होशंगाबाद में भवानी प्रसाद मिश्र पर केंद्रित एक कार्यक्रम हुआ था,।मैंने पहली बार वहीं नामवर जी को देखा था,जो मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ हेलीकाप्टर से उस कार्यक्रम में आए थे। हिन्दी साहित्य की आलोचना विधा के एक प्रसिद्ध व्यक्ति का ऐसा जलवा पहली बार देखा था।यह समारोह भवानी भाई पर कदाचित श्रेष्ठतम कार्यक्रम था और इसके सूत्रधार और संयोजक थे कवि आलोचक विजय बहादुर सिंह।विजय बहादुर सिंह ही हैं जिन्होंने नागार्जुन,भवानी प्रसाद मिश्र और दुष्यंत कुमार पर एक तरह से समग्र रचनात्मक काम किया है।उनकी इन जनकवियों के प्रति आलोचनात्मक श्रद्धा कहीं न कहीं दिखाई दी जाती है।

उस समारोह से लौटते समय हम लोग यानि आलोक श्रीवास्तव,रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति सुरेश गर्ग भी ट्रेन में थे,उसी कोच में राजेन्द्र शर्मा,कमला प्रसाद जी और विनय दुबे भी बैठे थे और मोद विनोद करते हुए बात चीत कर रहे

थे।विनय दुबे ने बातों बातों में कहा कि विजय बहादुर सिंह का नाम विदिशा सिंह हो जाना चाहिए,इस विनोद संवाद में विजय जी के लिए प्यार भी था और व्यंग्य भी,व्यंग्य यह कि विजय बहादुर जी विदिशा में साहित्यिक गतिविधियों के आवृत और श्रेष्ठतम आयोजनों के लिए इतने मशहूर हैं कि विदिशा की रियासत अब उनके नाम है, सियासत उनके नाम है।मैं इस विनोद पर हंस भी रहा था और सकुच भी रहा था,सकुच इसलिए रहा था,कि यह क्या बात हुई।अभी अभी ही हम लोग होशंगाबाद से आ रहे हैं, उन्होंने यह आयोजन विदिशा से बाहर ही किया ना।फिर क्यों ऐसी मजाक।खैर मुझे उनकी यह बात याद रह गयी।और हां विदिशा में रहते हुए इतने दिनों में मैं भी पूरे होशो हवास में यह कह सकता हूं कि विजय बहादुर जी विदिशा सिंह तो हैं ही,कि उन्होंने विदिशा में मुख्य धारा के साहित्य की पौध रोपी ही नहीं उसे सींचकर बड़ा भी किया,इस अहद के साथ कि जहां भी जाएगा,रोशनी फैलाएगा किसी चराग़ का अपना मकां नहीं होता।

समूचे भारत के हिन्दी लोक में अपने अनूठे वकृत्व के लिए प्रसिद्ध कवि आलोचक विजय बहादुर सिंह मेरे लिए एक ऐसी संगत का व्यक्तित्व हैं जिसे मैं लगभग दूर से देखता रहा और चाहता रहा कि सान्निध्य पाऊं।अपने मितभाषी, संकोची और अंतर्मुखी स्वभाव की वजह से मैं कैसे इतने स्फूर्त चेतन और वाणी प्रखर व्यक्ति के सामने टिक पाता,जब भी उन्हें कहीं देखता,वह लोगों से उनके सामीप्य चाहने के भाव से घिरे हुए दिखाई देते।मेरा क्रम आ ही नहीं पाता।याद करूं तो देखता हूं कि उनका प्रथम दर्शन जैन कालेज के परिसर में किया होगा,जब मैं गणित से एम एस सी की पढ़ाई कर रहा था और गणित , भौतिकी के प्रोफेसर्स को ज्यादा जानता था।तब साहित्य मेरे भीतर बस इतना था कि मुझे साहित्य से ,कविता,कला, से जुड़ी चीज़ें आकर्षित करतीं थीं,जैसे सुंदर लड़कियां और उनकी हंसी आकर्षित करती थी,लगभग वैसे ही। करता भी क्या गणित पढ़ने का इतना दबाव रहता था कि लौट लौटकर अपनी अध्ययन की दिनचर्या में आना पड़ता था। किसी सहपाठी ने बताया कि देख वो हैं विजय बहादुर सिंह, हिन्दी के एच .ओ .डी। मुझे एक युवा धोती धारी काले केशों वाला कृशकाय तेजस व्यक्ति की छवि अभी तक याद है।फिर एक सूचना पर कालेज की पत्रिका सर्जना के लिए मैंने एक दो छांदस कविताएं जमा कीं।अगले साल पत्रिका आई और मैंने देखा कि उसमें मेरी दोनों कविताओं को लिया गया था।ज़ाहिर है एक अपरिचित संपादक के प्रति मैं कृतज्ञ हुआ जो विजय बहादुर सिंह ही थे।यह १९८८ की बात है।

