यूपीए सरकार के एजेंडे में बहुचर्चित ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम का स्थान सर्वोपरि रहा है. सरकार इसे अपनी खास उपलब्धियों में भी शुमार करती रही है. इसमें अब वह फेरबदल करने जा रही है. एक ओर तो केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने नरेगा के मद में 39,000 करोड़ रुपये की राशि उपलब्ध कराई है और इसे शानदार कामयाबी बताया है, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण विकास मंत्रालय महत्वपूर्ण जांच से बचने के लिए बिना किसी परामर्श के अधिनियम में बदलाव करने जा रहा है.
जीन ड्रेजी, जो कि केंद्रीय रोज़गार गारंटी परिषद के सदस्य हैं, नरेगा (एनआरईजीए) के कार्यान्वयन की निगरानी कर रहे हैं. वह कहते हैं, पिछले कुछ महीनों में एनआरईजीए-दो के तहत प्रस्तावों की एक व्यापक श्रृंखला जारी की गई है. इन प्रस्तावों में से कुछ बेहद महत्वपूर्ण हैं. इनमें से कई प्रस्तावों की विस्तृत जांच प़डताल और उन पर व्यापक बहस ज़रूरी है. दुर्भाग्यवश, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने इन प्रस्तावों को जिस तरीक़े से लिया, उससे यही लगा कि वह इसकी गंभीर पड़ताल करने से बच रही है. कुछ सीमित मोर्चों, जैसे कि मंत्रालय द्वारा नियंत्रित कुछ कार्यशालाओं को छोड़ दें तो इन प्रस्तावों को स्पष्ट तौर पर जनता के सामने कभी भी नहीं लाया गया. इसके साथ ही एनआरईजीए कर्मचारियों के हित को दरकिनार कर दिया गया. इन प्रस्तावों पर विचार करने के लिए किसी भी विचार-विमर्श या केंद्रीय रोज़गार गारंटी परिषद में श्रमिकों को सार्थक प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया. परिणामस्वरूप, सूखा राहत के एक उपाय के तौर एनआरईजीए के संभावित इस्तेमाल और समय पर मज़दूरी के भुगतान जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दे पूरी तरह उपेक्षित रह गए. एक खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो गई, जबकि केंद्रीय सरकार एनआरईजीए के बारे में किसी के भी प्रति पूर्णतः ग़ैर ज़िम्मेदार और भ्रम की स्थिति में खोई नज़र आई.
एक कार्यकर्ता कहते हैं, जिस एनआरईजीए की अनुसूची एक को मैंने 22 जुलाई को संशोधित और अधिसूचित किया है, इस अधिनियम की क़िस्मत बदल देगी. कानून में संशोधन द्वारा निजी ज़मीन पर कार्य के लाभ को छोटे और सीमांत किसानों तक विस्तारित कर दिया गया. इसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों, ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे परिवारों, भूमि सुधार और इंदिरा आवास योजना के लाभान्वितों, कृषि ऋण मा़फी, ऋण राहत योजना 2008 के अंतर्गत परिभाषित छोटे और सीमांत किसानों की ज़मीन पर सिंचाई सुविधा, बागवानी तथा भूमि विकास आदि के बारे में ज़िक्र किया गया है. निखिल डे जैसे कार्यकर्ता इस संशोधन की आलोचना करते हैं कि यह ऐसे व़क्त पर हो रहा है, जब पूर्ववर्ती प्राथमिकता समूह की ज़मीन पर नरेगा का काम संतृप्तता के स्तर तक  पहुंच भी नहीं पाया है. नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन के एनी राजा के मुताबिक़, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की ज़मीन पर नरेगा के अंतर्गत 20 फीसदी से भी कम कार्य हुए हैं. 80 फीसदी से ज़्यादा कृषि भूमि छोटे और सीमांत किसानों से जुड़ी है. इन्हें अगर उस सूची में शामिल करते हैं तो वे भी कालांतर में हाशिए पर पहुंच जाएंगे.
