नई दिल्ली: वित्त मंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता वाले केंद्रीय मंत्रियों के समूह (जीओएम) ने बदलाव के कुछ सुझावों के साथ राष्ट्रीय मेडिकल आयोग बिल (2017) के मसौदे को अपनी मंज़ूरी दे दी है. अब इस बिल को संसद की मंजूरी के लिए भेजा जाएगा. संसद की मंजूरी के बाद राष्ट्रीय मेडिकल आयोग, वर्ष 1956 ने पारित मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया अधिनियम की जगह ले लेगा.

इस मसौदे के खिलाफ इंडियन मेडिकल कौंसिल ने देश के अलग-अलग हिस्सों में विरोध कर इसके कई प्रावधानों पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी. गौरतलब है कि पिछले वर्ष नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया की अध्यक्षता में बनी चार सदस्यीय समिति द्वारा राष्ट्रीय मेडिकल आयोग (एनएमसी) विधेयक का मसौदा तैयार किया गया था. इस विधेयक को सार्वजनिक कर इसपर आम जनता और मेडिकल व्यवसाय से जुड़े अलग-अलग हितधारकों से सुझाव मांगे गए थे.

देश में मेडिकल शिक्षा और उच्च गुणवत्ता वाले डॉक्टर मुहैया कराने, अत्याधुनिक शोध को अपने कार्य में सम्मिलित करने और मेडिकल संस्थाओं का समय-समय पर निरीक्षण करने से संबंधित कई प्रस्ताव इस नेशनल मेडिकल कमीशन में रखे गए हैं. नए विधेयक के मुताबिक, एमबीबीएस ग्रेजुएट्स को डॉक्टरी की प्रैक्टिस का लाइसेंस हासिल करने के लिए एक एग्जिट परीक्षा पास करनी होगी. ये परीक्षा पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्सेज में दाखिले के लिए नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट (नीट) का भी काम करेगी. इस विधेयक में चार स्वायत बोर्ड गठित करने का प्रावधान किया गया है.

स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा के संचालन, मेडिकल संस्थानों की रेटिंग और निरीक्षण, डॉक्टरों का रजिस्ट्रेशन और मेडिकल एथिक्स को लागू करना इस बोर्ड की जिम्मेदारी होगी. हालांकि नीति आयोग द्वारा तैयार किए गए मसौदे में आयोग के सदस्यों को मनोनित करने पर जोर दिया गया था. इसपर देश के अलग-अलग हिस्सों के डॉक्टरों ने एतराज जताया था, उसके बाद जीओएम ने इस प्रावधान में बदलाव करते हुए इसमें कुछ चयनित सदस्यों को भी शामिल करने की शिफारिश की.

इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद इससे देश में मेडिकल शिक्षा पर दूरगामी प्रभाव तो पड़ेगा, लेकिन इससे स्वास्थ्य सेवाओं में किसी विशेष बदलाव की गुंजाइश नज़र नहीं आ रही. आज आवश्यकता इस बात की है कि देश में सबको गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध काराई जाए. देश के अलग-अलग हिस्सों से आने वाली स्वास्थ्य सेवा सम्बन्धी ख़बरों पर एक सरसरी नज़र डालने से ही ये अंदाज़ा हो जाता है कि स्थिति कितनी बदहाल है.

इन खबरों द्वारा सामने आए सवालों का जवाब मौजूदा विधेयक के मसौदे में नहीं है. देश में ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य सेवा तो पहले से ही चरमराई हुई है. इधर व्यवसायीकरण ने इलाज इतना महंगा कर दिया है कि गरीब आदमी किसी निजी अस्पताल में इलाज करवाने की सोच भी नहीं सकता है. निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए मुफ्त इलाज का जो प्रावधान है, उसे भी अस्पताल प्रबंधन ने पैसे कमाने की लालच में छीन लिया है. इस काम में देश के बड़े-बड़े और प्रसिद्ध अस्पताल शामिल हैं. पिछले साल दिल्ली के पांच निजी अस्पतालों (मैक्स सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, फोर्टिस एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट, शांति मुकुंद हॉस्पिटल, धर्मशीला कैंसर हॉस्पिटल और पुष्पावती सिंघानिया रिसर्च इंस्टिट्यूट) पर 600 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया गया था.

इन अस्पतालों पर आरोप था कि उन्होंने आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके के मरीजों का इलाज करने से इंकार कर दिया था. लेकिन इस जुर्माने के बाद भी हालात बदले नहीं हैं. अस्पतालों द्वारा इलाज से इंकार की खबरें या इलाज में लापरवाही या केवल पैसे ऐठने के लिए अनावश्यक इलाज के मामले अक्सर खबरों में रहते हैं. अस्पतालों के गैर-जिम्मेदाराना और अमानवीय व्यवहार की उस नंगी और हृदयविदारक तस्वीर को कौन भूल सकता है, जिसमे प्रशासन द्वारा एम्बुलेंस सुविधा मुहैया नहीं कराए जाने के कारण एक गरीब आदिवासी को अपनी मृत पत्नी के शव को 10किलोमीटर तक कंधे पर ढोना पड़ा था. स्वास्थ्य सेवा को लेकर ये विधेयक खामोश है. एथिक्स की बात केवल शिक्षा के स्तर पर है. हालांकि ज़रूरत इस बात की है कि देश में सबके लिए स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराई जा सके.

 

 

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