उन दिनों मुझमें दिन रात इन दिनों जैसी साहित्य को पढने और लिखने के लिए.लगन नहीं थी,उन दिनों तो नौकरी तलाशने के लिए ज़रूरी सामान्य ज्ञान की पुस्तकें हीं जैसे रामायण और गीता की पुस्तकें थीं।इस संघर्ष के फलस्वरूप विदिशा अंचल में ही सरकारी नौकरी पाने के लिए मैं १९९३ में फिर से आया तो यहां की कवि गोष्ठियों में आने जाने के सिलसिले में एक दिन फिर विजय बहादुर सिंह मिले, उनकी बहादुरियों,और विजयों के किस्से सुनते सुनते विदिशा के और बाहर के साहित्य के परिदृश्य से जुड़ता चला गया।अभी भी उनसे निजी परिचय नहीं हुआ था।इस बीच मुझे अनायास ही कवि नरेंद्र जैन और शलभ श्रीराम सिंह मिले और उनकी नजदीकियां मिलीं।नरेन्द्र जैन के कहने पर विदिशा में.ही नागार्जुन स्मृति कार्यक्रम में मुझे कविता पढ़ने का मौका मिला। वह एक भव्य साहित्यिक जलसा था।

कार्यक्रमों में मेरे आने जाने से मुझे यह भरोसा तो हो गया वह मुझे पहचानते हैं मगर यह भी भान था कि वह विदिशा के अन्य शौकिया और गोष्ठी जीवी कवियों की तरह जैसा ही मुझे भी शौकिया या तुकबंद कवि ही मानते हैं।

लेकिन ऐसा नहीं था,मैं अलग था, मुझे कभी भी वीर रस और हास्य रस की कविता ने आशीर्वाद नहीं दिया था। मेरी गिरा पर ये कलाएं कभी सोही ही नहीं।जतन करने पर भी नहीं।शलभ श्रीराम सिंह ने दीक्षा देते समय यही कहा था कि “वत्स तुम्हारे मानस का निर्माण कविता के लिए हुआ है, गीत, ग़ज़ल,क्षणिका,दोहा,मुक्तक त्यागो, तालीयाचक मंचवीर होना तुम्हारे भाग्य में नहीं।”

यह बात विजय बहादुर सिंह जी तक देर से पहुंची, पर उन्होंने अपने चित्त पर मुझे इतना उल्लेखनीय नहीं माना।जो कविता की परंपरा का अध्येता हो, साहित्य की कीमत पर जीवन की कीमत दे रहा हो,आते जाते खद्योत कवियों को देख रहा हो,वह कैसे किसी नौसिखिए को वास्तविक कवि बिना परखे देखे कह दे।यह आज भी सत्य है। मैं अभी भी उस राह का एक मंथर मंथर सा राहगीर हूं। पर मनुष्य होने की वजह से मुझे उनसे मन ही मन एक शिकवा रहने लगा था कि वह मुझे कहीं नहीं सराहते,।हर मंच पर उन्होंने लगभग सबको चुनौती देते हुए केवल एक ही युवा कवि को कवि कहा , एक ही युवा कवयित्री को कवि कहा,यह किसी को अच्छा नहीं लगता होगा। मेरे शुभचिंतक मित्रों ने मुझे और सुलगा दिया। कभी मुझे उनकी बात सही लगती,कभी सही नहीं लगती।