अखिल भारतीय कृषि कामगार संघ के धीरेंद्र झा कहते हैं कि देश का सामाजिक समीकरण बदल रहा है, क्योंकि गांव के ग़रीबों को अपना ठगा जाना मंजूर नहीं है. नरेगा के हर स्तर पर उन्हें लड़ाई लड़नी है. अगर आप अनुसूचित जाति व जनजाति के अलावा किसी और को शामिल करने के लिए इस सूची को खोल देते हैं तो भारत में जाति का जो समीकरण है, उसमें प्रभाव वाले समुदाय जैसे कि उच्च जाति के हिंदू ही सारा फायदा उठा ले जाएंगे. जो समुदाय हाशिए पर हैं, वे दूसरों को धनी करने के लिए मज़दूरी ही करते रह जाएंगे.

23 नवंबर को लोकसभा में पी बलराम नायक के एक सवाल के जवाब में ग्रामीण विकास मंत्री सी पी जोशी ने कहा कि वर्ष 2006-07 में कुल रोज़गार के मौक़ों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की भागीदारी 61 फीसदी थी. ठीक इसी तरह 2007-08 में यह भागीदारी 56 फीसदी और 2008-09 में 54 फीसदी थी. जहां तक वर्ष 2009-10 की बात है तो अक्टूबर 2009 तक अनुसूचित जाति और जनजातियों की भागीदारी 51 फीसदी थी. उक्त आंकड़े स्पष्ट बताते हैं कि नरेगा के अंतर्गत सृजित रोज़गारों के लाभान्वितों में अनुसूचित जाति और जनजाति की भागीदारी में गिरावट दर्ज़ की गई है.

ठीक इसी तरह महाराष्ट्र से स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर सांसद चुने गए राजू सेठी, जो किसान जागृति मंच से भी जुड़े हैं, कहते हैं कि जो लोग छोटे और सीमांत किसानों को इसमें शामिल करने के फैसले का विरोध कर रहे हैं, वे ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं जानते हैं. नरेगा के अंतर्गत मज़दूरी की दर बढ़ा दी गई है. ऐसा कृषि उपज की उत्पादन लागत में वृद्धि के कारण किया गया है. इसने किसानों को पीछे धकेला है. हमारी अर्थ व्यवस्था कृषि पर आधारित है, इसलिए अगर आप कृषि को बढ़ावा देने के लिए मदद करते हैं तो आप पूरी अर्थ व्यवस्था के विकास को खत्म करते हैं!
निखिल डे कहते हैं कि अगर कोई यह कहता है कि नरेगा ने मज़दूरी की दर बढ़ा दी है तो यह इस अधिनियम के प्रति उसका सबसे बड़ा उद्गार है. यह हक़ीक़त है कि अगर किसानों को पर्याप्त मुना़फा नहीं होता है तो यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह फायदे को ब़ढाने वाले नए कार्यक्रम लाए, न कि अधिनियम को ही कमज़ोर कर दे. यह देश की हर समस्या का समाधान नहीं है. नरेगा को किसी खास मक़सद के लिए शुरू किया गया था, मांग पर काम उपलब्ध कराने के लिए. इसे रोजगार सृजित करने वाली योजना ही बनाए रखना चाहिए. सरकार कई दूसरी बुनियादी और विकासात्मक योजनाओं के साथ नरेगा में बदलाव के लिए जो प्रस्ताव लाई है, वह इसकी मूल प्रकृति के लिए खतरा है. 23 नवंबर को सी पी जोशी ने संसद में कहा था कि टास्क फोर्स के सुझाव जो कि नए काम को शामिल किए जाने के संबंध में दिए गए थे, मुख्यतः सामाजिक बुनियाद और उत्पादकता बढ़ाने के संबंध में थे. निखिल डे कहते हैं कि इस बारे में पूरी अस्पष्टता है. निर्माण कुशल मज़दूरों की मांग करता है और नरेगा के कामों में मशीन की ज़रूरत पड़ती है. यह नरेगा के मुख्य उद्देश्य को खत्म कर देता है. इससे निजी क्षेत्र के ठेकेदारों और दूसरे स्वार्थी तत्वों के प्रवेश की गुंजाइश बढ़ जाती है. ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की सफलता लोगों के अधिकारों की दृढ़ सुरक्षा और मज़दूरों पर ध्यान केंद्रित करने पर निर्भर करती है. बुनियादी एवं विकासात्मक योजनाओं के  साथ घालमेल पारदर्शिता और जवाबदेही को ऩुकसान पहुंचाता है.
