होली के रंगोत्सव पर प्रस्तुत हैं विभिन्न कवियों के विचार। इन्हें संकलित किया है कवि लेखक ब्रज श्रीवास्तव ने

 

गंगाधर ढोके शहडोल

जिस प्रकार भौगोलिक स्थितियां मनुष्य का खान-पान, रहन-सहन, बनावट, वेशभूषा तय करती है उसी तरह मानव जाति की संस्कृति, परम्परा, रंग-रूप का निर्धारण वहां की नदी, नाले, झरने, पहाड़ और जंगल सब मिलकर मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष, आनंद का निर्धारण करते हैं । वैश्विक दृष्टि से तुलनात्मक विश्लेषण करने पर भारतीय जनमानस ‘उत्सव-धर्मी’ प्रकृति का मालूम पड़ता है । उसकी इसी आनंदमय तबी’अत ने तीज-त्योहार, मेले, मढ़ई के रंगों को ईजाद किया । लोक जीवन में प्रकृति के रंगों की आमद उसकी संस्कृति, परम्पराओं और रीति-रिवाजों में इस तरह रच-बस गयी कि उसे अलगाया नहीं जा सकता । लोक जीवन में ये रंग हर रस्म-ओ-रिवाज में बार बार लौटते हैं और अवसाद और नैराश्य के क्षणों के धूसर रंग को बेदख़ल करते रहते हैं । भारतीय जनमानस की उत्सव-धर्मिता कोरोना काल में पसरी धूसरता के बाद के काल में देखी जानी चाहिए।
विवाह के रंगों में जहां पीले और हरे रंग ने बादशाहत कायम की तो लाल रंग मनुष्य के संघर्ष की भीतरी आग का प्रतिनिधित्व करता दिखाई पड़ा ।‌ केसरिया रंग की सादगी और त्याग की महिमा को संतों ने आत्मसात कर लिया । श्वेत ने जहां शांति और अमन की जिम्मेदारी ली वहीं स्याह रंग ने अन्याय को प्रतीक में तब्दीली दी। कहना चाहिए कि लोक जीवन में रंग, कला भी है शब्द भी, और संकेतक भी । रंगों की प्रकृति गूंगी नहीं है वे बोलते हैं, तब भी जब सड़कें सुनसान हो । ट्रेफिक सिग्नल में हिदायतें देते हुए मिल जाते हैं । मील के पत्थरों में चढ़कर रास्ता दिखाते हैं ।
हिन्दी के ख्यात कवि एकांत श्रीवास्तव की रंग पर छः कविताएं हैं क्रमशः लाल, नीला, पीला, सफेद, काला और हरा’ पर । वे हरे रंग की में लिखते हैं –
“इस रंग का होना
इस विश्‍वास का होना है
कि जब तक यह है
दुनिया हरी-भरी है”

इसी तरह ‘नीले’ रंग के माध्यम से वे समय को कुछ यूं रेखांकित करते हैं –

“इस रंग से जुड़ी हैं
प्रिय और अप्रिय यादें
अक्‍सर मेरी नींद में टपकता है नीला रक्‍त
और चौंककर उठ जाता हूं मैं
यही, हाँ, यही रंग भाई की देह का
मृत्‍यु से पहले
और सर्प दंश के बाद

मैं इसे भूल नहीं सकता
कि यह रंग है समय की पीठ पर।”
* * *
“जब‍ स्त्रियों के पास
बचता नहीं कोई दूसरा रंग
वे इसी रंग के सहारे काट देती हैं
अपना सारा जीवन”

एकांत श्रीवास्तव सफेद रंग का इस्तेमाल उक्तानुसार करते हैं । आगे अगली कविता में वे पीले रंग को कविता में इस तरह शब्द-बद्ध करते हैं –
“यह एक बहुत नाजुक रंग है
जिससे रंगी है
लड़कियों की चुन्‍नी और नींद

सुनो! मुझे खुशी है
कि मैं इस रंग से चीजों को जुदा करने की
साजिश में शामिल नहीं हूँ।”