आखिर न्यास के एक कार्यक्रम में हम पांच दफैरून,ओम प्रकाश शर्मा, आलोक श्रीवास्तव और मेरा कविता पाठ हुआ था। इस कार्यक्रम में हमें पारितोषिक का पत्रं पुष्पं भी मिला था।इसका विधिवत आमंत्रण स्वयं विजय जी ने फोन पर दिया था।

एक बार मैं भोपाल में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के बाणगंगा स्थित कार्यालय तक गया था, साक्षात्कार के संपादक हरि भटनागर और कवि नवल शुक्ल जी से मिलने के लिए।तो वहां विजय बहादुर सिंह जी भी मिल गये। तब वह भोपाल में ही रहने लगे थे। उन्होंने पूछा अगर आपको चलना है तो चलिए मैं किसी बस स्टाप पर छोड़ दूंगा। मैं साथ हो लिया। वह अपनी मारूति कार को खुद चलाते हुए विदिशा के हाल चाल पूछ रहे थे। मैंने बताया कि मैं शलभ श्रीराम सिंह की संगत कर रहा हूं और वह कभी कभी आपका ज़िक्र करते हैं तो वह चुप हो गए और बात बदल दी। उन्होंने बीच में पान खाने का पूछा । मैंने उन्हें बताया कि आपने मेरी कविताएं कालेज की पत्रिका में प्रकाशित कीं थीं तो वह बोले उनमें कुछ होगा तभी मैंने छापी होंगीं। लेकिन आप अभी आप सुनाइए नहीं। मैं हंस पड़ा था। फिर उन्होंने मुझे बस स्टाप पर छोड़ दिया था। इतनी निकट की कदाचित यह पहली या दूसरी मुलाकात थी।

एक अवसर मिलने के कारण मैंने जब यहां के दैनिक विद्रोही धारा के साहित्यिक पृष्ठ का संपादन संभाला तो एक महत्वाकांक्षी योजना के तहत सभी बड़े साहित्यकारों के साक्षात्कार लिए, उनमें सर का क्रम भी तय था। मैं पहुंचा उनके स्वर्णकार कालोनी विदिशा स्थित उनके घर पर। दरवाजा खोला और बोले इस समय मैं किसी से नहीं मिलता।कल शाम आठ बजे आइये। मैंने अपमानित महसूस किया और कहा कि तो रहने दीजिए। वह बोले आप जैसा चाहें। इतनी बेरूखी से बोलने से मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं तमतमाता हुआ आया ,किसी से कुछ नहीं कहा।अगले ही दिन, रात में लैंडलाइन पर फोन आया। बोले आप आए नहीं मैंने इंतज़ार किया।

अब कल इसी समय आइये। मुझे यह सब अप्रत्याशित लगा था, पर उनका मेरा नंबर खोजना, फिर मुझे फोन करना, ,मुझे राहत दे गया। मुझे लगा कि वह खूंसट नहीं हैं,संवेदनशील भी हैं।मैं पहुंचा मैंने प्रश्नोत्तरी दी, उनके जवाब लिए। मुझे स्मरण आ रहा है बाद में उन्होंने मुझसे कहा था -कि -आप संपादन का काम करते हुए कुछ पारिश्रमिक लेते हैं या नहीं?मैंने बताया यह कहां मुमकिन है तो उन्होंने कहा था कि -जब बैंड बाजा बजाने वाला तक अपने हुनर के बदले में कुछ लेता है तो हम साहित्य वाले क्यों प्रसाद बांटते रहते हैं-। मुझे उनकी बात ठीक लगी और मैंने जब अपनी बात अखबार के मालिक के सामने रखी तो उसने मुस्कुराते हुए आश्वस्त किया। तब से मुझे अखबार के मालिक हर माह के अंत में एक हजार रुपए भेजने लगे। यह एक अच्छी राशि थी, मुझे काफी सहारा मिल गया था। मैंने भी अपनी साहित्यिक पत्रकारिता का जुनून एक अच्छे परिणाम में तब्दील किया था।तभी मैं इंदिरा दांगी की कविताएं और कहानियां भी खूब लिया करता था। वह तब कालेज में पढ़ती थी।उन दिनों उनके लिए विद्रोही धारा ऐसा था जैसे जनसत्ता हो।अब तो वह भी कालेज में प्रोफेसर हैं और स्थापित कहानी कार भी हैं। और हमेशा मुझे प्रेरक मित्र कहतीं हैं।बल्कि मुझे अब वह प्रेरित करतीं हैं।

