fundingनोटबंदी के बाद हुई लोगों की परेशानी के बीच मीडिया और सोशल मीडिया में यह आवाज उठी कि जब आम लोगों की कमाई और पैसों के हिसाब को लेकर सरकार इतने नियम बना रही है, फिर राजनीतिक दलों को चंदे के जरिए खुला खेल खेलने की छूट क्यों दी गई है. शायद इसी का असर था कि प्रधानमंत्री को इस मामले में सफाई देनी पड़ी.

19 दिसंबर 2016 को कानपुर की चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘राजनीतिक दलों के खिलाफ अविश्वास है. इसलिए यह हमारी जिम्मेदारी है कि लोगों को हम अपनी ईमानदारी पर भरोसा दिलाएं. मैंने इस पर चर्चा करने के लिए कहा है कि राजनीतिक दलों को किस तरह से चंदा लेना चाहिए.

मैं चुनाव आयोग से इसे आगे बढ़ाने और दलों पर दबाव डालने का आग्रह करता हूं. देश के हित में जो भी फैसला लिया जाएगा, हमारी सरकार उसे लागू करेगी.’ प्रधानमंत्री के इस बयान और इस मामले में सरकार के कदमों की तुलना की जाय तो स्पष्ट विरोधाभास नजर आता है.

पहला तो यही कि इस मामले में कोई भी फैसला लेने की नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी भी सरकार की ही है, तो फिर प्रधानमंत्री किसे फैसला लेने के लिए बोल रहे हैं. इससे पहले 2015 में तो भारत सरकार ने राजनीति दलों को आरटीआई के दायरे में लाने का खुलेआम विरोध किया था.

19 मई 2015 को सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी कि कोर्ट केंद्रीय सूचना आयोग के उस फैसले को लागू कराए, जिसमें राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने की बात कही गई है.

इसके जवाब में 21 अगस्त 2015 को भारत सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में कहा गया कि सरकार राजनीतिक दलों को आरटीआई के अंतर्गत लाने का विरोध करती है. अगर राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में आ गए होते, तो चंदे के नाम पर कालेधन का खुला खेल ही बंद हो जाता. हालांकि चंदों में पारदर्शिता को लेकर जो दूसरे नियम बने, उनमें भी सियासी सह पर अव्यवस्था साफ नजर आती है.

इलेक्टोरल ट्रस्ट में फर्जीवाड़ाः राजनीतिक पार्टियों और कॉर्पोरेट कंपनियों के बीच चंदे के लेन-देन में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने 2013 में इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने की अनुमति दी थी. इसके लिए एक गाइडलाइन भी जारी की गई थी.

हालांकि 2013 से पहले भी कुछ इलेक्टोरल ट्रस्ट थे, जो राजनीतिक पार्टियों को चंदा दिया करते थे. इन ट्रस्ट्स को 2013 के गाइडलाइन से दूर रखा गया, जिससे इन्हें पैसों का खुला खेल खेलने का छूट मिल गया. ये ट्रस्ट चंदों के वितरण में सीबीडीटी के मानकों का भी पालन नहीं करते हैं.

ऐसे छह इलेक्टोरल ट्रस्ट के ऊपर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने भी सवाल उठाया था. एडीआर ने कहा था कि इनकी कार्यप्रणाली को देखकर लगता है कि ये या तो कर-मा़फी के लिए बनाए गए हैं या काला धन को सफेद करने के लिए. हालांकि ये सभी ट्रस्ट राजनीतिक दलों को बड़ी मात्रा में चंदा देते रहे हैं, लेकिन उसका हिसाब नहीं देते. एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार इन छह इलेक्टोरल ट्रस्ट ने 2004-05 से 2011-12 के बीच राजनीतिक दलों को 105 करोड़ का चंदा दिया.

लेकिन किसी भी ट्रस्ट ने यह नहीं बताया कि उसके पास इतनी रकम आई कहां से. इन छह में से एक ट्रस्ट ने तो केवल 2014-15 में अकेले ही सात पार्टियों को 131.65 करोड़ का चंदा दिया है. लेकिन इसने भी कोई जानकारी नहीं दी है कि उसे किन कंपनियों से या कहां से इतने पैसे मिले. एडीआर ने मांग की थी कि चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए इन ट्रस्ट को भी 2013 के नियमों के दायरे में लाना चाहिए और इन पर दबाव बनना चाहिए कि वे उन कंपनियों का नाम सार्वजनिक करें जिनसे उन्हें चंदा मिला.

चुनावी चंदे के नाम पर कालेधन का खुला खेल खेलने वाले इन ट्रस्ट पर केंद्रीय सूचना आयोग ने भी कड़ा रुख अख्तियार किया है. पिछले महीने ही केंद्रीय सूचना आयोग ने आयकर विभाग को आदेश दिया कि 2003-04 के बाद बने इलेक्टोरल ट्रस्ट के नामों की सूची सार्वजनिक की जाय. साथ ही यह भी बताया जाय कि क्या उन्हें टैक्स में कोई छूट मिली है. आयोग ने ट्रस्ट को प्राप्त दान राशि के वितरण के ब्योरे की भी मांग की है.