इन कवितांशों से जाहिर है कि लोक जीवन में रंगों की यह चहल-कदमी होली के त्योहार तक सीमित नहीं है । वे जीवन के उतने ही करीब है, जितनी भाषा, अन्न और जल ।

इसी कड़ी में साकिबा की सदस्य कवयित्री गोपी ‘नवीन’ ने अपनी एक कविता ‘मां की टिकुली’ में रंगों का इस्तेमाल बिम्बों की लड़ी की तरह बखूबी किया है –
“जब लगाती
लाल बिंदी,
जैसे उठा लेती माथे पर
सवेरे का सूरज।

जब वह लगाती
हरी बिंदी,
काट लाती धरती के
चादर के छोर से
एक गोल टुकड़ा।

नीली बिंदी में
समा लेती
आसमान, झरने , नदियां
और अथाह समुद्र।

लगाते ही पीली बिंदी,
लहलहाने लगते
फूले सरसों के खेत,
गूंजने लगती शगुन की
शहनाइयां।

मां के लिए बिंदी
प्रेम की एक वृत्ताकार
सरंचना थी जिसे वह
टिकुली कहती और
उसके भीतर भरी रहती
अनेकों खुशियां,
लाखों सपने
जिनमे हर रोज
भरती रहती वह
नए – नए रंग।”

इस तरह बजाहिर तौर पर कहना चाहिए की रंग न हो तो क्या जीवन, और क्या कलात्मकता ? कोई मुकम्मल अर्थ बनता नहीं है । रंग, जीवन का वह उजास है, जो अंधकार में न सिर्फ चमकता है अपितु रंग भी घोलता है । रंगों की ये दुनिया इन दिनों धूसर हो चली है । रंग जो कभी अगल-बगल हुआ करते थे, आमने-सामने आ खड़े किए जा रहे हैं । साहित्य के समक्ष फिलक्त यह एक चुनौती तो है ही ।
(एकांत श्रीवास्तव की कविता के अंश के लिए कविता कोश एवं गोपी ‘नवीन’ की कविता के लिए मिथिलेश राय का आभार)

रंग, कला, जीवन और हम: ख़ुदेजा ख़ान

हमारा अस्तित्व ही रंग, कला और जीवन के पारस्परिक संयोजन से बना है। सर्वप्रथम रंग लुभाते हैं। कला में रंग न हों तो नीरस लगने लगे सारी कलात्मकता और यदि जीवन रंगहीन हो तो रसहीन भी हो जाए।
हर रंग अपना असर रखता है। हर रंग के अनेक शेड्स जैसे परिवर्तित होती मन: स्थितियां। शोख़ रंगों से लगाव विशेष मनोदशा का प्रतीक। गाढ़े रंग सा गाढ़ा रिश्ता। कैसी ही परिस्थितियों का पानी पड़ जाए फीका नहीं पड़ने वाला। उल्लास का रंग इसी तरह जोड़े रखता है आपस में। व्यक्तित्व के भी अनेक रंग होते हैं। आकर्षक रंगों सा स्वभाव बरबस आकर्षण में बांध लेता है। कहीं एक में ही अनेक रंग समाहित रहते हैं कि पहचानना मुश्किल कि असल कौन सा है। कहीं एक ही रंग की बहुलता। कहीं मिले-जुले रंगों में सद्भावना, भाईचारा, कहीं प्रतिस्पर्धात्मक द्वेष और कपट। कौन किस रंग में कितना रंगा है ये सब स्वभाव व चारित्रिक संस्कार पर निर्भर है। इन्हीं से सामंजस्य बैठा कर चलने का नाम जीवन है। रंग और कला में जीवन अपने सूत्र ढूंढता है ताकि मनुष्य विषमताओं में भी चल सके आनंद में मगन होकर।

रंगों से अभिप्रेरित होकर ही कलाओं ने जन्म लिया होगा। मनुष्य की श्रेष्ठता सर्व सिद्ध है। अपने आमोद- प्रमोद के लिए नाना प्रकार की कलाओं का सृजन व आविष्कार मानव जाति के प्रगतिगामी, परिवर्तनशील सोच का द्योतक बनकर विभिन्न रूपों में आज हमारे सामने है। साधारण मनुष्य की सोच से परे कला साधकों की
सृजनशीलता, परिकल्पना को साकार देखकर अभिभूत हुए बिना नहीं रहा जा सकता। कला संयोजन भी एक तरह से मनुष्य को मनुष्यता से जोड़ने का महत्वपूर्ण उपक्रम है वरना जीवन की एकरसता उसे बोझिल लगने लगे।

