जिन्ना ऐसा देश नहीं चाहते थे जो धर्म के आधार पर चले. वे धार्मिक इंसान नहीं थे और इस्लाम की विचारधार पर बहुत ध्यान नहीं देते थे. देवबंद के भक्त मुसलमान और दूसरी संस्थायें मुस्लिम स्टेट की विचारधारा के खिलाफ थीं क्योंकि यह इस्लाम की विचारधारा के ख़िलाफ था. जिन्ना एक उदारवादी संवैधानिक राष्ट्र चाहते थे. जिसमें मुसलमानों का आधिक्य हो.

sdsfsdहाफिज सईद ने हाल ही में कहा था कि पाकिस्तान की स्थापना एक इस्लामिक राष्ट्र के रूप में हुई थी जहां भविष्य में शरिया कानून लागू होना था. वे वर्तमान प्रारूप से बुरी तरह खफा हैं इसकी वजह से पाकिस्तान के इस्लामिक स्टेट बनने में दिक्कतें आ रही हैं. इमरान खान भी दूसरे कारणों से सिस्टम से खफा हैं.
बांग्लादेश लिबरेशन के दौरान जंग में मिली हार की वर्षगांठ पर पाकिस्तान के स्वरूप को लेकर विचार करने का समय आ गया है. इसपर विचार करने पर हमें इस बात की जानकारी भी मिल सकती है कि आखिर देश अपने आपको बर्बाद कैसे करते हैं. किसी भी अन्य बात से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आखिर कैसे देश आखिर अपने राष्ट्रवाद को परिभाषित करते हैं. जिसमें इतिहास के भीतर काफी ग़डब़िडयां नज़र आती हैं.
मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य थे. वे एक उदार कांस्टीट्यूशनलिस्ट थे. जो गोपाल कृष्ण गोखले की परंपरा के थे और उन्होंने कोर्ट में बाल गंगाधर तिलक का केस भी लड़ा था. 1916 में लखनऊ में कांग्रेस की एक मीटिंग में वह हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए थे. वे गांधी जी द्वारा खिलाफत आंदोलन की शुरुआत करने से दुखी थे. उन्होंने खिलाफत का समर्थन नहीं किया था. वे आधुनिकतावादी पहले थे और मुसलमान बाद में. इसके बाद उन्होंने राजनीति छोड़ दी और लंदन जाकर वकालत करने लगे.
यही वह समय था जब उन्होंने अपने राष्ट्र की कल्पना को साकार किया. पूरे यूरोप में उस समय नए राष्ट्र बन रहे थे. ये सारी होमोजीनियस कम्यूनिटी थीं, जिनकी भाषा एक थी. उस समय बने नए यूरोपीय देशों के की एक ही भाषा थी और एक ही इतिहास. जिन्ना ने अपने राष्ट्र का विचार यहीं से उठाया, लेकिन उनका मूल आधार धर्म था. वे अंग्रेजों के जाने के बाद अल्पसंख्यकों के लिए कुछ अधिक अधिकार वाला एक राष्ट्र चाहते थे. जहां उनके अधिकार उन्हें पूरी तरह मिल सकें. लेकिन उन्हें मिला एक नेशन स्टेट.
जिन्ना ऐसा देश नहीं चाहते थे जो धर्म के आधार पर चले. वे धार्मिक इंसान नहीं थे और इस्लाम की विचारधार पर बहुत ध्यान नहीं देते थे. देवबंद के भक्त मुसलमान और दूसरी संस्थायें मुस्लिम स्टेट की विचारधारा के खिलाफ थीं क्योंकि यह इस्लाम की विचारधारा के ख़िलाफ था. जिन्ना एक उदारवादी संवैधानिक राष्ट्र चाहते थे. जिसमें मुसलमानों का आधिक्य हो.
उनकी मौत के बाद एक राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान का विचार ढहना शुरु हो गया. ब्रिटिश भारत में रह रहे अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान गए ही नहीं. उन्होंने पंजाबी, पठान और पश्‍चिमी पाकिस्तान की सिंधी भाषा या संस्कृति को साझा नहीं किया. उन्होंने बंगाली बोलने वाले मुसलमानों को अपना भाई-बहन माना ही नहीं. पाकिस्तान 1971 में दो भागों में टूट गया. फिर भी इसकी समस्याएं खत्म नहीं हुईं. एक राष्ट्र के रूप में यह लोकतंत्र और तानाशाही के बीच लटकता रहा. चार अलग-अलग क्षेत्रों को एक राष्ट्र के रूप में बांधने का कोई उपाय नहीं है. उसके पास कोई ऐसा नेता नहीं है जो समावेशी विकास और जुड़ाव की बात कर सके. पाकिस्तान में ललोतंत्र के कमजोर होने का यही कारण है.
इस्लामबाद के उदय के बाद से ही इसे आतंकवादियों की आंतरिक तोड़-फोड़ का सामना करना पड़ रहा है जो पाकिस्तान को धर्म के हिसाब से चलाना चाहते हैं, यही वजह है कि पाकिस्तान, उत्तर-पश्‍चिम पाकिस्तान में तालिबान के साथ युद्ध की स्थिति में है. लेकिन तालिबान राष्ट्र का निर्माण नहीं करता है. वे कुछ कट्टर अल्पसंख्यकों द्वारा बाकी पर शासन करना चाहते हैं. अगर सेना हस्तक्षेप न करे तो तालिबान आम जनता के ऊपर अपने विचार थोपना शुरु कर देगी.
राष्ट्रीयता की कमजोरी ही पाकिस्तान में सभी पक्षों को भारत के साथ दुश्मनी करने के लिए प्रेरित करती है और कश्मीर को इसके लिए एक कारण बनाती है. राष्ट्र के रूप में कई वजहों से एक अपूर्ण प्रोजेक्ट बन कर रह गया है इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है धर्म. यहां तक कि एक अद्वैतवादी भी अलग-अलग भाषाओं में बोलने और विभिन्न ऐतिहासिक विरासत वाले लोगों को साथ नहीं बांध सकता. कश्मीर जमीन का ऐसा टुकड़ा है जो सभी पाकिस्तानियों को ललचाता है.
यह एक दूर का सपना है और वे जानते है कि वे इसे कभी हासिल नहीं कर पायेंगे. यह मानना मुश्किल है कि जमीन का यह टुकड़ा चार भाषाओं और क्षेत्रों में असमान रूप से बंटे एक राष्ट्र को एक साथ ला सकता है.

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