11जब मैं लेबर पार्टी में शामिल हुआ था, तो उस समय मुझे यह समझाया गया था कि मैं किस तरह संसद पहुंच सकता हूं. इसका मतलब यह था कि मैं भावी उम्मीदवारों की सूची में किस तरह अपना नाम शामिल कर सकता था. उसके बाद यह देखना कि आसपास के संसदीय क्षेत्र में कौन सी सीट आगामी चुनाव में खाली है, जिससे संसदीय उम्मीदवार बना जा सके. आपको आवेदन करना होता था और अगर आपका नाम सौभाग्यशालियों में होता था, तो फिर आपको दूसरे प्रतिभागियों से प्रतियोगिता करनी होती थी. उम्मीदवार का चुनाव पचास या उससे अधिक प्रतिनिधि, जो उस संसदीय क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों से आए होते थे, करते थे. अगर आप जीत जाते थे, तो उसके बाद आप उम्मीदवार बनते थे, लेकिन इस जीत के बावजूद अगर अगली बार आपको खड़ा होना हो, तो फिर उसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था.
यह बात मैंने इसलिए बताई, क्योंकि हाल में राहुल गांधी ने कुछ सीटों के लिए प्राथमिक प्रक्रियाओं की बात की थी, जहां पर कांग्रेस पार्टी अक्सर असफल हो जाती थी. भारत में पार्टी के भीतर लोकतंत्र जैसी चीज का कोई चलन नहीं रहा है. पार्टियों में सक्रिय सदस्यता का कोई प्रावधान नहीं है, जिससे चुनावों के दौरान भी सदस्य आपस में लगातार बैठकें करते रहें. सदस्य पार्टी की नीतियों पर चर्चा नहीं करते और न वे पार्टी की नीतियों पर ़फैसले लेते हैं. सालाना बैठकों में कोई बहस या राजनीतिक मुद्दों पर बेहतर विकल्प को लेकर कोई बात नहीं होती. किसी मामले पर पार्टी के सदस्यों द्वारा वोटिंग का कोई प्रावधान नहीं है. भारत में हर पार्टी में बेहद केंद्रीयकृत संरचना है. उम्मीदवारों की घोषणा पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा की जाती है. गांधी नगर या वाराणसी के भाजपा कार्यकर्ता इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकते कि वे किसे अपनी संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाना चाहते हैं.
आख़िर ऐसा अंतिम बार कब हुआ था, जब अमेठी में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने अपने संसदीय उम्मीदवार के प्रदर्शन और हाजिरी पर चर्चा करने के लिए कोई बैठक की हो? आख़िर इस संसदीय क्षेत्र की पार्टी यूनिट के साथ कितनी बैठकों में राहुल गांधी सम्मिलित हुए? निश्‍चित रूप से यह राहुल गांधी की गलती नहीं है कि वह अपनी ही पार्टी का इतिहास नहीं जानते हैं. महात्मा गांधी ने कांग्रेस पार्टी बड़ी संख्या में लोगों की सदस्यता लेकर बनाई थी. ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी में शामिल होने के लिए ज़िला स्तर से भी प्रतिनिधि आते थे. कांग्रेस का वार्षिक अध्यक्ष एआईसीसी द्वारा ही चुना जाता था. हालांकि गांधी जी की भी उसमें अपनी पसंद होती थी. जैसा कि सुभाष चंद्र बोस के समय में हुआ था, लेकिन पार्टी की यह लोकतांत्रिक प्रतिनिधियों वाली संरचना चुनावों में प्रभावी नहीं होती थी.
1937 में जब पहली बार चर्चित चुनाव लड़े गए, उस समय सरदार पटेल संसदीय बोर्ड के चेयरमैन थे और उम्मीदवारों का चयन पूरी तरह से केंद्रीयकृत कर दिया गया था. बाकी जो थोड़ा-बहुत बचा हुआ था, उसे इंदिरा गांधी ने ख़त्म कर दिया था. इस समय भी सारी पार्टियां उसी तरह व्यवहार कर रही हैं. किसे कौन सी सीट मिलेगी, यह पार्टी का चुनावी बोर्ड तय करता है. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का सीटों को लेकर बवाल करना त्रासदी से ज़्यादा एक मजाक लगता है. सबसे खराब तो तब लगता है, जब एक बड़ी पार्टी के नेता उस तरह से विरोधी हो जाते हैं, जैसा कि मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद करते हैं. सभी पार्टियों में भ्रष्टाचारी हैं, दूसरी पार्टियों के छोड़े हुए लोग भी हैं. ऐसे फिल्म स्टार भी हैं, जिनका कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है या फिर सेवानिवृत्त नौकरशाह और सेना के अधिकारी भी हैं.
यह बात मायने नहीं रखती कि ये उम्रदराज नेता किस पार्टी में जाएंगे. पार्टियों के पास कोई सक्रिय राजनीतिक सदस्यता नहीं है, केवल पद की चाहत रखने वालों की भरमार है. इसलिए आख़िरी समय के नाटकों के बावजूद कोई भी इन सब मामलों पर उंगली नहीं उठाने जा रहा है. ऐसा ही अगली बार चुनाव में भी होगा. इस मामले में आम आदमी पार्टी तो वास्तविक रूप से बहुत दु:खी करने वाली पार्टी है. ऐसा कहा जाता है कि यह पार्टी सत्ता के विकेंद्रीकरण और लोगों को ताकत देने में भरोसा रखती है. दिल्ली के हर मोहल्ले का अपना मेनिफेस्टो था, इसके लिए सलाह भी ली गई थी, लेकिन एक राष्ट्रीय पार्टी बनने की जल्दबाजी में मूलभूत सिद्धांतों को भुला दिया गया. यह बिल्कुल वैसा है, जैसा अन्य पार्टियां उम्मीदवारों के चयन में करती हैं. आम आदमी पार्टी ने संसदीय क्षेत्रों की यूनिटों के अपने कार्यकर्ताओं से कोई सलाह नहीं ली, जबकि वे पार्टी की नीतियों की चर्चाएं भी करते हैं. उम्मीदवारों का चयन पार्टी के सदस्यों के मुताबिक नहीं हुआ.
फेसबुक पर एक चर्चित एकाउंट होना या ट्वीटर पर कोई चर्चित एकाउंट होना सीट की उम्मीदवारी का हक़ नहीं देता. कोई आश्‍चर्य नहीं है कि दिल्ली में आप कार्यकर्ता खुद को बहुत दु:खी महसूस कर रहे हैं. यहां तक कि एक बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी बनने की संभावनाएं भी क्षीण हो रही हैं. यह स़िर्फ अरविंद केजरीवाल की पार्टी और उन्हीं का वन मैन शो बनकर रह गई है. हालांकि, यह चुनाव नए भारत के लिए स़िर्फ एक चुनाव भर हैं. मतदाता का तंत्र से मोहभंग हो गया है. संभव है कि मतदाता चुनाव में किसी स्थानीय चेहरे को ज़्यादा पसंद करें, बजाय किसी बाहरी नेता के. शायद लोकतंत्र भारत में अब आए. चलिए, इस बात की आशा करते हैं.

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