जीवन की कटुता से कौन अछूता है फिर भी कटुता को परे रख कर विभिन्न माध्यमों में सार तत्व तलाश करना आवश्यकता है सतत गतिमान जीवन के लिए। अर्थात रंग, कला और जीवन तीनों के समावेश से स्वयं को साधना अपने अस्तित्व को सार्थक करने जैसा है। कला को जीवंतता रंगों से मिलती है या कला जब रंगों से खेलती है तो उसे कलात्मक बना देती है यह दोनों मिलकर जीवन को नूतन आयाम देते हैं। इनकी परस्पर सहभागिता प्राणों को गतिमान रखती है एक के बिना दूजा अधूरा हो जैसे।यह सम्मिलित समीकरण सृष्टि का विस्तारक है इनके केंद्र में जीवन दृष्टि अटल दृश्यमान रहती है। हम तो केवल निमित्त मात्र, संसार के रंगमंच पर रंग और कला से वशीभूत अपनी- अपनी परिधि में परिक्रमारत कठपुतलियां जैसे।

 

रंग, कलाएँ एवं जीवन: गीता चौबे गूँज

‘जीवन क्या है’… एक सादा कैनवस जिस पर विविध रंगों की कूची चलाते हुए कलात्मकता के साथ मनमोहक आकृतियाँ बनाना जिसे देखकर निराशाजनक स्थिति में भी जीने का एक नया जज्बा उत्पन्न हो सके!
प्रकृति में कितने ही रंग भरे पड़े हैं और हर एक रंग का अपना महत्व भी है। जहाँ कुछ चटकीले, मन को रँगने वाले तो कुछ फीके और धूसर रंग भी हैं। कहीं दुःख के रंग तो कहीं उल्लास के रंग। जीवन को संतुलित करने का प्रकृति का यह अपना ही ढंग है। निरंतर चटकीले रंग ही यदि जीवन में हों तो वह जीवन उबाऊ हो जाता है। समरसता के लिए रंगों की विविधता अति आवश्यक है। मौसम भी अपना रंग बदलता रहता है ताकि संतुलन बना रहे।
मानव मन सदैव खुशी ही चाहता है जिसमें लाल-गुलाबी, नीले, पीले आदि चटख रंग समाहित हों, किंतु ये तब अधिक निखर कर आते हैं जब कैनवस सादा हो या धूसर हो। लाल रंग की पृषभूमि पर लाल फूल का कोई अस्तित्व नहीं। अतः गाढ़े रंगों को खिलने के लिए कुछ फीके रंग भी अति आवश्यक हैं। उसी तरह जीवन में भी खुशियों के रंग तब ज्यादा अच्छे लगते हैं जब बीच-बीच में कुछ अन्य रंग भी शामिल हों। इन सभी रंगों को कलात्मकता के साथ निभाना ही जीवन की सफलता है।
निःसंदेह फागुन का रंग या वसंत का रंग हर मुरझाए मन को नव ताजगी देता है। न केवल अंग-अंग में मादकता भरता है, वरन् प्रकृति में भी एक अनूठा अहसास भर जाता है। किंतु जरा कल्पना करें कि बारहों मास फागुन या वसंत रहे तो क्या तब भी वह उतना ही लुभावना रहेगा? नहीं, क्योंकि तब एकरसता से सब कुछ ऊबाऊ हो उठेगा। जिस तरह रात के बाद सूर्य के प्रथम रश्मि की सुंदरता बढ़ जाती है, उसी तरह दुःख के बाद आनेवाले सुख के रंग भी कुछ अधिक ही निखर कर आते हैं। प्रकृति के सारे ही रंग हमारे जीवन को पूर्णता प्रदान करते हैं। हमें उन सभी रंगों का उचित संयोजन करने की कला आनी चाहिए।