2004 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के आयोजन में मुझे खंडवा में माखनलाल चतुर्वेदी स्मृति कार्यक्रम में कविता पाठ में शामिल होने का अवसर मिला था।उन दिनों कपिल तिवारी प्रभारी निदेशक थे और कार्य क्रम प्रभारी थे हरि भटनागर।भव्य समारोह था। जिसमें उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई और आशुतोष दुबे और मुझे कविता के लिए, ,प्रयाग शुक्ल, भगवान सिंह , कर्मेंदु शिशिर और विजय बहादुर सिंह जी व्याख्यान के लिए बुलाये गये थे। मुझे वहां अपने ही शहर के विजय बहादुर सिंह जी को देखकर अतिरिक्त खुशी हुई थी। मेरे कविता पाठ के बाद फिर उन्होंने आशा के विपरीत टिप्पणी की। कविताएं तो अच्छी पढ़ीं आपने पर आवाज दबी दबी सी थी।पाठ पर ध्यान दिया करें। मुझे इस टिप्पणी ने बहुत शीतलता दी थी। उनके दो टूक बोलने के स्वभाव की वजह से उम्मीद रहती ही नहीं कि वह मेरी कविता को नीकी कहेंगे।

विजय बहादुर सिंह विदिशा में अनेक अच्छे शिष्यों के गुरु हैं। यहां के लगभग सभी महत्वपूर्ण व्यवसायी,उत्साही और महाजन उनके ऐसे शिष्य हैं जो उनका आदर भी करते हैं। एक तरफ उनके पीछे उनके रंगीन सच झूठ के किस्से होते रहते हैं।यहां उनका विरोध भी खूब हुआ है।कुछ लोग उन्हें फूटी आंख भी नहीं देखना चाहते।वहीं कुछ लोग उनको श्रद्धावनत प्रणाम करते देखे जाते हैं। उनके व्यक्तित्व का यह जादू ही है कि हर व्यक्ति यह जताना चाहता है कि वह उन्हें जानता है। चाहे पुलिस के सिसोदिया जी हों,या नंदवाना का एक निर्धन सा समाजसेवी हो,या कोई चंचल चपल अधेड़ सा मसखरा हो ,या बुद्धिमान पत्रकार हो, सभी अपनी स्मृति के कोनों को साफ करते हुए विजय बहादुर सिंह की कोई न कोई बात , कोई प्रसंग, ज़रूर वहीं के वहीं रख देते हैं।

एक मित्र ने चर्चा के दौरान एक रहस्य उदघाटन जैसा किया कि विदिशा में वह बाहर से जिन विद्वानों को बुलाते हैं,वे यदि उनके कद से बड़े हों तो भी उनके स्वागत के भाषण में उनके प्रभाव में खुद को छोटा मानकर कुछ नहीं कहते, यदि कद में छोटे हैं तो फिर तो कोई बात ही नहीं, बल्कि इस तरह से पेश करते हैं जैसे मेहमान ही इनके प्रभाव में हो, ये तो उनके प्रभाव में कतई नहीं। अपना आचार्य पन उनका कभी नहीं छूटता।

यही उनका जादू है, वह विदिशा के लिए साहित्य कला के पैगम्बर हैं तो हैं,।मजे की बात तो यही है कि लोग उन्हें महिला प्रिय और ,रंगीन मिजाज भी कहते हैं और यह भी स्वीकारते हैं कि साहित्य कार तो बड़े हैं। कुछ लोग कहते हैं कि कथनी करनी में फर्क वाले कैसे साहित्य कार।और कुछ लोग कुछ नहीं कहते। कुछ लोग कहते हैं कि गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ नकोऊ।जिसका मतलब है कि कोई भले ही गुणों की खान हो,मगर अगर उसे थोड़ा सा भी लोभ हो तो उसे भला नहीं कहा जाता।

