ब्रह्माण्ड की रचना किसने की कोई नहीं जानता। यह सवाल प्रश्नों और विवादों के घेरे में है। पर यह सत्य ही होगा कि किसी ‘मीडियॉकर’ किस्म के फरिश्ते ने तो नहीं की होगी। कोई देश किसी ‘मीडियॉकर’ किस्म के इंसान के हत्थे लग जाए तो हम एक परिभाषा जरूर गढ़ सकते हैं। आज के भारत की यह सरकार बेहूदगी, बदतमीजी, बेहयाई, नालायकी, खामख्याली और क्रूरता की सारी हदें पार कर रही है। यानी हम कह सकते हैं कि यह एक बद दिमाग सरकार है। वास्तव में सरकार बद दिमाग नहीं होती केवल सरकार की पूरी मशीनरी या तंत्र किसी के इशारे पर नाचने लगता है तो हमें ऐसा लगता है कि सरकार बद दिमाग हो चुकी है। क्रूरता से जब हमें 2002 के गुजरात दंगे याद आने लगते हैं तब हमें ताज्जुब नहीं होता कि आज की तारीख में विदेश से किडनी ‘ट्रांसप्लांट’ करवा कर कोई बूढ़ा आकर ईडी की बेहयाई को घंटों झेले और देश चुप होकर सहता रहे । यह वही देश हो सकता है जिसकी प्राण वायु निकाल ली गई हो । क्रूरता के मुखौटे में ‘मीडियॉकर’ आदमी की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। सारे तानाशाह सनकी हुए होंगे लेकिन आधे अधूरे क्रूर इंसान नहीं। हमारा सोशल मीडिया इस इंसान को समझ पा रहा है ? कतई नहीं समझ पा रहा। लेकिन इस इंसान ने यदि पूरे देश को चिंदी चिंदी न समझा होता और बरसों से यह प्लानिंग नहीं की होती कि मुझे देश की मिट्टी का चाक कैसे चलाना और घुमाना है तो देश की मासूम जनता उसके बहकावे में नहीं आती । आरएसएस के दिमाग से भी आगे का दिमाग जिसने पाया हो वही आरएसएस को इतना बौना कर सकता है कि आरएसएस को नीचे से ऊपर उसकी विराटता को देखना पड़ जाए । इसलिए मोदी को सब माफ है। वे विदेश जाकर देश देश के ‘इंडियन डायस्पोरा’ में जो कुछ बोलें, कितनी ही भारत की यह कहते हुए बदनामी करें कि सत्तर सालों में कुछ हुआ ही नहीं और उसके बाद एक एक कदम बढ़ते जाएं तो भी यह ‘धैर्यवान’ देश उसी तरह कबूल करता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वह कुछ पल के लिए अवाक भी होता है फिर आगे काम पर लग जाता है। लेकिन राहुल गांधी विदेश की धरती पर कुछ (अनाप शनाप ) बोल भी दें तो बवाल हो जाता है। राहुल गांधी ने क्या बोला इसकी बात आगे होगी लेकिन ऐसा माहौल बनता ही क्यों है । सवाल यही है । नौ साल पहले जब मोदी शपथ ले रहे थे तब अगर हम मुठ्ठी भर उस पल को कोस रहे थे तो तीन चौथाई से बहुत ज्यादा देश के लोग जश्न मना रहे थे। मुठ्ठी भर इसलिए कहा कि हममें से भी अनेक लोग उस बयार में बह गए थे जिन्होंने बाद में अपना माथा फोड़ा और अपने गलत होने को स्वीकारा। मुठ्ठी भर सिर्फ वही थे जिनके ज़हन से 2002 नहीं गया था और जो मनमोहन सिंह के ‘डिज़ास्टर’ शब्द को दिमाग में समेटे हुए थे। किसी भी व्यक्ति को समझना हो तो उसे उसके बचपन से समझिए । मोदी का अतीत सब कुछ अच्छे से बयान कर देता है । जब मुझ जैसा मामूली सा आदमी मोदी के आने से बहुत पहले जाहिर कर रहा था कि मोदी एक शासक के रूप में कितने क्रूर हो सकते हैं तो इतने बड़े बड़े और दिग्गज लोगों पर क्या टिप्पणी की जाए । मेरा लड़का मोदी की प्रशंसा में लगा हुआ था तब और आज भी और धीरे धीरे उससे छत्तीस का आंकड़ा होता गया। मोदी ने बड़ी बारीकी से नेहरू को पढ़ा (पढ़ने का अर्थ अध्ययन से न लें), उन्होंने इंदिरा को पढ़ा, भारतीय मानस और उसके मजबूर जीवन को चिंदी चिंदी पढ़ा। यहां की बौद्धिक जमात को पढ़ा और विशेष रूप से उसकी सीमाओं को जाना और यह भी कि सुविधा भोगी जमात लोकतंत्र की दुहाई में किस सीमा तक स्वयं को निछावर कर सकती है। मोदी ने देश की पूरी कुंडली बांची। वे अपनी कमियों से भलीभांति परिचित थे मसलन अंग्रेजी न समझ पाना और न बोल पाना।