 

सबका अपना रंग है: निर्मल सैनी

सबका अपना- अपना रंग है। सबका अपना प्रकाश है। सबकी अपनी पहचान है। नाम जैसे प्रत्येक वस्तु की बोलती पहचान है अर्थात वह वस्तु उस विशिष्ट नाम से पुकारी जाती है। ठीक उसी प्रकार रंग उस वस्तु की सदृश पहचान है। वह वस्तु दिखती कैसी है ? वह वस्तु किस रंग का प्रकाश उत्सर्जित करती है ? रंग इन तमाम प्रश्नों के उत्तर देता हुआ प्रतीत होता है।

प्रकृति की प्रत्येक सजीव निर्जीव वस्तु की अपनी पहचान होती है। उसका रूप रंग बनावट भार आकार भिन्न-भिन्न होता है। रंग और प्रकाश एक दूसरे के पूरक हैं। ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु की अपनी प्रकाश क्षमता है। उस वस्तु से उत्सर्जित होने वाले प्रकाश का रंग ही उस वस्तु का अपना रंग होता है।

मानव जीवन में अनगिनत रंग अपनी पैठ बना चुके हैं। सुबह से लेकर शाम तक दिन रंगों से संगत करते हुए ही गुजरता है।
पीली धूप की शीतल छुअन छेड़खानी ललाट पर महसूस कर खुलती आँखें। माँ अपने बच्चे को तैयार करने के अंतिम दौर में माथे पर लगाती काला टीका। प्रत्येक महिला का एनश्रृंगार लाल सिंदूर। प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता रंग हरा। सफेद रंग शांति का प्रतीक।

कोई रंग समाज में विशिष्टता मान्यता प्राप्त कर लेता है। जैसे रंग सफेद शांति का पर्याय। विभिन्न सवेंगों से संबद्धता स्थापित कर रंग विशिष्टता प्राप्त कर लेते हैं तथा उस सवेंग विशेष के पर्याय बन जाते है। यह उस रंग का लगातार उसी माहौल में प्रयोग करने से होता है।

कमरे की अलमारी में पड़ी रंगदानी में खुसर फुसर हुई। रंग बतियाते हैं। साथ मिले तो बना इंद्रधनुष अलग हुए तो धर्म देश राजनीति हो गए। नीला बुद्ध तो पीला श्याम हो गया।