इधर मुझे कहना होगा, चरित्र गत लोक अभियोग केवल मनोरंजन के लिए या नीति के लिए होते हैं। लंबे समय में कोई न ऐसी बातें सुनता है न लिखता है। निराला हों या फिराक गोरखपुरी, टैगोर हों या राजेंद्र यादव इन सभी की आखिर में रचनात्मकता बची रह जाती है।ये छोटी मोटी बातें नहीं रह जातीं। विजय बहादुर सिंह जी ने भी अपने सृजन और लोक व्यवहार की रेखा ज्यादा लंबी खींच दी है। यह सच है कि उनकी चरित्रगत कमज़ोरियों की बातें होना कभी बंद नहीं होगा लेकिन वे बातें उनके साहित्यिक योगदान की बातों के प्रकाश में फीकी पड़ती जाएंगी।,

जैसा कि मैंने उनके आयोजन धर्मिता के गुण का जिक्र किया, यह लंबी प्रोसिस है। पहले लोकायतन फिर पंडित गंगा प्रसाद पाठक ललित कला न्यास जैसी संस्थाओं को यहां स्थापित करने के लिए लोगों को प्रेरित करने में दिक्कतें तो आईं होंगी। एक आयोजन करने में कोई थक जाता है वह तो वर्षों से आयोजन कर रहे थे और देश के प्रसिद्ध साहित्यकार,कवि, पत्रकारों को, संगीतकारों को आमंत्रित कर विदिशा के आम लोगों को रूचि संपन्न बना रहे थे। आयोजन करने की कला,आपस में जुड़े रहने की कला, और कलाओं को आदर करने के संस्कार सिखा रहे थे। यह आसान नहीं था। किसी ने कहा है कि

Actions speak louder than words उनके लिए बिल्कुल यथेष्ठ कोट है।

यह सच है कि उनके जीवन में प्रेम और काम(love and lust) विदिशा में ही रहते हुए आया, लेकिन यह पिछले दरवाजे से नहीं आया, अपराध की तरह नहीं आया, कुदरत की तरह आया, जिसके लिए उन्होंने अपने हिस्से के त्याग भी दिए,उसकी कीमत दी। उन्होंने विदिशा में हुए अपने लोक सम्मान समारोह के अवसर पर स्वयं ही कहा भी जो जीवन विदिशा में मैंने जिया है उसे स्वीकार करने से क्या बचना। वैसे तो वह वह १९६६ में ही कल्पना आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे लेकिन विदिशा में रहते हुए ही उनके पास ज्यादा शिद्दत से कविता आई । आलोचना की आत्मा आई और भाषा की रवानी और दिन रात कुछ स्थायी नवाचार करने की टेक आई। अपने गांव, फिर कलकत्ता से चलकर सागर विश्वविद्यालय तक साहित्य की जो लगन बढ़ी थी उसने अपना उत्स कदाचित विदिशा में ही हासिल किया। यह बातें मैंने यहां रहकर जानीं हैं। उनके प्रशंसकों और निंदकों के साथ रहकर ।

विदिशा के हर आयोजन में उनके बोलने की प्रतीक्षा की जाती है। बाहर का कोई भी वक्ता हो जब तक विजय बहादुर सिंह जी नहीं बोलेंगे,कायदे की पूर्णाहुति होती ही नहीं।लोग उन्हें सुनने के लिए अपने कान खड़े करके चौकन्ना होकर बैठ जाते हैं।जब वह विषय को केंद्र में रखकर इतिहास ,परंपरा और धर्म के क्षेपक मिला कर बोलते हैं तो सभी जैसे इशारों इशारों में कहते हैं कि “देखा यह हैं डाक साब”। विदिशा के शरबती गेंहू की तारीफ करते करते वह यहां की सांस्कृतिक विरासत को बताकर लोगों में एक गौरव बोध जगा सके।मंच पर एक बार वित्त मंत्री राघवजी जी थे और वह बेधड़क कह रहे थे अगर आप अपने होते यहां के साहित्यिक और सांस्कृतिक वातावरण को कुछ बड़ी सौगात नहीं देते तो आपके होने का क्या मतलब। उनके लिए औचित्य रहित विनम्रता वाकई एक झमेला है यह मैं जान गया। अनेक बार उनके पौराणिक संदर्भ को लेकर दिए बयान पर विवाद भी होते हुए देखे गए, आखिर विदिशा कुछ कर्म-कांड जीवी धार्मिक लोगों का भी शहर है, कैसे वे अपने भगवानों को बौद्धिक व्याख्याओं से कम महत्वपूर्ण होता हुआ सुन सकते हैं। उनका स्पष्ट और दो टूक भी बोलना कई बार लोगों का दिल भी तोड़ता है।