‌ लेकिन भारत में भारत में महत्वाकांक्षा और स्वाभिमान के सामने सब फेल है । उन्होंने विपक्ष को खण्ड खण्ड होते भी देखा और एक में सिमटते भी देखा । कमियां खूबियां बड़ी बारीकी से। और सबसे बड़ी बात कि देश के गरीब और जर्जर जिंदगी में जीते इंसान को कैसे अपने में ढाला जा सकता है। यह सब समझ बूझ कर ही मोदी ने अपनी शतरंज की चौसर बिछाई । वे धैर्य से चले । इसलिए न आप उन्हें हिटलर कह सकते हैं, न मुसोलिनी, न स्टालिन और न इंदिरा। मोदी मोदी हैं । वे कुछ नहीं हैं लेकिन सबका कुछ कुछ अंश समेटे वे बहुत कुछ हैं। वे नेहरू नहीं हैं। लेकिन चाहते हैं कि लोग नेहरू को भूल कर बिल्कुल नेहरू जैसे नये भारत के निर्माण के लिए उन्हें ही याद रखें । वे गांधी टोपी न पहनने और छाती पर लाल गुलाब न लगाने को मजबूर हैं। फिर भी वे नेहरू की तरह स्वयं को देखे जाने के लिए लालायित हैं। वे नेहरू की तरह साहित्य कला संस्कृति और गीत संगीत में रुचि रखना चाहते हैं लेकिन वे नहीं जानते कि इन सब पर खुद के विचारों को थोप कर इन विधाओं का कितना नुकसान कर रहे हैं। लेकिन वे इतना जरूर जानते हैं कि इस देश का बौद्धिक वर्ग अपनी सुविधाओं को त्याग कर लोकतंत्र के लिए अपने त्याग का बलिदान नहीं करेगा। इसलिए उन्हें इस वर्ग की रत्ती भर भी परवाह नहीं। जनता के बीच में लोकप्रिय हर क्रूर शासक इस वर्ग को बुद्धू जीवी ही कहता और जनता से भी कहलवाना चाहता है। आधे से ज्यादा हिंदुस्तान पर नौ साल बाद भी मोदी का साया है। बावजूद इसके कि जनता महंगाई और बेरोजगारी से त्राहि त्राहि कर रही है। विदेशों में मोदी ने योजनाबद्ध तरीके से खुद को बिना किसी की परवाह किए लोकप्रिय किया। मीडिया पर शिकंजा कसा। जब यह सब कुछ किया जा रहा था तब हमारा प्रबुद्ध वर्ग, पत्रकार और सोशल मीडिया महज उस होने की चर्चा भर कर रहे थे। सकते में थे। चिंता जता रहे थे।‌ न तब उठ खड़े हुए और न आज उठ खड़े हो रहे हैं।‌ मोदी को मालूम है वे नहीं उठेंगे। चंद मुठ्ठी भर लोगों ने प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी के अमरीका वीज़ा का विरोध किया था और तब इसकी अनदेखी करके जब अमरीका ने वीज़ा दे दिया था तो मन ही मन एक पंगा तो बन ही गया था जिसका बदला इस बौद्धिक कौम से लेना ही था।
विपक्ष लंगड़ा लूला है और दसों दिशाओं में मुंह करके मिमिया रहा है। राहुल गांधी के बारे में मुझे स्पष्ट कर देना चाहिए कि मैं उसे नेता और भावी प्रधानमंत्री के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर सकता हूं। बावजूद इसके कि राहुल गांधी ने अभूतपूर्व यात्रा निकाल कर अपने अस्तित्व को स्थापित करने की कोशिश की और वे सीधे और भोले इंसान के रूप में सर्व स्वीकार्य हो गये । लेकिन मेरा हमेशा से मानना