किसी भी समाज का पारंपरिक रूप से प्रभावशाली तबका एक वोट बैंक में कैसे तब्दील होने लगता है, यह उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटों को लेकर हो रही राजनीतिक खींचतान से बखूबी समझा जा सकता है। आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर राज्य के करीब 12 फीसदी ब्राह्मण वोटों को अपने पाले में खींचने के लिए लगभग सभी दल ताकत लगाए हुए हैं। प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा इस वोट को अपनी बपौती मान कर चल रही है तो पहले बरसों सत्ता में रही कांग्रेस को अभी भी उम्मीद है कि ब्राह्मण कांग्रेस के राज में अपने स्वर्णिम अतीत को नहीं भूलेंगे। ब्राह्मण वोट में नए सिरे से सेंधमारी की शुरूआत सबसे पहले मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने राज्य में ब्राह्मण सम्मेलनों के आयोजन के ऐलान से की तो इससे चौंकन्नी समाजवादी पार्टी ने भी ऐसे ही सम्मेलनों के आयोजनो की घोषणा कर दी है। दोनो पार्टियां इस असंतोष को हवा देने की पूरी कोशिश में है कि भाजपा राज में ब्राह्मणों का उत्पीड़न हो रहा है। न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक रूप से भी। लिहाजा ब्राह्मणों को ‘न्याय’ चाहिए तो वो हमारी पार्टी के झंडे तले आएं। वैसे यह भी दिलचस्प है कि ‍हिंदू समाज के पिरामिड पर शीर्ष पर बैठी और काफी हद तक समूचे हिंदू समाज का वोट-व्यवहार तय करने वाली ब्राह्मण जाति को ही उसके हितरक्षण की सियासी गाजर दिखाई जा रही है। यह स्थिति उन ब्राह्मणों के लिए भी शायद नई है, जो अब तक स्वयं को समाज और राजनीति का नियंता मानते आए हैं और आत्मश्रेष्ठत्व का यह भाव उनमें डीएनए की तरह रचा हुआ है।

उत्तर प्रदेश जैसे देश के आबादी के लिहाज़ से सबसे बड़े राज्य में तीन दशक पहले तक ब्राह्मणों में अपने ‘वर्चस्व’ को लेकर खास चिंता नहीं थी। क्योंकि संख्या में तुलनात्मक रूप में कम होने के बाद भी उनकी प्रभावी मौजूदगी हर उस क्षेत्र में थी, जिसे निर्णायक कहा जाता है। आजादी के बाद से लेकर 1989 तक राज्य में अधिकांश मुख्यमंत्री ब्राह्मण ही रहे। प्रशासनिक पदों और कांग्रेस पार्टी में भी उनकी भूमिका अहम रही। आम ब्राह्मण में यही संदेश था कि धर्म सत्ता के साथ राजनीतिक सत्ता में भी उसकी शीर्ष भूमिका है। लेकिन उसके बाद मंडल-कमंडल की राजनीति, दलित और पिछड़े वर्ग की राजनीतिक चेतना के जबर्दस्त उभार तथा राजजन्म भूमि आंदोलन के बहाने समूचे हिंदू समाज को एक करने की आरएसएस की काफी हद तक सफल कोशिशों ने यूपी में ब्राह्मणों की भूमिका को धीरे-धीरे मर्या‍दित कर दिया। इस सामा‍जिक बदलाव को जातिवादी राजनीति ने इसे ‘सामाजिक न्याय’ और ‘समता’ तथा हिंदूवादी राजनीति ने ‘समरसता’ का नाम दिया।

सामाजिक समरसता का यह विचार भी ब्राहमणो के ही दिमाग की उपज था, लेकिन आज ब्राह्मण इसी ‘समरसता’ में अपना ‘रस’ खोजने पर विवश हैं। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश में तीन दशकों से ब्राह्मण अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बार बार राजनीतिक प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन उनकी बेचैनी का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल सका है। यहां तर्क दिया जा सकता है कि चूंकि भारत में ‘सामाजिक न्याय’ का क्रियान्वयन लोकतंत्र के खांचे में हो रहा है और हमारा लोकतंत्र मूलत: संख्यात्मक बहुमत से संचालित होता है, ऐसे में ब्राह्मण भले ही सदियों से हिंदू धर्म सत्ता के नियंता और राजनीतिक सत्ता के अनुमोदक रहे हों, संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक ही हैं। लिहाजा आज उनका सत्ता में शेयर भी उसी अनुपात में होगा। दूसरे, वर्तमान हिंदू पुनर्जागरण की नींव भले ब्राह्मणों ने रखी हो, लेकिन उस पर ध्वजा अब उस पिछड़े वर्ग की लहरा रही है, जिसे ब्राह्मणों ने अपनी ताकत बढ़ाने और सामाजिक वर्चस्व को कायम रखने के लिए साथ लिया था।