पंडित गंगा प्रसाद पाठक ललित कला न्यास के अध्यक्ष होते हुए भी उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था की गुंजाइश रखी है। उनके स्थान पर कार्यकारी अध्यक्ष गोविंद देवलिया बताते रहते हैं कि हम लोग उनसे किसी भी विषय पर असहमत हो सकते हैं और वह अंततः वह हमारी बातों को अनसुनी कर के मान जाते हैं। न्यासियों के बीच एक भावनात्मक अंतर्संबंध की रूपरेखा उन्होंने ने पहले ही बना दी थी। यही वजह है कि आज भी न्यास के कार्यक्रम उतने ही भव्य और यादगार होते हैं। दरअसल जिस तरह विदिशा कालिदास, सम्राट अशोक की ससुराल,SATI,अटल बिहारी वाजपेई, सुषमा स्वराज और कैलाश सत्यार्थी के लिए मशहूर है वैसे ही साहित्यिक हल्कों में यह पंडित गंगा प्रसाद पाठक ललित कला न्यास के लिए भी मशहूर है जिसके प्रेरक संस्थापक एक तरह से विजय बहादुर सिंह हैं।

जब मेरा पहला संग्रह “तमाम गुमी हुई चीज़ें आया”। मैंने उन्हें भी सादर भेंट किया।यह उनकी सदाशयता थी कि उस पर प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने एक समीक्षा आलेख भेजा।उस आलेख में पर्याप्त प्रशंसा थी लेकिन एक वाक्य मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा,द्वि अर्थी और कटाक्ष जैसा लगा।मैंने पत्र में यह शिकायत की तो उनका उस पर एक और जवाब आया जिसके आशय में कुछ ऐसा था कि आपने अन्यथा लिया। दूसरे संग्रह *घर के भीतर घर*के लिए भी उन्होंने एक पत्र समीक्षा लिख भेजी थी।यह मेरे लिए उत्साहित करने के लिए उपयुक्त थी। चौथे कविता संग्रह में तो उनका ब्लर्व ही है। लेकिन मुझे यहां यह भी लिखना चाहिए शायद ही इस कद का कोई लेखक हो जो पत्र का जवाब देने में देरी न करते हों और जरूर न देता हो।इस बात की पुष्टि मुझे अनेक मित्रों से हुई है। उनकी दिनचर्या में लेखन के ये अनुशासन की तरह शामिल हैं।

इस तरह से मैं उनके संपर्क में रहता तो रहा लेकिन एक फासला सदैव रहा है। ज़ाहिर है इसकी वजह मेरा बंद बंद सा स्वभाव था। उनके स्पष्ट वादिता के प्रसंग मुझे मालम सिंह चंद्रवंशी, आलोक श्रीवास्तव, नीरज शक्ति निगम , गजेन्द्र आचार्य और रामशरण ताम्रकार बताते ही रहे हैं।हम तीन चार मित्रों ने जब न्यास के कार्यक्रम में जवाब दारी संभाली तो तीन चार कार्यक्रमों के बाद ही मतभेद हो गया।तब भी उनके सिद्धांतों को मैंने आयोजन नीति के तहत एडजस्ट करना चाहा,लेकिन सहमति नहीं बन सकी और हम लोगों ने शब्द और संगीत नामक एक अस्थाई समिति बनाकर अनेक अच्छे कार्य क्रम किए। हर बार पहले और बाद में डाक्टर साहब की बातें होतीं। उस टुकड़ी में समकालीन कविता का कवि और हिंदी का लेखक मैं ही था तो मुझे यह ठीक नहीं लगता कि हम असहमतियों को बैर की हद तक ले जाएं। समय रहते सब कुछ ठीक होता गया। सभी साथियों के कार्यक्षेत्र बदलते गए। शहर और बसर बदलते गए।मैं यहीं रह गया।