रहा है और आगे भी मानना रहेगा कि यह व्यक्ति राजनीति के लिए नहीं बना है। राहुल गांधी को राजनीति में जबरन झोंक कर कांग्रेसी उस व्यक्ति के साथ कितना बड़ा अन्याय कर रहे हैं या करेंगे वे खुद नहीं जानते। कांग्रेस शून्य पर तो कभी नहीं आएगी लेकिन राहुल गांधी की स्वीकार्यता भी किसी श्रेष्ठ कांग्रेसी नेता के रूप में कभी नहीं बनेगी । मोदी के वोटर पर राहुल गांधी की कोई बेहतरीन छवि अंकित नहीं हुई है। वह जब की तस है। आज भी मोदी का वोटर और ज्यादातर नयी पीढ़ी राहुल गांधी को पप्पू की नजर से ही देखती है। इस पीढ़ी ने पढ़ना बंद कर दिया है। यह पीढ़ी सोशल मीडिया के तरह तरह के प्लेटफार्म में उलझी है । राहुल गांधी ने ब्रिटेन और कैंब्रिज में क्या बोला और राहुल के व्यक्तित्व का एक छोटा सा खाका आप एक इंटरव्यू में सुन सकते हैं। आलोक जोशी ने बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार जो लगभग चालीस सालों से बीबीसी में सेवाएं दे रहे हैं ऐसे नरेश कौशिक से आधे घंटे का इंटरव्यू किया । जिसमें गौर करने वाली बात यह है कि राहुल गांधी के पिता को परिपक्व होने में जहां दो साल लगे थे वहां बारह पंद्रह साल में भी राहुल परिपक्व नहीं हो पाए हैं। हो रहे हैं धीरे धीरे। यह धीरे धीरे कब तक चलेगा। इसलिए ऊटपटांग बातें भी कर दिया करते हैं। नरेश कौशिक ने राजीव गांधी से दो बार इंटरव्यू लिया था। पहले जब वे प्रधानमंत्री नहीं बने थे और फिर प्रधानमंत्री बनने के दो साल बाद।‌ क्या कारण है कि राहुल गांधी का बचाव हमारे भांड किस्म के या दोयम किस्म के पत्रकार ही कर रहे हैं और वे इसके जवाब में मोदी ने कब कब देश के बारे में ऊटपटांग बोल कर देश का अपमान किया है, इसकी दुहाई दे रहे हैं।‌ जबकि नीरजा चौधरी, शिवशंकर शर्मा, नरेश कौशिक जैसे लोग संतुलित बात कर रहे हैं। पर श्रवण गर्ग को किस श्रेणी में रखा जाए । पहले दिन वे कहते हैं कि मुझे समझ नहीं आता कि राहुल गांधी ब्रिटेन गये ही क्यों हैं। उन्होंने कहा मैं वहां राहुल गांधी को पूरा सुन ही नहीं पाया, बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया। लेकिन यही श्रवण गर्ग अगले दिन न केवल राहुल गांधी की ब्रिटेन की धरती पर तारीफ करते हैं बल्कि कहते हैं मुझे उन्हें देख कर नेहरू जी की याद हो आई। राहुल गांधी ने एक सिख व्यक्ति को देख कर ‘सेकेंड क्लास सिटीजन’ जैसी बेहूदी टिप्पणी की । राहुल देव ने इसका जिक्र किया लेकिन हमारे महान पत्रकार आशुतोष इससे अनभिज्ञ हैं। हम कौन सी दुनिया में हैं । और चाहते क्या हैं।
नरेश कौशिक ने बताया कि रटी रटाई बातों के अलावा राहुल गांधी से इधर उधर का कोई भी महत्वपूर्ण सवाल पूछा जाए तो वे अचकचा जाते हैं। जवाब देना नहीं बनता। भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है या संसद में हमारा माईक बंद कर दिया जाता है ऐसी बेहूदी बातें आप विदेशियों के बीच करके क्या पाना चाहते हैं। अपनी यात्रा के पहले दिन से जो वे बोलते आ रहे हैं उससे ज्यादा उनके पास कुछ नहीं है। ऐसे में मुझे ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म की याद आ रही है । जिसमें मुन्नाभाई सिर्फ उन्हीं बातों का जवाब दे पाता है जितना उसने जाना है। जब