दिल्ली के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन (आईआईएमसी) के सेमिनार हॉल में पिछले दिनों कश्मीर की मौजूदा स्थिति को समझने और उस स्थिति से निपटने के उपायों पर चर्चा के लिए एक अनौपचारिक राउंड टेबल का आयोजन किया गया. इस चर्चा में पत्रकारों, सिविल सोसाइटी के लोगों, कश्मीरी पंडितों, कश्मीरी नौजवानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और ट्रैक-2 वार्ता में शामिल लोगों का प्रतिनिधित्व रहा. इस चर्चा का आयोजन कश्मीर में युवाओं के बीच काम करने वाली संस्था ‘लहर’ ने किया था. आईआईएमसी के सेमिनार हॉल में लगभाग ढाई घंटे तक चली इस बैठक में कश्मीर समस्या अपनी तमाम जटिलताओं के साथ मौजूद रही.

हालांकि शुरू में ही कहा गया था कि हमें इतिहास में नहीं जाना है, बल्कि कश्मीर में व्याप्त हिंसा के माहौल को कम करने के उपायों पर विचार करना है. लेकिन कश्मीर एक ऐसी समस्या है, जिसपर कोई भी चर्चा शायद इतिहास में गए बिना पूरी ही नहीं हो सकती. लिहाज़ा इस बैठक में भी इतिहास का आना लाजिमी था. कैसे नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को कैद किया, कैसे 370 को कमज़ोर किया गया, कैसे कश्मीर में चुनाव नतीजों को प्रभावित किया गया, कैसे कश्मीरी पंडितों को अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर किया गया, कैसे मिलिटेंसी शुरू हुई और कश्मीर की सूफी परम्परा को कैसे ख़त्म किया गया, इत्यादि सवालों पर चर्चा हुई.

यहां जो सबसे महत्वपूर्ण चर्चा वो इन सवालों से जुड़ी थी कि कैसे कश्मीर में शांति बहाल हो? कैसे नौजवानों को मिलिटेंसी की तरफ जाने से रोका जाए और कैसे उन्हें उस मानसिक तनाव से निकाला जाए? आज घाटी में जो स्थिती है उसके लिए ज़िम्मेदार कौन हैं? क्या कश्मीर समस्या का कोई समाधान मुमकिन है? देश के दूसरे हिस्सों में कश्मीर को लेकर जो सोच है, उसे कैसे बदला जाए? मीडिया का रोल क्या हो? यदि बातचीत की जाए तो किससे- हुर्रियत से, मुख्याधारा की पार्टिर्यों से, सामाजिक संगठनों से, या ज़मीनी स्तर के लोगों से?

छात्रों का मानसिक तनाव

हिंसा की वजह से घाटी के युवाओं, खास तौर से स्कूली बच्चों को काफी मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है. श्रीनगर और पुलवामा के छात्र ओड़ीशा, दिल्ली, कोलकाता या देश के किसी अन्य हिस्सों के छात्रों से अलग हैं, भले ही उनका पाठ्यक्रम एक है या क्लास एक है. कश्मीर, मणिपुर और अफ़ग़ानिस्तान जैसे संघर्ष क्षेत्र के स्कूली छात्रों के लिए काम करने वाली संस्था स्टेप्स की मैनेजिंग ट्रस्टी श्रेया जानी ने इस विषय पर अपना अनुभव सबके सामने रखा.

उन्होंने कहा कि देश के अन्य हिस्सों के छात्रों के पास स्कूल के बाद भी बहुत सारे मौके होते हैं, जहां वे खुद को व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन कश्मीर में स्कूल के बाद लड़कों के पास मस्जिद में जाने या अपने घर में पड़े रहने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं है. श्रेया ने बताया कि कैसे जब स्टेप्स ने अपनी पहल शुरू की थी, तो अपने आसपास के माहौल के कारण मानसिक बोझ से दबे छात्र उनके सेंटर में खुद को हल्का करते थे. यहां कश्मीरी बच्चों और देश के दूसरे हिस्सों के स्कूली बच्चों के बीच मेल-मुलाक़ात बढ़ाने की जरूरत पर भी चर्चा हुई.