विजय बहादुर सिंह जी जब वागर्थ के संपादक बने तो खबर सुनकर हमें भी खुशी हुई थी। लेकिन मुझे उनसे कोई उम्मीद नहीं थी गोया उनके लिए हम अभिनव कवि तो थे नहीं। हालांकि मुझे तब तक देश की सभी बड़ी पत्रिकाओं में स्थान मिल चुका था,साक्षात्कारों में लीलाधर मंडलोई, और कमला प्रसाद ने मेरा नाम अच्छे कवियों में कोट किया था।पर पता नहीं क्यों लगता था कि वह मुझे उपेक्षित करेंगे।

एक दिन उनका फोन आया कि ब्रज जी आप वागर्थ के लिए कुछ कविताएं भेजिए। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ । मैं तो ग़लत सोच रहा था। मैंने अपनी हस्तलिपि में ही एक लंबी कविता *नए पद प्रेम की * भेज दी। उस कविता को फिर मेरी ही हस्तलिपि में वागर्थ में प्रकाशित किया गया था। मेरी खुशी ऊंचाई पर थी।बधाई के अनेक फोन आए। इस तरह मुझे भरोसा हुआ कि वह कविता के साथ न्याय तो करते हैं।यह तब था,जब मैं उनका शिष्य नहीं था,और उनकी बैठक में घुटनों के बल नहीं बैठता था। शायद इसीलिए मुझे उन्होंने कभी तुम करके संबोधित नहीं किया, आप ही कहा,जबकि वह रवीन्द्र प्रजापति आदि शिष्यों को तुम करके बुलाते हैं। यह बारीक भेद मैं समझ सकता था। उनके साहित्यिक शिष्यों की एक लंबी लड़ी होगी जिनमें प्रेम शंकर रघुवंशी, जानकी प्रसाद शर्मा, वेणु गोपाल,वीरां ,सविता भार्गव,प्रोफेसर दिलीप शाक्य अंजुम, मीडिया धर्मी पीयूष बबेले ,दयाशंकर मिश्र,शिव कुमार श्रीवास्तव दफैरून, एकांत श्रीवास्तव, नीलेश रघुवंशी , रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,एडवोकेट दिनेश मिश्र, उपेन्द्र कालुस्कर , विद्यानंद जैन, और गोविंद देवलिया हैं। शिष्यों के अलावा भी उनके कुछ वास्तविक प्रशंसक हैं जिनमें महेश कटारे सुगम का नाम मुझे याद आता है।

एक और प्रसंग याद आता है एक बार किसी कार्यक्रम का उपरांत -भोज रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति के निवास पर छत पर था । नरेंद्र जैन सहित आमंत्रित कवि कलाकार भी थे। रसरंजन के लिए पैमाने तैयार हो गए थे। मैं तो था ही विजातीय। अचानक विजय बहादुर सिंह जी बोले -ब्रज क्यों नहीं पी रहे हैं?

रवीन्द्र प्रजापति ने कहा कि वह कभी नहीं पीते।तो वह बोले अच्छा तो यह सज्जन बने रहने के चक्कर में हैं।कल सभी को बाहर शान बतायेंगे कि मैंने नहीं पी। हंसते हुए कहा -रवीन्द्र इनके पानी के गिलास में दो बूंद मिला तो दो ताकि यह अपने आप को न पीने वाला न कह सकें। मुझे उनकी यह चुहल सुहानी लगी और खुशी खुशी बूंद युक्त जल ग्रहण किया।

अनेक कविता संग्रहों मौसम की चिट्ठी, पृथ्वी का प्रेमगीत,शब्द जिन्हें भूल गई भाषा, अर्द्ध सत्य का संगीत, भीमबेठिका, आलोचना की किताबें कविता और संवेदना, आलोचक का स्वदेश, वह एक मणियारा सांप , के अलावा

भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन, और दुष्यंत कुमार पर समग्र रचनावली हिन्दी साहित्य को देने वाले, अपनी भारतीय जीवन शैली से सकारात्मक ऊर्जा देने वाले, किसी भी महफ़िल में खतरा उठा कर भी दो टूक बोलने वाले और संबंधों को निष्ठा से निभाने वाले इस अनूठे अंदाज के लेखक जैसा कोई दूसरा नहीं है।

