गाँव के पोखर के पास

खेत की दोमट मिट्टी पर दोपहर में सरसों

आज भी ठहाके लगाती होगी न?

सूरज अपने देह की पीली माटी

से रंग देता होगा

देह धरा का

तब जाकर सरसों खिलती होगी

आज भी जनवरी पीली खेत से मिलती होगी।

बाँस के हरे पत्ते

और सरसों की हरी पत्तियाँ जुड़वा भाईबहन हैं

दोनों के रंग इसलिए एक से हरे हैं

कहता था कहलू पहलवान

चन्देश्वर कितना छोटा दिखता था

पर बातें बड़ीबड़ी करता था

उसकी बातों के पोखर में

मैं डूबता और उभरता रहता था

माँ के पास नहीं थी

एक भी साड़ी गुलाबी

वह कभी नहीं गयी बाजार

बाबूजी ही लाते रहे साड़ी दुकान से

जो हमेशा हल्के रंगों की होती थी

कभी सफेद,फूल के छींटों वाली

कभी आसमानी या पीला

पर माँ को शायद बहुत पसंद था रंग गुलाबी

बाबू की धोती, पाग और बकरी के मेमनों

को रंगती रही गुलाबी

उसी माँ के आँगन में लकड़ी की ओखली

में मैं छिपा कर रखता था

पके बेर,जामुन और फालसे

का गुच्छा

कभीकभी किसुनभोग आम भी

वही कनेर पेड़ के पास गाड़ दिया था

टूटे फाउंटेन पेन को

कि कभी तो कलम का पेड़ उगेगा

मखाने के पोखर के पास

एक काँटा चुभा था पैर में

और एक फूल सी लड़की

पर पहली बार

नजर वहीं ठहरी थी

लिखता पढ़ता

लड़ता उलझता

समझता बूझता आज

आ गया हूँ कितनी दूर

घहराती घूमती लयबद्ध

घर्रघर्र करती जाँता

ये जाँता नहीं

मेरे माँ का दो टूक कलेजा है

कितनी स्मृतियाँ रख दी पीस कर

सूई सी घुमती यह जाँता

बीस बरस से बना विदेशिया !

कब लौटेगा बेटा?

माँ ठंड में प्रतीक्षा की घुनी जलाती होगी

कितने सालों से नहीं मिला मैं!

तीन सौ पैंसठ दिन का एक बरस था

पर हर दिन में आठ पहर था

कितने पहरों का इंतजार था माँ का

मैं निर्वासित कवि हूँ

एक सुंदर देश का

कल मुझ से मिलने मेरे अतीत का सहचर आया था

वह केतली सा भरा था गर्म स्मृतियों से

खौलती स्मृतियों को वह मेरे भीतर उड़ेल रहा था

मैं कमजोर प्लास्टिक की कप सा पिघल कर विकृत हो गया

स्मृतियाँ फैल गयी थी इधरउधर

मैंने एक ताप और उदास भाँप

बहुत भीतर ,बहुत दिनों

बाद महसूस की।

बाहर बर्फबारी हो रही है

शीशे को पोंछती प्रेमिका कह रही है।

मेरे मुँह से भाप निकल रही है

इंजन रुक गयी है

छुकछुक बंद है

पटरी गाँव से होकर गुजरती है

मगर भाप वाले इंजन नहीं चलते अब वहाँ

मेरे मन के कुछ महीन मुलायम धागे

आज भी बँधे मिलेंगे

बगान के सबसे बड़े आम पेड़ की सबसे झुकी टहनी पर

और मैं मिलूँगा माँ के साथ बैठकर जाँते में स्मृतियाँ पीसता

जँतसार से गूँज उठेंगी चहुँ दिशाएँ

बोल कुछ ऐसे होंगे

बीसो बरिसवा पर लौटे न मोरा बेटवा हो

—अनामिका अनु

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