कई ऐसे भी हैं, जो सरकारी नज़रिए से सहमति जताते हैं. केरल के वित्त मंत्री थॉमस इजाक भी उनमें से एक हैं. वह कहते हैं कि केरल जैसे राज्यों में ज़्यादातर नोडल गतिविधियां अर्द्ध शुष्क क्षेत्रोन्मुखी होने के कारण उनके लिए सही नहीं हैं. मेरे राज्य में नरेगा के कामों के लिए लोगों की ज़मीन पर दावा और जल का प्रबंध बहुत ही कठिन है. जबकि दूसरी ओर विकासात्मक गतिविधियों को सूची में अगर शामिल किया जाता है तो इससे उन पारंपरिक उद्योगों को पुनर्जीवित करने में मदद मिल सकती है, जो अभी वैश्वीकरण और उदारीकरण के कारण संकट में हैं. वह कहते हैं कि अगर केंद्र सरकार नरेगा में बुनियादी और विकासात्मक गतिविधियों के साथ बदलाव की योजना बना रही है तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. आख़िरकार आप रोज़गार की गारंटी ही दे रहे हैं, लेकिन साथ ही सरकार को नरेगा क़ानून का दृढ़ता से पालन करने के बारे में आश्वस्त करना होगा. केरल में हम इएमएस हाउसिंग प्रोजेक्ट के तहत सात-आठ लाख घरों का निर्माण कर रहे हैं. हमने केंद्र सरकार से इसे नोडल गतिविधि में शामिल करने का अनुरोध किया है. स्वीकार्य सूची में जो कुछ भी हुआ, वह नौकरशाही का दृष्टिकोण है. रीतिका खेरा नरेगा से जुड़ी हैं. वह कहती हैं कि रोजगार की संभावना को पहले से ही बुनियादी और विकासात्मक गतिविधियां प्रभावित करती रही हैं. अगर आप इसे मिला देते हैं तो इसका सीधा सा मतलब है कि आप सामान्य तौर पर रोज़गार में कटौती कर रहे हैं और यह स्पष्ट रूप से नरेगा के मज़दूरों को दरकिनार करेगा. नरेगा का मतलब क्या है? यह रोज़गार के अवसर सृजित करने के लिए है, न कि इसे दरकिनार करने के लिए. कुशल श्रमिकों की मज़दूरी, इस तरह की गतिविधियों में जैसी की ज़रूरत है, अपेक्षाकृत अधिक है. नरेगा में मज़दूरी पहले से ही का़फी कम है, इससे मज़दूरी में और भी कमी आ जाएगी.
कांग्रेस ने चुनाव में यह वादा किया था कि वह नरेगा की मज़दूरी को मूल्य सूचकांक से जोड़ने का काम करेगी, लेकिन सरकार ने मज़दूरी रोक ली. डॉ. थॉमस इजाक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि मज़दूरी राज्य का अधिकार होना चाहिए. वह कहते हैं कि मज़दूरी की दर अलग-अलग राज्यों में अलग है, इसलिए मज़दूरी को स्थिर रखना पूरी तरह से अतार्किक है. केरल जैसे राज्य में जहां दूसरे राज्यों की तुलना में मज़दूरी की दर ज़्यादा है, वर्तमान दर पर काम कौन करेगा? नरेगा को केंद्रीयकृत या एकरूपता प्रदान करने की किसी भी कोशिश का हम पुरज़ोर विरोध करेंगे. पीपुल्स एक्शन फॉर एंप्लॉयमेंट गारंटी (पीएईजी) नरेगा से संबद्ध एक प्रमुख संगठन है. दूसरे कई मुद्दों के साथ मज़दूरी की दर स्थिर करने का विरोध कर रही पीएईजी की मांग है कि सरकार ने बजट भाषण में कृषि मज़दूरों की मज़दूरी को मूल्य सूचकांक से जोड़ने का जो वादा किया था, उसे पूरा कर दिखाए. ऐसे समय में जबकि खाद्यान्न की क़ीमत में भारी वृद्धि हो रही है, मज़दूरी की दर को फिक्स कर देना पूरी तरह से अतार्किक और अनुचित है. वास्तव में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने मज़दूरी फिक्स करने की केंद्र सरकार की अधिसूचना को किनारे रख दिया. प्रख्यात अर्थशास्त्री उषा पटनायक कहती हैं कि ग़रीबी रेखा के आकलन में पूरी तरह कमतरी दिखती है, इसलिए बेहतर जीवन के लिए मज़दूरी को मूल्य सूचकांक से जोड़ा ही जाना चाहिए.