हिंदू समाज की ‘सामाजिक समरसता’ की ताकत को भाजपा और आरएसएस के बखूबी पहचाना है। चूंकि संख्यात्मक रूप से ओबीसी कुल हिंदू समाज का लगभग आधा है, ऐसे में इस वर्ग में गहरी पैठ भाजपा के लिए राजनीतिक दीर्घायुषी होने की जमानत है। ऐसे में ब्राह्मण और दलित साथ आएं तो ठीक न आए तो भी ठीक। यही सोच ब्राह्मणों के लिए विचलित करने वाली है। जबकि अधिकांश ब्राह्मण ऐसी सामाजिक- राजनीतिक व्यवस्था चाहते हैं,जो ‘सामाजिक समता’ के साथ साथ उनकी पारंपरिक श्रेष्ठता को कायम रखे। ऐसे ब्राह्मणों को किसी न किसी पार्टी के साथ ऐसे अलिखित अनुबंध की आवश्यकता है, जो उनके धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक महत्व को मूर्त रूप में स्वीकार करे। मोटे तौर पर बहुतांश ब्राह्मणों के राजनीतिक सोच के हिसाब से आज भाजपा ही उनके सबसे नजदीक है ( किसी जमाने में यह हैसियत कांग्रेस की थी)। लेकिन हिंदुत्व के लोकव्यापीकरण के चक्कर में भाजपा का ध्यान अब उन जातियों और समुदायो पर ज्यादा है, जो घोर जातिवाद, ब्राह्मणवाद अथवा अन्यान्य कारणो से भाजपा से छिटकती रही हैं। राजनीतिक सत्ता की स्थिरता और सातत्य के लिए यह जरूरी भी है।

दरअसल यूपी में ब्राह्मणों की इस कथित ‘सुविचारित’ अथवा ‘परिस्थितिजन्य उपेक्षा’ ही ब्राह्मणों की बेचैनी का असल कारण है। इसी को दूसरी पार्टियां आगामी चुनाव में राजनीतिक रूप से भुनाना चाहती हैं। यही कारण है की 2007 में जाटव-ब्राह्मण जातीय समीकरण बनाकर सत्ता में आने वाली मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी ने लाख गालियां देकर भी ब्राह्मणों को पुचकारना चाहा। नए नारे गढ़े गए, मसलन ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा।‘ लेकिन बसपा के शासन काल में हकीकत में ब्राह्मणों के हाथ में केवल शंख ही रह गया, जिसे उन्होंने अगले चुनाव में ब्राह्मणों ने समाजवादी पार्टी के राज्याभिषेक के रूप में बजाया। बावजूद इसके, उनके सुनहरे दिन फिर भी नहीं लौटे। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा की बम्पर जीत में ब्राह्णों की बड़ी हिस्सेदारी रही। सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक तब राज्य के 80 फीसदी ब्राह्मणो ने बीजेपी को वोट किया था। लेकिन हकीकत में ‘वर्चस्व’ जैसी कोई बात नहीं हुई। उल्टे संदेश यह गया कि योगी सरकार विकास दुबे ( जो कि घोषित गैंगस्टर था) का भी एनकाउंटर करा रही है। अर्थात ब्राह्मणों को इस तरह भी निपटाया जा रहा है। यूं योगी राज में भाजपा के विधायक हैं। 6 मंत्री भी हैं। लेकिन इन में कोई भी ऐसा प्रखर चेहरा नहीं है, जिसे सही अर्थों में ब्राह्मणों का रहनुमा कहा जा सके।