संवादहीनता की कमी

हालिया दिनों में कश्मीर पर अब तक जितनी भी ग्राउंड रिपोर्टिंग हुई है या सिविल सोसाइटी के जिन लोगों ने भी घाटी का दौरा किया है, चाहे वो यशवंत सिन्हा की अगुवाई वाली टीम हो या कमल मोरारका का दौरा हो, सबने यह माना है कि वहां के लोगों और शेष भारत के लोगों के बीच संवादहीनता की कमी है. सरकार उनकी नहीं सुनती. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को छोड़ दें, तो अब तक किसी भी सरकार ने इस समस्या के समाधान की दिशा में ईमानदारी से कभी ठोस कदम नहीं उठाया है. कश्मीरी में हिंसा को ताक़त के बल पर रोकना सरकारों की कश्मीर नीति रही है. पत्रकार सुहासनी हैदर ने कश्मीर के हालिया और पूर्व के अनुभवों के आधार पर बताया कि कैसे कश्मीर और भारत के लोगों के बीच सम्पर्क की कमी है.

कश्मीरी लोग चाहते हैं कि यदि उनके साथ कोई नाइंसाफी होती है, तो भारत के दूसरे हिस्से के लोग भी उनके लिए आवाज़ उठाएं. कश्मीर में हालत सामान्य बनाने के लिए 20 साल से प्रयासरत पूर्व एयर फॉर्स अधिकारी कपिल काक ने भी लगभग इन्हीं विचारों को व्यक्त किया और कश्मीरियों से बातचीत को ज़रूरी करार दिया. उन्होंने एक अहम बात यह बताई कि दुनिया के किसी भी हिस्से में काउंटर इन्सर्जेंसी की कार्रवाइयों में सुरक्षा बलों और इन्सर्गेंटस के हताहत होने का अनुपात 1:6 का होता है (यानि एक सुरक्षा बल के जवान पर 6 इन्सेर्जेंट्स मारे जाते हैं) लेकिन कश्मीर में यह अनुपात 1:2 है, जो किसी भी लिहाज़ से बहुत अधिक और नुकसानदह है. यानि शांति सबके लिए हितकारी है.

संघर्ष विराम का सकारात्मक प्रभाव

भारत सरकार द्वारा रमजान के दौरान संघर्ष विराम की घोषणा के बाद कश्मीर में जो एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिला, उसे सबने स्वीकार किया. यहां तक कि कश्मीर से आए लोगों ने भी यह माना कि राजनाथ सिंह की इस पहल का घाटी में एक बड़े तबके ने स्वागत किया है. इस बदलाव को कैसे बनाए रखा जाए, इस पर भी विचार-विमर्श हुआ. एक विचार चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय की तरफ से भी आया. उन्होंने कहा कि कश्मीर में जहां सरकार का लोगों से संपर्क नहीं हो पा रहा है, वहां एक गैर सरकारी प्रतिनिधिमंडल भेजा जाए, जो लोगों से बात कर अपनी रिपोर्ट गृहमंत्री को दे.

बहरहाल, एक तथ्य यह भी है कि कश्मीर में हिंसा का एक दुश्चक्र शुरू हो गया है. एक मिलिटेंट मरता है, तो उसका स्थान लेने के लिए कई नौजवान मिलिटेंसी में शामिल हो जाते हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के साथ जुड़ी पत्रकार आरती टिकूं सिंह ने इसे ‘मिलिटेंसी ऑफ़ माइंड’ का नाम दिया. उन्होंने शेष भारत में कश्मीरियों के प्रति पैदा हो रही दुर्भावना के लिए दोनों पक्षों को ज़िम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा कि यह ठीक है कि एक मिलिटेंट मारा जा रहा है, तो उसका स्थान लेने के लिए दो मिलिटेंट खड़े हो जा रहे हैं, लेकिन यह भी हकीकत है कि यदि कश्मीर में एक सिपाही मारा जाता है और उसकी लाश जब उसके घर आती है, तो उसके सैकड़ों करीबी लोगों में कश्मीरियों के लिए दुर्भावना पैदा हो जाती है. इस दुश्चचक्र को समाप्त करना ज़रूरी है.