पीएईजी की यह भी मांग है कि क़ानून के मुताबिक़ न्यूनतम मज़दूरी की गारंटी अवश्य होनी चाहिए. तब भी, जबकि भुगतान काम के मूल्यांकन के बाद किया जाना हो. ठीक उसी तरह नौ घंटे कार्य करने की अधिसूचना को भी बदला जाना चाहिए. महिला मज़दूरों पर इसका विपरीत असर पड़ता है. वे तो वैसे भी
घर-परिवार और बच्चों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी के बोझ तले दबी होती हैं. जैसा कि पहले चलन में था, एक घंटा अवकाश के साथ आठ घंटे की ड्यूटी का नियम फिर से लागू होना चाहिए. सरकार ने राजीव गांधी सेवा केंद्र बनाने का निर्णय लिया है. इसके पीछे दलील यह दी जा रही है कि केंद्र पंचायतों के लिए सचिवालय का काम करेगा. नरेगा के एक कार्यक्रम, जिसमें सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी शामिल थे, की म़ेजबानी करते हुए सी पी जोशी ने 20 अगस्त को एक नई योजना का खुलासा किया था. यह दिन राजीव गांधी का जन्मदिवस भी है. जोशी कहते हैं कि नरेगा को कार्यान्वित करने के लिए कई योजनाएं बनाई गईं, कई विचार व्यक्त किए गए, लेकिन जो पंचायतें इसे कार्यान्वित करती हैं, उनके काम करने के लिए कोई ढंग की जगह ही नहीं है. हम अगले तीन वर्षों में देश की सभी ढाई लाख पंचायतों में राजीव गांधी सेवा केंद्र की स्थापना करने जा रहे हैं. यह केंद्र नरेगा को कार्यान्वित करने के लिए लघु सचिवालय का काम करेगा. इस प्रस्ताव पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए धीरेंद्र झा कहते हैं कि यह नरेगा पर कांग्रेस के प्रभुत्व को मज़बूत करने के लिए है. ये सारे कार्यालय कांग्रेस के स्थानीय कार्यालय की भूमिका निभाएंगे. जीन ड्रेज कहते हैं, हमें लगता है कि भारत निर्माण राजीव गांधी सेवा केंद्र अगर ज़रूरी है तो इसकी अलग से स्थापना होनी चाहिए. इन भवनों को बनाने के लिए नरेगा के मज़दूरों के उपयोग का मतलब है कि नरेगा के फंड का दुरुपयोग किया गया है. इसके अलावा प्रत्येक गांव में नरेगा को कार्यान्वित करने के लिए लोक सेवकों की नियुक्ति का प्रस्ताव संशय को जन्म देता है. इस प्रस्ताव की कड़ी आलोचना करते हुए एनी राजा कहते हैं कि यह कार्यक्रम में कांग्रेसियों की घुसपैठ की साज़िश है.