अब सवाल यह कि ‘ब्राह्मणों के वर्चस्व’ ( डाॅमिनेंस) घटने का निश्चित अर्थ क्या है? इसे कैसे पारिभाषित किया जाए? वो कौन से कारण हैं, जो ब्राह्मणों को अपने उपेक्षित होने का अहसास कराते हैं या फिर यह केवल काल्पनिक मनोदशा है, जो सामाजिक अवसाद से उत्पन्न हुई है? और यह भी कि संख्यात्मक रूप से अल्प होने के बाद भी ब्राह्मण हर क्षेत्र में अपनी निर्णायक हिस्सेदारी क्यों चाहते हैं? अगर समस्याओ की दृष्टि से देखें तो ब्राह्मण समाज की भी वही समस्याएं हैं, जो अन्य समाजों की है। सबसे बड़ा कारण तो आर्थिक और रोजगार का है। पुरोहिताई और धार्मिक कर्मकांड का पारंपरिक व्यवसाय घटते जाने के कारण ब्राह्मणो के सामने रोजगार की समस्या जटिल होती जा रही है। हालांकि ब्राह्मण वो समाज है, जो समय के अनुसार खुद को ‘प्रूव’ करता चलता है और हर नई चुनौती पर विजय पाने की कोशिश करता है। लेकिन समाज और सत्ता के संचालन में उनकी निर्णायक और निर्धारक भूमिका का सिमटते जाना ही शायद उसके लिए सबसे ज्यादा चिंता का कारण है।

यूं पूरे देश में ब्राहमणों की करीब 96 उप जातियां हैं। इनमें से यूपी में करीब एक दर्जन उपजातियां रहती हैं। इनमें भी मुख्‍य रूप से कान्यकुब्ज और उसकी एक उपशाखा सरयूपारीण का ज्यादा वर्चस्व है। ‘उपेक्षित’ होने का सर्वाधिक भाव भी इन्हीं दो उपजातियों में ज्यादा है। इसलिए जब दिनेश शर्मा को राज्य का उपमुख्यमंत्री बनाया गया तो कहा गया ‍कि वो तो ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण हैं ( यानी की अल्पसंख्यक ब्राह्मण हैं)। ब्राह्मण समाज में घुमड़ते इसी आंतरिक असंतोष में राजनीतिक पार्टियो को सत्ता परिवर्तन की संभावनाएं दिख रही हैं। यही कारण है कि बसपा के ब्राहमण सम्मेलन ( जिन्हें बाद में प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन नाम दिया गया) में जय श्रीराम के नारे गूंजे। पार्टी के वरिष्ठ नेता सतीश‍ मिश्रा ने राज्य में ‘ब्राह्मणों के हो रहे उत्पीड़न’ का बदला लेने की बात बार-बार दोहराते हुए कहा कि राज्य में 23 फीसदी दलित और 12 फीसदी ब्राह्मण वोट मिल जाएं तो सरकार बदल जाए।

उसी प्रकार समाजवादी पार्टी को भी ब्राह्मणों के भगवान ‘परशुराम’ ( यूं हिंदुओ के अधिकांश देवता ब्राह्मणो द्वारा ही रचे, भजे गए हैं) की याद आई। ब्राह्मणों को दूसरी पार्टियों के इस राजनीतिक निमंत्रण से भाजपा चिंतित है, लेकिन उसे भरोसा है कि ब्राह्मणो के मूल सोच और मानसिकता का अंतिम पड़ाव भाजपा ही है। दूसरी तरफ ब्राहमणों में यह भावना घर कर रही है कि उन्हें अपनी ताकत तो दिखानी होगी, वरना हर पार्टी उन्हें हल्के में ही लेगी। इसे ‘राजनीतिक बदला’ न भी माने तो ‘राजनीतिक ताकत’ का इजहार तो कह ही सकते हैं, जो वोटों के हथियार से होता है। यूं ब्राह्मणों को किसी रेवड़ के रूप में हांकना असंभव है, क्योंकि वह बुद्धि का दामन छोड़ नहीं सकता। वह देखेगा, सोचेगा, समझेगा। लेकिन लोकतंत्र में संख्याबल का वही महत्व है, जो क्रिकेट में रन बनाने का है। लिहाजा यह दबाव बनाने की कोशिश दिखती है ‍कि पार्टियां ज्यादा से ज्यादा संख्या में ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दें और ब्राह्मण मतदाता राजनीतिक पूर्वाग्रहों को अलग रखकर समजातीय होने के आधार पर अपने जातभाई को ही वोट करें तो कुछ बात बन सकती है। हालांकि यह सीमित सोच मूल रूप से ब्राह्मण धर्म, कर्म और मानस के अनुरूप नहीं है। फिर भी ऐसा हुआ तो यह न केवल यूपी में बल्कि उन राज्यों में भी ब्राह्मणों के वर्चस्व कायम रखने की जद्दोजहद को एक नया तेवर दे सकती है।

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