भारत में एक बहुमुखी, लेकिन असंयमित रंगभेद मौजूद है. किसी भी भारतीय को, चाहे वे पशिचमी देशों में रह रहे हों या भारत में, अगर उन्हें ज़रा भी छेड़ेंगे, तो काले अफ्रीकियों के लिए उनके मन में अपमान की भावना ज़ाहिर हो जाएगी. ख़ास तौर पर जब वे अपनी भाषा में बात करते हैं, जिसे कोई दूसरा समझ नहीं सकता. दरअसल, भारतीय खुद को काला नहीं समझते. किसी मैरिज वेबसाइट या समाचार-पत्रों के मैट्रिमोनइल यह यकीन दिलाने के लिए काफी हैं कि पुरुष मंगल ग्रह से आए हैं और यह कि भारतीय खुद को गोरा-चिट्टा मानते हैं. कम से कम उत्तर भारत की कल्पना में तो यही है. 

04भारतीय जनता पार्टी के नेता गिरिराज सिंह ने विवादित बयान जारी करने में महारथ हासिल कर ली है. उन्होंने अपने हालिया बयान से प्रसिद्ध व्यक्तियों को अपमानित करने के क्रम में एक और कड़ी जोड़ ली है. जो भी हो, उन्होंने जो कहा है उसमें कुछ सच्चाई का अंश ज़रूर है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. मैंने गिरिराज सिंह को यह कहते पढ़ा है कि भारतीय रंगभेदी होते हैं, ख़ास तौर पर तब, जब सवाल काले और सांवले रंग के लोगों का हो तो. उनका ख्याल है कि अगर राजीव गांधी ने एक श्वेत (गोरी) यूरोपीय महिला के बजाय किसी नाइजीरियाई महिला से शादी की होती, तो कांग्रेसी उसे अपना अध्यक्ष कभी नहीं चुनते. ज़ाहिर है, सोनिया गांधी और शेष कांग्रेसी इस बयान से क्रोधित हैं. लालू प्रसाद यादव ने इस बयान के विरोध में जो कहा, वह भी महिला विरोधी था, खास तौर पर सांवले रंग की महिलाओं के लिए. इसके बावजूद सच्चाई यह है कि जब राजीव गांधी ने सोनिया मानिओ से शादी की थी, तो दिल्ली के संभ्रांत वर्ग ने खूब
नाक-भौं सिकोड़ी थी. सोनिया श्वेत ज़रूर थीं, लेकिन क्या सामाजिक हैसियत में वह राजीव गांधी से कम नहीं थीं? वे (लोग) कहते थे कि राजीव गांधी ने एक आया से शादी की है! बाद में भाजपा ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के विचार का बहुत विरोध किया था. ऐसा होने की स्थिति में पार्टी ने गंभीर परिणामों की धमकी दी थी. लिहाज़ा इस तथ्य के बावजूद कि वह नाइजीरियाई नहीं थीं और जीवन के 35 साल भारत में गुजारने के बाद भी उन्हें भारतीय नहीं स्वीकार किया गया.
भारत में एक बहुमुखी, लेकिन असंयमित रंगभेद मौजूद है. किसी भी भारतीय को, चाहे वे पश्चिमी देशों में रह रहे हों या भारत में, अगर उन्हें ज़रा भी छेड़ेंगे, तो काले अफ्रीकियों के लिए उनके मन में अपमान की भावना ज़ाहिर हो जाएगी. ख़ास तौर पर जब वे अपनी भाषा में बात करते हैं, जिसे कोई दूसरा समझ नहीं सकता. दरअसल, भारतीय खुद को काला नहीं समझते. किसी मैरिज वेबसाइट या समाचार-पत्रों के मैट्रिमोनइल यह यकीन दिलाने के लिए काफी हैं कि पुरुष मंगल ग्रह से आए हैं और यह कि भारतीय खुद को गोरा-चिट्टा मानते हैं. कम से कम उत्तर भारत की कल्पना में तो यही है. भारतीय चेतना ऐसी है कि एशिया में रहने के बावजूद हमारी निगाहें पश्चिम की ओर केंद्रित रहती हैं. हमारी कल्पना यूरोपीय कल्पना है. इसके बावजूद जब कोई यूरोपीय भारत के सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनना चाहता है, तो जेनोफोबिया (विदेशियों के प्रति घृणा का भाव) आगे आ जाता है. भारतीयों को पश्चिमी देशों के लोगों से ईर्ष्या तो हो सकती है, लेकिन वे अपने घर पर अपनी श्रेष्ठता दर्ज कराना चाहते हैं. इसलिए इतने वर्षों तक सोनिया के प्रति विस्तृत नेहरू परिवार और कांग्रेस में पूर्वाग्रह जारी रहा. आपको याद होगा कि शरद पवार कांग्रेस से बाहर चले गए थे, क्योंकि वह किसी विदेशी को पार्टी का अध्यक्ष नहीं बनने देना चाहते थे. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की उनके प्रति अकड़ उस समय तक जारी रही, जब तक उन्होंने पार्टी की डूबती नैय्या पार नहीं लगा दी.
