज़ब कविता ।जीवन के परिवर्तन को महसूसती , आशा ,निराशा को तलाशती
विगत को टटोलती अच्छी कविता …

रस्सियों के माध्यम से एक पूरे जीवन को लिख दिया । व्यवस्था ,परिस्थिति आदि ने मिलकर बहुत से आनन्द के पल छीन लिए ।
बड़ी होती लड़की … सामान्य घरेलू लड़की की कहानी कहती है ।जिम्मेदारी समझ कर खुद ही सब काम करने लग जाती है लड़कियां ।
तभी कहा गया है स्त्री पैदा नही होती बनाई जाती है ।

गीत अपने आप मे बहतरीन ।

सत्येंद्र जी की कविताएं खुद में शब्दों के अर्थ के अलावा भी बहुत कुछ समेटे है ।बीच की खाली जगह में भी जो है वही महत्वपूर्ण है ।
बेहतरीन कविताये
बधाई कवि को ।

खुदेज़ा खान
🔲

🙏🏻🌻

आदरणीय सत्येंद्र कुमार रघुवंशी जी की प्रथम 4 कविताएं विशेष प्रभावशाली हैं।इनका अनूठापन और कथ्य के तेवर ध्यान आकर्षित करते हैं। किस तरह से उपेक्षित वर्ग या कमज़ोर को ‘पैर की पांचवी उंगली’ के द्वारा उद्घाटित किया है ,बहुत अनोखा है। कमज़ोर वर्ग यूं तो कुछ नहीं करता लेकिन आक्रोश यहीं से फूटता है क्रांतियां यहीं से उपजती हैं।

खंबे की तरह तना हुआ आदमी अहंकार प्रदर्शित करता सा लगता है,
अकड़ में आत्मीयता नहीं होती जबकि झुकना विनम्रता का प्रतीक है। फल लगी हुई डालियां झुकी हुई होती हैं। खंबा सीधा था तो एक दो पक्षी ही बैठ पाते थे लेकिन जब से थोड़ा नम्र हुआ ज़्यादा जगह निकल आई है किलोल करने के लिए। बहुत सुंदर और कल्पना शक्ति का बहुत अच्छा प्रयोग।

तीसरी कविता में बचपन को बहुत शिद्दत से याद किया गया है ।बड़े होकर ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए बालपन का लाड़- दुलार, साज- संभाल सब कहीं खो जाता है, विलोपित हो जाता है उम्र की दहलीज पर केवल दुनियादारी और ज़िम्मेदारी ही बची रह जाती है।

महामारी और कोरोना काल पर बहुत कुछ और बहुत सारा लिखा गया लेकिन रस्सियों के माध्यम से जिस नवीनता के साथ सावन के झूलों और उसके पींगों की बात की गई है बड़ी ही निराली है। उस समय का अवसाद और विवशता भी चिन्हित हुई है यहां।

बहुत बधाई🙏🏻💐

आभार: साकीबा🙏🏻🌺

-ख़ुदेजा

बबीता गुप्ता

अपनी उपेक्षा करने वालों को अपना महत्व समझाती छोटी हैं सही पर हैं करामाती…
बाहर आने की कोशिश में
सबसे पहले
वही उधेड़ती हैं जूते की सीवन
बिम्वात्मक शैली में रचित ..सुन्दर पंक्तियाँ
कही इस कुब्जा दुनिया के सम्मान में तो
नहीं झुके हो तुम
परंपरागत मर्यादाओं में कैद लड़कियों की व्यथा..
नहीं भीग पायी खुद भी
महीन झींसियो में
व्यथित युवावस्था का संघर्ष…
एक दिन ढोयेंगे
दुर्भाग्य की लकीरें
बड़ी होती लड़कियां..कितनी सरलता से शब्दों में गूंथ दिया गृह कार्य में दक्ष होती बेटियों को।
बहेलियो को प्रतीक बनाकर मानसिक विकृतियों से होते दुराचार दुष्प्रवृति से कितनी असुरक्षित हैं बेटियां…
किस कनेर पर श्यामा चहके
किधर चुलबुली बुलबुल जाये?
बेहतरीन कवितायें पढ़वाने के लिए आभार साकीबा मंच।
बहुत-बहुत बधाई, सत्येन्द्र सर।

गीता चौबे गूँज.

समृद्ध परिचय के धनी आ सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी जी की कविताओं पर नजर पड़ी। कुछ ऐसा आकर्षण है जिसने ऐसा बाँधा कि पूरा पढ़े बिना न रह सकी। हालाँकि हम औरतों के लिए यह समय अति व्यस्ततम होता है। फिर भी कुछ पल चुरा ही लिए…
अब कुछ कविताओं के बारे में —
पैर की पाँचवीं उँगली – इस उपेक्षित ऊँगली पर कलम चलाकर यह तो सिद्ध कर ही दिया कि जहाँ सबसे ज्यादा दबाव होता है, विनाश वहीं से शुरू होता है।
दूसरी कविता में अद्भुत बिंब प्रस्तुत किया है टेढ़े खम्भे के रूप में।
एक दिन सारे दिठौने धुल जाएँगे वक्त की तेज बारिश में! गज़ब की पंक्ति!
रस्सियों ने तो जैसे हमारी दुखती रग पर हाथ ही धर दी है।
बड़ी होती लड़की – यथार्थवादी कविता!
आए बहेलिये- सामाजिक विकृति को दर्शाता हुआ कवि मन की चिंता को अभिव्यक्ति देता हुआ एक सार्थक गीत! इतनी सुंदर रचनाओं के लिए बहुत-बहुत बधाई!
त्वरित प्रतिक्रिया मात्र!
— गीता चौबे गूँज

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