उससे पूछा जाता है कि गांधी जी की माता का नाम क्या है तो वह अचकचा जाता है। यही हाल राहुल गांधी का है । राहुल को न हिंदुत्व की समझ है न गीता और पुराणों की । भारतीय संस्कृति की तो कतई समझ नहीं है। मुझे डर है कि कभी उन्हें सुधांशु चतुर्वेदी जैसा भांड व्यक्ति भी चुनौती न दे दे । तब राहुल गांधी से ज्यादा कांग्रेसियों की हवा सरकेगी । मुझे तो आरफा खानम शेरवानी पर हैरानी होती है जो राहुल गांधी से गदगद हैं। वे अरुंधति राय से इंटरव्यू में माथे पर बल लाते हुए पूछती हैं कि राहुल गांधी ने इतनी बड़ी और महान यात्रा निकाली फिर भी आप यह कह रही हैं….. सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि हर चुनाव से राहुल गांधी भाग क्यों जाते हैं या अनुपस्थित क्यों रहते हैं ।
हम जो चैनल देखते हैं उसमें बड़े ही फूहड़ तरीकों से चर्चाओं में लोग बोलते हैं। देखना मुश्किल हो जाता है। कई बार पहले भी लिखा जा चुका है कि ये पत्रकार बिना किसी तैयारी के मजे के लिए और अपनी उसी घिसी पिटी सोच और नजर से जो दिमाग में बैठा है वे निकालते हैं । अब तो सोशल मीडिया का चलना न चलना बराबर सा ही है । वही चेहरे वही बातें नया कुछ नहीं। केवल इंटरव्यू अच्छे लगते हैं कभी कभी। कांग्रेस क्या और कैसे कार्यक्रम बना रही है 2023 के चुनावों के लिए। लोकतंत्र खत्म हो गया है तो सड़कों पर उतरने और लाठियां खाने की क्या तैयारी है । चुनावी कुरुक्षेत्र पूरी तरह से विपक्ष के पक्ष में है पर तैयारी किसकी कितनी है । बेशर्म पार्टी में तो आत्मविश्वास छलक रहा है। जहां तहां से सुनाई देता है कुछ भी कर लो ‘जीतेगा तो मोदी ही’ ।

‘मीडियॉकर’ किस्म के फरिश्ते ने तो नहीं की होगी। कोई देश किसी ‘मीडियॉकर’ किस्म के इंसान के हत्थे लग जाए तो हम एक परिभाषा जरूर गढ़ सकते हैं। आज के भारत की यह सरकार बेहूदगी, बदतमीजी, बेहयाई, नालायकी, खामख्याली और क्रूरता की सारी हदें पार कर रही है। यानी हम कह सकते हैं कि यह एक बद दिमाग सरकार है। वास्तव में सरकार बद दिमाग नहीं होती केवल सरकार की पूरी मशीनरी या तंत्र किसी के इशारे पर नाचने लगता है तो हमें ऐसा लगता है कि सरकार बद दिमाग हो चुकी है। क्रूरता से जब हमें 2002 के गुजरात दंगे याद आने लगते हैं तब हमें ताज्जुब नहीं होता कि आज की तारीख में विदेश से किडनी ‘ट्रांसप्लांट’ करवा कर कोई बूढ़ा आकर ईडी की बेहयाई को घंटों झेले और देश चुप होकर सहता रहे । यह वही देश हो सकता है जिसकी प्राण वायु निकाल ली गई हो । क्रूरता के मुखौटे में ‘मीडियॉकर’ आदमी की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। सारे तानाशाह सनकी हुए होंगे लेकिन आधे अधूरे क्रूर इंसान नहीं। हमारा सोशल मीडिया इस इंसान को समझ पा रहा है ? कतई नहीं समझ पा रहा। लेकिन इस इंसान ने यदि पूरे देश को चिंदी चिंदी न समझा होता और बरसों से यह प्लानिंग नहीं की होती कि मुझे देश की मिट्टी का चाक कैसे चलाना और घुमाना है तो देश की मासूम जनता उसके बहकावे में नहीं आती । आरएसएस के दिमाग से भी आगे का दिमाग जिसने पाया हो वही आरएसएस को इतना बौना कर सकता है कि आरएसएस को नीचे से ऊपर उसकी विराटता को देखना पड़ जाए । इसलिए मोदी को सब माफ है। वे विदेश जाकर देश