बॉलीवुड ने भी इस रवैये का चित्रण किया है. यहां वर्षों से गोरी औरत एक अनोखी चीज़ रही है, जो स्थानीय हीरो को सच्चाई के रास्ते से भटकाने के लिए उस पर डोरे डालती है. किशोर साहू की फिल्म मयूरपंख, जिसमें ओडेटी फर्गुसन थीं या फिल्म शेक्सपियर वाला, जिसमें केंडल बहनें और शशि कपूर थे, किसी को याद नहीं होंगी, लेकिन हिंदी फिल्मों में आपको कोई अफ्रीकी हिरोइन या किसी उप-सहारा देश की पृष्ठभूमि वाली कोई फिल्म नहीं मिलेगी. यहां तक कि सांवली भारतीय हिरोइनें भी दुर्लभ हैं. व्ही. शांताराम ने एक सांवली हिरोइन संध्या को तीन बत्ती चार रास्ता में कास्ट किया था, लेकिन दर्शकों ने उसे पसंद नहीं किया. पौराणिक कथाओं में कृष्ण सांवले हो सकते हैं, लेकिन राधा का गोरा होना ज़रूरी है. इन सबके बावजूद भारतीयों द्वारा अफ्रीकियों को गंभीरता से लेने के और भी कई कारण हैं. नाइजीरिया में अभी-अभी परिवर्तनकारी लोकतांत्रिक चुनाव हुए हैं. स्वतंत्र नाइजीरिया के 55 वर्षों के इतिहास में यह पहला मौक़ा है, जब शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता हस्तांतरित हुई है. नाइजीरिया अफ्रीका का न केवल सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है, बल्कि इसमें सभी उप-सहारा देशों में सबसे पहले एक समृद्ध अर्थव्यवस्था बनने की संभावना मौजूद है. यहां पेट्रोल भंडार मौजूद हैं. यह देश गृहयुद्ध, कुशासन और भ्रष्ट सैन्य शासकों के वर्षों के कुचक्र से निकल आया है. नाइजीरिया का एक लोकतांत्रिक देश बनने का संघर्ष पाकिस्तान से बहुत समानता रखता है. सैन्य शासकों ने देश का कोई भला नहीं किया है. यहां लोकतंत्र को और अधिक मजबूती देने की आवश्यकता है. यह बहुत बड़ा देश है, जो उत्तर के मुस्लिम बाहुल्य और दक्षिण के ईसाई बाहुल्य दो क्षेत्रों में बंटा हुआ है. जिस तरह तालिबान पाकिस्तान के लिए मुसीबत बने हुए हैं, उसी तरह बोको हराम नाइजीरिया के मुसलमानों को आतंकित कर रहा है. फिलहाल नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मुहम्मदु बुहारी को बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. वह 30 साल पहले कुछ दिनों के लिए एक सैन्य तानाशाह थे. उन्होंने अपनी छवि सुधारी और एक नए डेमोक्रेट के तौर पर लोगों के बीच गए तथा उन्हें वोट देने के लिए राज़ी किया. नाइजीरिया के लोगों ने पिछली बातें भुलाकर बुहारी के सुधार के वादों और भविष्य में भ्रष्टाचार मिटाने की उनकी लड़ाई में अपना विश्वास जताया है. दरअसल, यह भारतीयों के लिए जानी-पहचानी बात है. इसलिए गिरिराज सिंह के बयान के बावजूद नाइजीरिया को भारत की तवज्जो और आदर की ज़रूरत है.

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