मिलिटेंसी की आड़ में भ्रष्टाचार

कश्मीर में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है. वहां मिलिटेंसी की आड़ में भ्रष्टाचार खूब फलफूल रहा है और इसमें सभी पक्ष शामिल हैं. ये विचार थे वरिष्ठ पत्रकार राहुल जलाली के. उन्होंने कहा कि समस्या का समाधान ग्रास रूट स्तर की डेमोक्रेसी में है. उन्होंने पंचायती राज को कश्मीर में लागू करने की वकालत की. उनके मुताबिक, कश्मीर के असल हितधारक हुर्रियत नहीं, बल्कि गांव के सरपंच हो सकते हैं. उन्हें मज़बूत कर उनसे बातचीत की जानी चाहिए. उनके मुताबिक, यह काम भारत सरकार द्वार तय किए गए वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा ने किया है. नौजवानों में फैलते धार्मिक (विशेष रूप से वहाबी) कट्‌टरवाद की भी बात हुई. लेकिन इसपर बैठक में शामिल लोगों का मतभेद देखने को मिला. एक तरफ जहां राहुल जलाली, आरती टिकू सिंह, आदि ने इसका समर्थन किया वहीं सुहासनी हैदर और कपिल काक ने इसपर अपनी असहमति ज़ाहिर की.

बातचीत में समाधान

कश्मीरी पंडितों को उनके घर से निकालने, सेना अधिकारी मेजर गोगोई द्वारा पत्थरबाजों से बचने के लिए मानव शील्ड बनाने और कठुआ की नाबालिग के साथ हुए बलात्कार पर भी गंभीर चर्चा हुई. कश्मीर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर बशीर अहमद ने यह माना कि जब कश्मीरी पंडितों को घाटी से निकालने के लिए वहां के अख़बारों में इश्तहार निकाले जा रहे थे, तो हम खामोश रहे. वो हमारी गलती थी. हमें डरे बिना उसका विरोध करना था, लेकिन हमने नहीं किया. उन्होंने मानव शील्ड और कठुआ बलात्कार मामले पर भी अपनी बात रखी.

बहरहाल, इस बैठक में शामिल हुए विभिन्न क्षेत्रों से संबंध रखने वाले भिन्न मतों के लोगों ने यह माना कि कश्मीरी भी हमारे ही लोग हैं और हमें उनसे संबंध बनाए रखना चाहिए. यह भी कहा गया कि ‘लहर’ के बशीर असद ने जो बैठक यहां बुलाई है, इस तरह की बैठकें कश्मीर में और देश के दूसरे हिस्सों में भी आयोजित की जानी चाहिए, साथ ही कश्मीरी नौजावानों और देश के दूसरे हिस्सों के नौजवानों के बीच अधिक से अधिक विचारों का आदान-प्रदान होना चाहिए. समस्या के समाधान के लिए भी कुछ सुझाव आए, जिसमें 370 को मजबूती देने और कश्मीर को स्वायत्त रखने पर जोर दिया गया. मेजर जनरल (रि) आरएस जामवाल ने कहा कि सेना केवल यथा स्थिति बनाए रख सकती है, समस्या का समाधान नहीं कर सकती. समस्या का समाधान करने के लिए सबसे पहले हिंसा पर विराम लगाना पड़ेगा और बातचीत की ईमानदार कोशिश करनी पड़ेगी.

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