देश के ‘इंडियन डायस्पोरा’ में जो कुछ बोलें, कितनी ही भारत की यह कहते हुए बदनामी करें कि सत्तर सालों में कुछ हुआ ही नहीं और उसके बाद एक एक कदम बढ़ते जाएं तो भी यह ‘धैर्यवान’ देश उसी तरह कबूल करता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वह कुछ पल के लिए अवाक भी होता है फिर आगे काम पर लग जाता है। लेकिन राहुल गांधी विदेश की धरती पर कुछ (अनाप शनाप ) बोल भी दें तो बवाल हो जाता है। राहुल गांधी ने क्या बोला इसकी बात आगे होगी लेकिन ऐसा माहौल बनता ही क्यों है । सवाल यही है । नौ साल पहले जब मोदी शपथ ले रहे थे तब अगर हम मुठ्ठी भर उस पल को कोस रहे थे तो तीन चौथाई से बहुत ज्यादा देश के लोग जश्न मना रहे थे। मुठ्ठी भर इसलिए कहा कि हममें से भी अनेक लोग उस बयार में बह गए थे जिन्होंने बाद में अपना माथा फोड़ा और अपने गलत होने को स्वीकारा। मुठ्ठी भर सिर्फ वही थे जिनके ज़हन से 2002 नहीं गया था और जो मनमोहन सिंह के ‘डिज़ास्टर’ शब्द को दिमाग में समेटे हुए थे। किसी भी व्यक्ति को समझना हो तो उसे उसके बचपन से समझिए । मोदी का अतीत सब कुछ अच्छे से बयान कर देता है । जब मुझ जैसा मामूली सा आदमी मोदी के आने से बहुत पहले जाहिर कर रहा था कि मोदी एक शासक के रूप में कितने क्रूर हो सकते हैं तो इतने बड़े बड़े और दिग्गज लोगों पर क्या टिप्पणी की जाए । मेरा लड़का मोदी की प्रशंसा में लगा हुआ था तब और आज भी और धीरे धीरे उससे छत्तीस का आंकड़ा होता गया। मोदी ने बड़ी बारीकी से नेहरू को पढ़ा (पढ़ने का अर्थ अध्ययन से न लें), उन्होंने इंदिरा को पढ़ा, भारतीय मानस और उसके मजबूर जीवन को चिंदी चिंदी पढ़ा। यहां की बौद्धिक जमात को पढ़ा और विशेष रूप से उसकी सीमाओं को जाना और यह भी कि सुविधा भोगी जमात लोकतंत्र की दुहाई में किस सीमा तक स्वयं को निछावर कर सकती है। मोदी ने देश की पूरी कुंडली बांची। वे अपनी कमियों से भलीभांति परिचित थे मसलन अंग्रेजी न समझ पाना और न बोल पाना।‌ लेकिन भारत में भारत में महत्वाकांक्षा और स्वाभिमान के सामने सब फेल है । उन्होंने विपक्ष को खण्ड खण्ड होते भी देखा और एक में सिमटते भी देखा । कमियां खूबियां बड़ी बारीकी से। और सबसे बड़ी बात कि देश के गरीब और जर्जर जिंदगी में जीते इंसान को कैसे अपने में ढाला जा सकता है। यह सब समझ बूझ कर ही मोदी ने अपनी शतरंज की चौसर बिछाई । वे धैर्य से चले । इसलिए न आप उन्हें हिटलर कह सकते हैं, न मुसोलिनी, न स्टालिन और न इंदिरा। मोदी मोदी हैं । वे कुछ नहीं हैं लेकिन सबका कुछ कुछ अंश समेटे वे बहुत कुछ हैं। वे नेहरू नहीं हैं। लेकिन चाहते हैं कि लोग नेहरू को भूल कर बिल्कुल नेहरू जैसे नये भारत के निर्माण के लिए उन्हें ही याद रखें । वे गांधी टोपी न पहनने और छाती पर लाल गुलाब न लगाने को मजबूर हैं। फिर भी वे नेहरू की तरह स्वयं को देखे जाने के लिए लालायित हैं। वे नेहरू की तरह साहित्य कला संस्कृति और गीत संगीत में रुचि रखना चाहते हैं लेकिन वे नहीं जानते कि इन सब पर खुद के विचारों को थोप कर इन विधाओं का कितना नुकसान कर रहे हैं। लेकिन वे इतना जरूर जानते हैं कि इस देश का बौद्धिक वर्ग अपनी सुविधाओं को त्याग कर लोकतंत्र के लिए अपने त्याग का बलिदान नहीं