हमाम में सब नंगे हैंः एडीआर ने पिछले दिनों ही एक रिपोर्ट जारी किया. इस रिपोर्ट के आंकड़े स्पष्ट दिखाते हैं कि राजनीतिक चंदे के नाम पर किस तरह से पर्दे के पीछे पैसों का खुला खेल चल रहा है. 24 जनवरी को जारी किए गए इस रिपोर्ट में एडीआर ने कहा है कि 2004-05 से 2014-15 के दौरान राजनीतिक दलों को कुल 11 हजार, 367 करोड़ 34 लाख रुपए चंदे के रूप में मिले.

जिनमें से 7 हजार 855 करोड़ की राशि अज्ञात स्त्रोतों से मिली है. गौरतलब है कि अब तक यह नियम था कि 20,000 से ज्यादा के चंदे का ही हिसाब देना पड़ता था. इसलिए दलों ने अपनी 69 फीसदी कमाई को 20,000 से कम के चंदे में ही दिखा दिया.

इन 11 सालों के दौरान कांग्रेस को 3 हजार 323 करोड़ अज्ञात स्त्रोतों से मिले, वहीं इस दौरान भाजपा का बेनामी चंदा 2 हजार 125 करोड़ 95 लाख है. क्षेत्रीय दलों की बात करें, तो इस दौरान समाजवादी पार्टी को 766.27 करोड़ रुपये जबकि शिरोमणि अकाली दल को 88.06 करोड़ रुपये अज्ञात स्रोतों से मिले. मायावती की पार्टी बसपा ने तो अपने पूरे चंदे को ही अज्ञात स्त्रोतों से मिला हुआ बता दिया.

यह हैरान करने वाली बात है कि स्त्रोत दिखाए गए चंदे की राशि मात्र 1 हजार 835 करोड़ है. एडीआर की इस रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 के दौरान राष्ट्रीय दलों को अज्ञात स्रोतों से हुई आमदनी 274.13 करोड़ रुपये थी, जो 2014-15 में बढ़कर 1,130.92 करोड़ रुपये हो गई. इस दौरान क्षेत्रीय दलों की आय भी 37.393 करोड़ रुपये से बढ़कर 281.01 करोड़ हो गई.

राजनीतिक चंदे के नए नियम भी नाकाफी हैं

बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दो ऐसे कदमों का ऐलान किया, जिन्हें राजनीतिक दलों के चंदों में पारदर्शिता के लिए कारगर बताया गया. लेकिन पड़ताल करने पर पता चलता है कि पारदर्शिता के मामले में इनकी भी सार्थकता नाम मात्र की ही साबित होगी. एक तरफ तो वित्त मंत्री जी ने कैश में लिए जाने वाले चंदे की सीमा घटाकर 2,000 कर दी, वहीं दूसरी तरफ चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदे में राजनीतिक दलों की मनमानी का एक नया विकल्प खोल दिया.

बजट पेश करते हुए अरुण जेटली ने कहा कि सरकार ने राजनीतिक वित्त पोषण में पारदर्शिता लाने के लिए निर्वाचन आयोग की सिफारिशें मान ली है. अब राजनीतिक दल चेक और डिजिटल भुगतान के जरिए ही 2,000 रुपये से अधिक का चंदा ले सकते हैं. वित्त मंत्री ने यह भी कहा कि यह सुधार राजनीतिक वित्त पोषण में काफी पारदर्शिता लाएगा और आगे कालेधन पर रोक लगाएगा.

लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो, इस कदम में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसके जरिए चुनावी चंदों में पारदर्शिता लाई जा सकती है. जिस तरह से दलों ने पुराने नियम का तोड़ निकाला और अपनी अधिकांश कमाई को 20,000 से कम की राशि में ही दिखाया था.

उसी तरह से इस नए नियम को भी राजनीतिक दल ताक पर रख सकते हैं. सियासी पार्टियों के सामने यह विकल्प खुला रखा गया है कि वे अलग-अलग नामों से रसीद कटाकर 2,000 से कम में कितना भी चंदा ले सकते हैं. इसलिए उनके लिए यह मुश्किल नहीं कि वे अपने अधिकांश चंदे को 2,000 से कम की राशि में ही मिला हुआ दिखा दें. दूसरे कदम के रूप में अरुण जेटली ने यह कहा कि सरकार ने चुनावी बॉन्ड जारी करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक कानून में संशोधन का प्रस्ताव किया है.

दानदाता चेक के जरिए बॉन्ड खरीद सकते हैं. यह धनराशि संबंधित राजनीतिक पार्टी के पंजीकृत खाते में चली जाएगी. बजट पेश होने के अगले ही दिन राजस्व सचिव का एक बयान आया कि चुनावी बॉन्ड के जरिए राजनीतिक पार्टियों को मिले हुए चंदे को गोपनीय रखा जाएगा. साथ ही बॉन्ड के जरिए चंदा देने वाले व्यक्ति की पहचान सार्वजनिक नहीं की जाएगी. यानी, पहले वाले नियम में तो समीक्षा के बाद भी लूपहोल है ही, इस नए नियम के द्वारा भी राजनीतिक दलों को मनमानी के लिए स्वतंत्र रखा गया है.

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