रंगों की भाषा: बबीता गुप्ता

मौसम की तरह बदलते जीवन में खुशी-गम,उजास-अंधेरा,आशा-निराशा जैसे कई रंग बनते-बिगड़ते रहते  हैं। रंगबिरंगी दुनिया में हर रंग अपनी एक अलग पहचान लिए होता हैं। नैसर्गिक छटाओं से सजी धरा लहलहाते सरसों-सा पीत रंग मन को उमंगित करता हैं, चटक पलाशी रंग जीवन को उल्लासित करते हैं तो कृष्णवर्णी बौछारें अंधेरे में उजियारा लाती हैं वही धानी चूनर ओढ़ाकर करता मन मतवाला।बैचेन मन को सुकून का एहसास दिलाती लाल-गुलाबी पंखुड़ियां गुलाल सी तो जीवन में आस -विश्वास बांधते सतरंगी इन्द्रधनुषी रंग जिसके हर रंग के मायने अनेक हैं,उसकी अपनी रंगीनी प्रवृतियां हैं।
रंग दो अक्षर का एक शब्द अपनी बहुरंगी महिमा लिए ना केवल वो उत्सव के रूप में जुड़कर संस्कृति का हिस्सा बना बल्कि बेरंग जीवन को बहुभाषी लोगों की तरह रंग-बिरंगा बनाता हैं।जी हां! रंग शब्द जो अपने आप में पूर्ण वाक्य हैं, संस्कृत भाषा के रंज् शब्द से व्युत्पत्ति हुई,विशेषण का प्रतीक है।रंग से रंगा शब्द यानि कपड़े को रंगना और रंगने वाला रंगरेज।जैसे तीन रंग का बना तिरंगा झंडा।
मानवीय अवधारणा में रचे-बसे ‘बैजानीहपीनाला’ जो विभिन्न आयामों द्वारा भिन्न-भिन्न रंग की संतृप्ति,चमक लिए होते हैं। जहां एक ओर फारसी भाषा में रंज् के मायने दुःख, पीड़ा,दर्द,खेद,अफसोस से हैं लेकिन जब इसमें प्रत्यय जुड़ जाते हैं तो कई हिन्दी शब्द जैसे रंगरेज, रंगत, रंगगृह, रंगमंच, रंगीन,    रंगकाष्ठ, रंगबिरंगी जैसे कई शब्द मानवीय व्यवहार में आत्मसात होकर अपना रंग जमाते हैं। तो वही दूसरी ओर विज्ञानी भाषा में रंजक शब्द से जाने-पहचाने वाले रंग को वर्ण कहते हैं जिसका अर्थ श्वेत-श्याम,काले-पीले-नीले-हरे या फिर औलम की वर्णमाला जो काले-काले अक्षरों में ज्ञानसंपदा को समेटे मानव जीवन के अज्ञान के तम को मिटाकर ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित कर देते हैं। या फिर जाति को महिमामंडित करते हुये सामाजिक व्यवस्था को चार वर्णों में बांट दिया।अनेकानेक अर्थों में गोरी-काली रंग की नस्लों में बंटता समाज रंगभेद की नीति को जन्म देती हैं। गुणकारी अर्थ लिए वर्ण व्यक्ति को अपनों के बीच आम से खास बनाता हैं।
रंग यानि रूप-रंग जिसका अनुभव ऑखों से होता हैं। इंसानी प्रवृति रंगों जैसी होती हैं। बैजानीहपीनाला के मिलनसार से बना श्वेत रंग सकारात्मकता लाता हैं। रंगीन मिजाज का मनमौजी मानव जिसकी दुनिया बिना रंगों के उदास,नीरस, बेरंग हैं।सफलता का रंग जब सिर चढ़कर बोलता हैं तो उसकी चमक चेहरे की रंगत से हो जाती हैं। सुख-संतोषी प्रवृति के आदमी के चेहरे का रंग निखरा-बिखरा रहता हैं। मनोविनोद आमोद-प्रमोद में अपना रंग जमाता हैं, बीच-बीच में हास्य-परिहास से लोगों को आनन्दित करते हुये कुटिल, कड़वी, व्यंगात्मक लहजे से मनोहारी वातावरण में खलल पैदा करके रंग मे भंग कर देता हैं।अपनी-अपनी बातों का रंग दिखाते हुये लोगों को अपने रंग में रंगते हुये मिलनसार का परिचय देता हैं तो जब कभी की बेरूखी रंग मिजाजी पर लीपा-पोती कर देती हैं।
महफिले रंग जमाती हैं,अभिनय कला से रंगमंच पर रंगारंग कार्यक्रम देते हुये दर्शकगण उसके हाव-भाव, चाल-ढाल से रंग-ढंग समझ जाता हैं कि कभी रंगभूमि कहे या रणभूमि में उससे कैसे दो-चार होना हैं। दुनिया के रंगमंच पर हर कोई अपना मंचन करता हैं। बचपन की फाकामस्ती रंग लाती हैं,नया रंग अख्तियार करके विचारों का अनुयायी बनाकर रंग में रंगना,अपने बतरस से रंग बरसाते हुये यथेष्ठ प्रभाव से पूरी तरह से रंग में बींध लेते हैं। आनंद,हर्ष के समय में मीठी-मीठी बातों को ही रंग रंगना सबके दिलोदिमाग में व्यवहार का रंग टपके।लंबी-चौड़ी गप्पें हांकने से सबको अपने रंगों में बांध लेना,रंग डालना यानि कि अपनी ओर अनुरक्त करना, बहुत बड़ा गुण होता हैं।लेकिन कभी-कभी रंगबिरंगा जीवन रंगीन मिजाजी रंगरेलियां करते व्यक्ति अपनी शान में रंग फीके कर लेते हैं। यानि भांति-भांति के लोग तो भांति-भांति की रंगबिरंगी मिजाजी।
मन पर गहरा असर करते रंगों की अपनी-अपनी परिभाषा जिनका दुशाला कभी खिलखिलाता, गुनगुनाता,चहकाता तो कभी उदास, गम, अफसोस का भाव प्रकट करता रंगबिरंगे जीवन में अपना रंग जमाता हैं, मानवीय भावनाओं को प्रभावित करती रंगों की अपनी-अपनी प्रवृति मनोवृत्तियों में प्रकट करती हैं।
फाग के रंग क्षितिज में उड़ते अबीर-गुलाल…मौन निमंत्रण दे रहे कि भाईचारे का रंग से मिटाये कलुष अहंकार…सुर लय ताल से फाग के गीत गाकर होली बनाये अलबेली…ठिठोली संग स्नेह के रंग से खेले होली…