करेगा। इसलिए उन्हें इस वर्ग की रत्ती भर भी परवाह नहीं। जनता के बीच में लोकप्रिय हर क्रूर शासक इस वर्ग को बुद्धू जीवी ही कहता और जनता से भी कहलवाना चाहता है। आधे से ज्यादा हिंदुस्तान पर नौ साल बाद भी मोदी का साया है। बावजूद इसके कि जनता महंगाई और बेरोजगारी से त्राहि त्राहि कर रही है। विदेशों में मोदी ने योजनाबद्ध तरीके से खुद को बिना किसी की परवाह किए लोकप्रिय किया। मीडिया पर शिकंजा कसा। जब यह सब कुछ किया जा रहा था तब हमारा प्रबुद्ध वर्ग, पत्रकार और सोशल मीडिया महज उस होने की चर्चा भर कर रहे थे। सकते में थे। चिंता जता रहे थे।‌ न तब उठ खड़े हुए और न आज उठ खड़े हो रहे हैं।‌ मोदी को मालूम है वे नहीं उठेंगे। चंद मुठ्ठी भर लोगों ने प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी के अमरीका वीज़ा का विरोध किया था और तब इसकी अनदेखी करके जब अमरीका ने वीज़ा दे दिया था तो मन ही मन एक पंगा तो बन ही गया था जिसका बदला इस बौद्धिक कौम से लेना ही था।
विपक्ष लंगड़ा लूला है और दसों दिशाओं में मुंह करके मिमिया रहा है। राहुल गांधी के बारे में मुझे स्पष्ट कर देना चाहिए कि मैं उसे नेता और भावी प्रधानमंत्री के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर सकता हूं। बावजूद इसके कि राहुल गांधी ने अभूतपूर्व यात्रा निकाल कर अपने अस्तित्व को स्थापित करने की कोशिश की और वे सीधे और भोले इंसान के रूप में सर्व स्वीकार्य हो गये । लेकिन मेरा हमेशा से मानना रहा है और आगे भी मानना रहेगा कि यह व्यक्ति राजनीति के लिए नहीं बना है। राहुल गांधी को राजनीति में जबरन झोंक कर कांग्रेसी उस व्यक्ति के साथ कितना बड़ा अन्याय कर रहे हैं या करेंगे वे खुद नहीं जानते। कांग्रेस शून्य पर तो कभी नहीं आएगी लेकिन राहुल गांधी की स्वीकार्यता भी किसी श्रेष्ठ कांग्रेसी नेता के रूप में कभी नहीं बनेगी । मोदी के वोटर पर राहुल गांधी की कोई बेहतरीन छवि अंकित नहीं हुई है। वह जब की तस है। आज भी मोदी का वोटर और ज्यादातर नयी पीढ़ी राहुल गांधी को पप्पू की नजर से ही देखती है। इस पीढ़ी ने पढ़ना बंद कर दिया है। यह पीढ़ी सोशल मीडिया के तरह तरह के प्लेटफार्म में उलझी है । राहुल गांधी ने ब्रिटेन और कैंब्रिज में क्या बोला और राहुल के व्यक्तित्व का एक छोटा सा खाका आप एक इंटरव्यू में सुन सकते हैं। आलोक जोशी ने बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार जो लगभग चालीस सालों से बीबीसी में सेवाएं दे रहे हैं ऐसे नरेश कौशिक से आधे घंटे का इंटरव्यू किया । जिसमें गौर करने वाली बात यह है कि राहुल गांधी के पिता को परिपक्व होने में जहां दो साल लगे थे वहां बारह पंद्रह साल में भी राहुल परिपक्व नहीं हो पाए हैं। हो रहे हैं धीरे धीरे। यह धीरे धीरे कब तक चलेगा। इसलिए ऊटपटांग बातें भी कर दिया करते हैं। नरेश कौशिक ने राजीव गांधी से दो बार इंटरव्यू लिया था। पहले जब वे प्रधानमंत्री नहीं बने थे और फिर प्रधानमंत्री बनने के दो साल बाद।‌ क्या कारण है कि राहुल गांधी का बचाव हमारे भांड किस्म के या दोयम किस्म के पत्रकार ही कर रहे हैं और वे इसके जवाब में मोदी ने कब कब देश के बारे में ऊटपटांग बोल कर देश का अपमान किया है, इसकी दुहाई दे रहे हैं।