उन्होंने मार्क्स ,गांधी और राममनोहर लोहिया को पढ़कर उनके उसूलों को और विचारों कोअपने लेखन और जीवन में समाहित किया है।लेकिन उन्हें विशुद्ध बामपंथ में नहीं गिना जाता। सुना है कि राममनोहर लोहिया कालेज में जिन बैंचों पर बैठ कर पढ़ें हैं,उन बैंचों पर वह भी बैठ कर पढ़े हैं।उनको सुनकर हमेशा लगा है कि वह किसी स्टेटमेंट देने वाली लोकप्रिय परंपरा के आलोचक नहीं हैं,ऐसी परंपरा के तो बिल्कुल नहीं जो सत्ता धारी राजनीति की पक्षधरता लिए चलती है।या फिर पश्चिम की नई आलोचना की राह अपनाती है। मैंने देखा है कि वह पश्चिम से आँख तो नहीं मूँदते पर कोशिश करते रहे हैं उनके होते समूची भारतीय परम्परा, जीवन-दृष्टि और लोकोन्मुखी बौद्धिक का वर्चस्व कहीं भी मंद न पड़े।अपनी तरह का आलोचना का प्रकाश वह अपने महान गुरु आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, दृष्टि नागार्जुन से और शैली राम विलास जी से लेते हैं।।देश विदेश में अनेक सभाओं में उनके व्याख्यान अभिलेखित हुए हैं।

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विजय बहादुर सिंह एक जागृत कवि भी हैं। बल्कि पहले तो वह कवि ही हैं लेकिन लयों के सागर समेटे हुए उनका गद्य चर्चित ज्यादा हो गया।हम लोगों ने एक गोष्ठी में उनका कविता पाठ सुना है। भीमबेठका पर एक लंबी कविता उनकी विशेष पहचान कवि के रूप में बनाती है।कवि के रूप में उन पर बहुत काम बाकी है। उनकी कविता एक आलोचना की प्रतीक्षा में है। जहां तक मैं जानता हूं उनके पारिवारिक जीवन में इतना कुछ सुभीता तो नहीं है कि वे बहुत खुश हों लेकिन इतनी टूटन भी नहीं है कि दुख सुख में साथ और परवाह का रिश्ता ही खत्म हो गया हो।उनकी शरीके हयात ऊषा श्रीवास्तव मैडम शिकायतें लिए हुए भी उनसे दूर नहीं हैं।उनकी बेटियां चित्रा और प्रिया भी अपने पिता से सदैव संपर्क में रहतीं हैं। चित्रा सिंह ने साहित्य की डोर अभी छोड़ी नहीं है, वैसे ही पिता से भी लाड़ करते हुए शिकायत करने की डोर नहीं छोड़ी।

मुझे अचरज है कि सेवानिवृति के बाद भी दो चार साल तक उनको कोई पुरस्कार नहीं मिला था।पर अब तक अनेक पुरस्कारों और सम्मानों ने उन्हें चुन ही लिया है।न जाने कहां कहां के वह नीति निर्धारक और सलाहकार होंगे।83की वय के पार भी वह अपनी दिनचर्या में कागज और कलम से राब्ता किए हैं। उनके चश्मे का नंबर अभी स्थिर है। शब्द और जुमले उनके मनोमष्तिक में अभी भी वैसे ही फलते और खिलते हैं। हंसने में मोहिनी और बोलने में ठसक अभी वैसी ही है। प्राकृतिक तरह से जीवन जीने के उनकेे स्वभाव ने उनके जीवन को आरोग्य दिया है। अभी भी वह अपने ही हाथों की रोटी और दलिया खाते हैं। टीवी देखते हैं और फेसबुक वाटस एप चलाते हैं। फोन पर अच्छी बातें करते हैं। अभी भी साहित्य और संस्कृति पर दो टूक बोलते हैं।

उनके चाहने वालों को भला और क्या चाहिए इसके अलावा कि विजय बहादुर सिंह जी के लिए समय यूं ही थमा रहे, और वह अपने मनचाहे कामों को और पढ़ने लिखने के लक्ष्य को अंजाम देते रहें।

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