 

रंग , कला , जीवन और हम: रीमा दीवान चड्ढा

रंगों की इन्द्रधनुषी आभा ने हमारे जीवन को विविधता दी है । सफेद रंग सादगी का पर्याय है तो गुलाबी रंग प्रेम का । हरे रंग ने हरियाली और उर्वरता की सौगात दी है तो हल्के नीले रंग ने आसमान सा विस्तार दिया है तो जल की निर्मलता भी उपहार में दी है । लाल रंग उमंग का प्रतीक है । पीला रंग सकारात्मकता को दर्शाता है। बैंगनी रंग रचनात्मकता का प्रतीक है तो काला रंग शक्ति और साहस का प्रतीक है ।इन रंगों ने जीवन को स्पंदित किया है और ऊर्जा दी है ।वही ऊर्जा जो हमने कभी सूर्य से प्रत्यक्ष ली है तो कभी विभिन्न माध्यमों से ली है ।
पशु पक्षियों और फूलों के रंगों से सौन्दर्य की अनुभूति होती है , फलों और सब्जियों के रंगों से हमारा स्वास्थ्य है तो वहीं विभिन्न वस्तुओं के रंगों से जीवन में रस है। रंग-बिरंगी दुनिया को देख कर जीवन में उमंग और तरंग है ।
कला हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम है विभिन्न कलाओं ने समय के सीने पर मानवीय सभ्यता और संस्कृति की एक अमिट छाप छोड़ी है। नृत्य , संगीत ,चित्रकारी ,अभिनय, सिलाई , बुनाई हो या दस्तकारी हर कला के अपने आयाम हैं , अपना शिल्प है , अपनी सुंदरता है । इन कलाओं से ही तो जीवन में रंग है , रस है और है रचनात्मकता का सुख। कला ने जीवन को नयी ऊँचाई दी है , नया आयाम दिया है , सृजन का सुख दिया है और दिया है नवीन रंगों की दुनिया ।
इन रंगों , इन कलाओं ने जीवन को सार्थकता दी है , नयी संभावनाओं को जन्म दिया है । जीवन में सुख दुख दोनों के रंग हैं । काले सफेद रंगों से ऊपर उठकर सतरंगी दुनिया का सौन्दर्य हर पल हमें आकर्षित करता है । कला की दुनिया हमारी सृजनशीलता का परचम लहराती है । जीवन में ये रंग और ये कलायें मनुष्य के हृदय को स्पंदित करती हैं और कहती हैं हां हम है तो तुम्हारा जीवन है और तुम हो तो हम हैं । हम सबके होने से ये सुंदर सृष्टि है ।
आओ इस सृष्टि को कला के नये रंगों से रंग दें। जो रंग प्रकृति ने हमें दिये हैं उन्हें हम संजों लें । जो रंग हमारी कलाओं के पास हैं उन्हें संवार दें ।जो रंग हमारी कल्पना के पास हैं उनसे इस सृष्टि के कण कण को सुख के रंगों से भर दें ।अबीर गुलाल के रंग , टेसू पलाश के रंग से जीवन के भाल पर एक तिलक लगायें जो कहे जीवन कर्म के रंग से उपजी सबसे सुंदर कला है जिसे सार्थकता से जीना हम सबको सीखना ही चाहिये ।

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