‌ जबकि नीरजा चौधरी, शिवशंकर शर्मा, नरेश कौशिक जैसे लोग संतुलित बात कर रहे हैं। पर श्रवण गर्ग को किस श्रेणी में रखा जाए । पहले दिन वे कहते हैं कि मुझे समझ नहीं आता कि राहुल गांधी ब्रिटेन गये ही क्यों हैं। उन्होंने कहा मैं वहां राहुल गांधी को पूरा सुन ही नहीं पाया, बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया। लेकिन यही श्रवण गर्ग अगले दिन न केवल राहुल गांधी की ब्रिटेन की धरती पर तारीफ करते हैं बल्कि कहते हैं मुझे उन्हें देख कर नेहरू जी की याद हो आई। राहुल गांधी ने एक सिख व्यक्ति को देख कर ‘सेकेंड क्लास सिटीजन’ जैसी बेहूदी टिप्पणी की । राहुल देव ने इसका जिक्र किया लेकिन हमारे महान पत्रकार आशुतोष इससे अनभिज्ञ हैं। हम कौन सी दुनिया में हैं । और चाहते क्या हैं।
नरेश कौशिक ने बताया कि रटी रटाई बातों के अलावा राहुल गांधी से इधर उधर का कोई भी महत्वपूर्ण सवाल पूछा जाए तो वे अचकचा जाते हैं। जवाब देना नहीं बनता। भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है या संसद में हमारा माईक बंद कर दिया जाता है ऐसी बेहूदी बातें आप विदेशियों के बीच करके क्या पाना चाहते हैं। अपनी यात्रा के पहले दिन से जो वे बोलते आ रहे हैं उससे ज्यादा उनके पास कुछ नहीं है। ऐसे में मुझे ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म की याद आ रही है । जिसमें मुन्नाभाई सिर्फ उन्हीं बातों का जवाब दे पाता है जितना उसने जाना है। जब उससे पूछा जाता है कि गांधी जी की माता का नाम क्या है तो वह अचकचा जाता है। यही हाल राहुल गांधी का है । राहुल को न हिंदुत्व की समझ है न गीता और पुराणों की । भारतीय संस्कृति की तो कतई समझ नहीं है। मुझे डर है कि कभी उन्हें सुधांशु चतुर्वेदी जैसा भांड व्यक्ति भी चुनौती न दे दे । तब राहुल गांधी से ज्यादा कांग्रेसियों की हवा सरकेगी । मुझे तो आरफा खानम शेरवानी पर हैरानी होती है जो राहुल गांधी से गदगद हैं। वे अरुंधति राय से इंटरव्यू में माथे पर बल लाते हुए पूछती हैं कि राहुल गांधी ने इतनी बड़ी और महान यात्रा निकाली फिर भी आप यह कह रही हैं….. सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि हर चुनाव से राहुल गांधी भाग क्यों जाते हैं या अनुपस्थित क्यों रहते हैं ।
हम जो चैनल देखते हैं उसमें बड़े ही फूहड़ तरीकों से चर्चाओं में लोग बोलते हैं। देखना मुश्किल हो जाता है। कई बार पहले भी लिखा जा चुका है कि ये पत्रकार बिना किसी तैयारी के मजे के लिए और अपनी उसी घिसी पिटी सोच और नजर से जो दिमाग में बैठा है वे निकालते हैं । अब तो सोशल मीडिया का चलना न चलना बराबर सा ही है । वही चेहरे वही बातें नया कुछ नहीं। केवल इंटरव्यू अच्छे लगते हैं कभी कभी। कांग्रेस क्या और कैसे कार्यक्रम बना रही है 2023 के चुनावों के लिए। लोकतंत्र खत्म हो गया है तो सड़कों पर उतरने और लाठियां खाने की क्या तैयारी है । चुनावी कुरुक्षेत्र पूरी तरह से विपक्ष के पक्ष में है पर तैयारी किसकी कितनी है । बेशर्म पार्टी में तो आत्मविश्वास छलक रहा है। जहां तहां से सुनाई देता है कुछ भी कर लो ‘जीतेगा तो मोदी ही’ ।

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