पीपुल्स एक्शन फॉर एंप्लॉयमेंट गारंटी के बयान के मुताबिक़, नरेगा को लागू करने की मुख्य ज़िम्मेदारी अनिवार्य रूप से सरकार और पंचायती राज संस्थाओं की होनी चाहिए. जबकि ग़ैर सरकारी संगठन और नागरिक समूह लोकतांत्रिक स्थान के हक़दार लोगों को कार्रवाई में मदद कर रहे हैं. गतिविधियों, जैसे कि जनयोजना और सामाजिक अंकेक्षण की आउटसोर्सिंग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. इस संदर्भ में प्रत्येक ग्राम पंचायत में लोकसेवकों की प्रस्तावित नियुक्ति से भी हम जुड़े हुए हैं. हमें लगता है कि लोकसेवक की नियुक्ति के विचार का सूक्ष्म परीक्षण होना चाहिए, ताकि जनता को जागरूक करने के नाम पर लोगों में निहित स्वार्थ विकसित न हो सके. वैकल्पिक उपायों, जैसे कि मज़दूरों के परिवार से ताल्लुक रखने वाले युवाओं के नियमित तौर पर प्रशिक्षण और उनके सशक्तिकरण पर भी विचार (जैसा कि आंध्र प्रदेश में है) किया जाना चाहिए. किसी भी स्थिति में कोई भी बड़ा क़दम बड़े पैमाने पर आम बहस के बाद ही उठाया जाना चाहिए. केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के दो प्रमुख सदस्यों की आपत्तियों के बावजूद सरकार प्रस्ताव ले आई. सी पी जोशी ने संसद को सूचित किया कि ग्राम पंचायत स्तर पर ग्रामीण ज्ञान संसाधन केंद्र के रूप में भारत निर्माण राजीव गांधी सेवा केंद्र की स्थापना को 11 नवंबर 2009 की अधिनियम अधिसूचना की अधिसूची एक के पैरा एक में एक अनुमति प्राप्त गतिविधि के रूप में शामिल किया गया है.
धीरेंद्र झा अपने तर्क से यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि नए प्रस्ताव में नया कुछ भी नहीं है, बल्कि यह कार्यक्रम को नाकाम करने की अंदरूनी साज़िश है. वह कहते हैं कि नरेगा की सबसे बड़ी खासियत इसकी विश्वसनीयता और पारदर्शिता है. नरेगा के लिए लोकपाल की नियुक्ति में गोपनीयता खंड को देखें. इसमें कहा गया है कि लोकपाल को दी गई सूचना ज़ाहिर नहीं की जानी चाहिए. लोकपाल किसी को  दंडित नहीं कर सकता, जबकि राज्य को अधिकार है कि वह लोकपाल को हटा दे. इससे यह पता चलता है कि जवाबदेही मुमकिन नहीं है. दोनों प्रस्तावों को पढ़ने के बाद, जिन्हें भी सामान्य समझ है, वे योजना की चालाकी को भांप सकते हैं. कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार नरेगा-2 योजना लाने में मशगूल है. चुनाव के दौरान जो वादे किए गए थे, वे अभी तक लागू नहीं हो पाए हैं. कांग्रेस ने प्रति वर्ष प्रति परिवार सौ दिन से लेकर कम से कम प्रति वर्ष प्रति वयस्क सौ दिन काम देने का वादा किया था.
15वीं लोकसभा के शीत सत्र के दौरान ग्रामीण विकास मंत्री ने संसद में स्पष्ट कर दिया था कि सरकार के सामने नरेगा के अंतर्गत रोजगार की गारंटी के दिन बढ़ाने का कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है. इस अधिनियम के तहत उपलब्ध 100 दिनों के रोजगार की मौजूदा गारंटी वर्तमान में जारी रहना वांछनीय है. नरेगा कार्यकर्ता कहते हैं कि हमें लगता है, देश के कई भागों में आसन्न सूखे और संकट से नरेगा के प्रावधानों के मुताबिक़ किसी भी तरह का समझौता किए बग़ैर ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के प्रावधानों को लागू करके ही निपटा जा सकता है. इस अधिनियम का मूल सभी जगह सही है, यह सुनिश्चित होना चाहिए. यही सर्वोच्च प्राथमिकता भी होनी चाहिए. अभी जबकि नरेगा-1 का सही कार्यान्वयन होना बाक़ी है तो नरेगा-2 के बारे में सोचने का कोई औचित्य ही नहीं है.

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