कहना बहुत सख्त होगा, और हो सकता है कुछ लोगों को बहुत बुरा भी लगे, पर सच्चाई यह है कि संसद इस देश के आम आदमी के दर्द का मज़ाक उड़ा रही है. सात दिनों तक लोकसभा और राज्यसभा नहीं चली, क्योंकि विपक्ष जिस नियम के तहत महंगाई पर बहस चाहता था सरकार उस पर कराने के लिए तैयार नहीं थी, क्योंकि तब मत विभाजन होता और सरकार शायद हार जाती. सरकार के अस्तित्व को तो कोई ख़तरा नहीं होता, लेकिन उसके लिए स्थिति शर्मनाक होती. सात दिनों बाद जब बहस हुई तो इस समझौते के साथ कि अध्यक्ष लोकसभा में और सभापति राज्यसभा में एक प्रस्ताव रखेंगे जिसमें महंगाई पर चिंता जताई जाएगी. ऐसा ही हुआ भी.

कौन सी जाति है, या जाति की उपजाति है, या कौन सा धर्म है जिसके मानने वालों को महंगाई नहीं सता रही. हां, जाति या धर्म के नेताओं को महंगाई नहीं सता रही. पहले के नेता अपने को छोड़ समूह के दर्द को महसूस करते थे, पर आज के नेता अपने अलावा किसी का दर्द महसूस नहीं करते.

बहस में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज का भाषण तो अच्छा था पर उन्होंने सरकार से मांग की कि कुछ तो पेट्रोलियम पदार्थों की क़ीमत कम की जाए जिससे देश के लोगों को लगे कि सरकार गंभीर है. मुलायम सिंह ने कहा कि एक हज़ार परिवारों को अलग कर देखा जाए कि महंगाई का असर किस पर कितना है और लालू यादव ने कहा कि गेहूं भी महंगा होगा, क्योंकि जानबूझ कर इसे बारिश में सड़ाया जा रहा है ताकि इसे बीयर बनाने के लिए लगभग मुफ्त में दिया जा सके.
बातें और चिंता अच्छी लगीं पर इनका सरकार पर कोई असर नहीं हुआ. वित्तमंत्री ने सारे तर्क महंगाई के बचाव में दिए. दरअसल सरकार को लगता है कि महंगाई अब जीवन शैली बन गई है, कुछ दिन लोग हाय-तौबा करेंगे और फिर चुप हो जाएंगे. इसीलिए सरकार हिम्मत के साथ, शर्म लिहाज़ छोड़ मंहगाई के पक्ष में तो बोल ही रही है, बल्कि वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि अभी महंगाई और बढ़ेगी तथा दिसंबर के बाद शायद कुछ कम हो.
विपक्ष ने एक दिन का भारत बंद किया और एक दिन संसद में बहस की. उसे लगता है कि उसका कर्तव्य पूरा हो गया. इसके बाद अगर कुछ हो रहा है तो टेलीविज़न में बहस हो रही है और एक दूसरे के ख़िला़फ तर्क दिए जा रहे हैं. इसका शिकार आम आदमी देख रहा है कि गाल तो बजाए जा रहे हैं लेकिन कोई भी महंगाई कम करने या कराने में रुचि नहीं रखता. इस बहस में एक नया राजनीतिक पैंतरा भी देखने को मिला. बहुजन समाज पार्टी ने बहस शुरू करते हुए पहला वाक्य कहा कि वह सरकार को परेशानी में नहीं डालना चाहती. उसने इशारा कर दिया कि अगर वोट होता तो महंगाई पर ज़ुबानी विरोध के बाद वोट वह कांग्रेस को देती. इसे राहुल गांधी की उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत करने की कोशिश को ख़त्म करने के रूप में देखा जाना चाहिए. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को इस बार भी डरा दिया कि सावधानीवश बसपा को साथ लेना चाहिए अन्यथा वोट हुआ, हार हुई तो शर्मनाक स्थिति हो जाएगी.
कांग्रेस से पहले शरद पवार ने देश में महंगाई बढ़ाने वाले बयान दिए. अनाज, सब्ज़ी और दूध के दाम बढ़ाने में शरद पवार ने अमूल्य योगदान दिया और उनके ख़िला़फ देश में कोई आंदोलन नहीं हुआ. अब वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि महंगाई और बढ़ेगी. विपक्ष इनके ख़िला़फ भी कुछ नहीं करने जा रहा.
विपक्ष में मुलायम सिंह, शरद पवार, लालू यादव, वामपंथी दलों के नेता और किसी हद तक सुषमा स्वराज भी जीवन के सुनहरे काल में आंदोलनों की सतत श्रृंखला के अटूट अंग रहे हैं. उन्हीं आंदोलनों की वजह से, जिसमें जनता ने उन्हें अपने हितों के लिए लड़ने वाला सिपाही माना, ये सारे आज लोकसभा में हैं. लोकसभा में होना महत्वपूर्ण है, पर उससे महत्वपूर्ण है उनका जनता की समस्याओं से सरोकार का होना- कम से कम जनता तो ऐसा ही समझती है.
लेकिन अब ये सारे नेता, चाहे जिस दल में हों बिल्कुल एक सी भाषा, एक से विचार और एक से चेहरे वाले लगते हैं. अब इनका विश्वास जनता को गोलबंद कर, उसे संगठित कर, सरकार को समस्याओं के हल के लिए विवश करना नहीं है, बल्कि ये सरकार के तर्कों को सही साबित करने के लिए आधार बना देते हैं. जनता अपने आप खड़ी नहीं होती और अब उसके आंसू पोंछने वाला या उसे संगठित करने वाला न कोई राजनैतिक दल है और न कोई राजनेता.
इसी का परिणाम है कि देश में नक्सलवाद बढ़ रहा है. ग़रीब को लगता है कि सारे राजनैतिक दल ठगों के समूह में बदल गए हैं तथा उसके दर्द का, उसकी भूख का व्यापार भी कर रहे हैं और मज़ाक भी उड़ा रहे हैं, तो वह उनका साथ देने लगता है जो हथियारों के बल पर उसकी समस्या का समाधान करने का वायदा कर रहे हैं. मज़े की बात है कि जहां ये हैं, वहां राजनैतिक दलों की गतिविधियां सिमटी-सिमटी सी हैं.
गांधी जी का नाम, लोहिया जी व जयप्रकाश जी का नाम अब भारतीय विपक्ष के लिए पूज्य नहीं रहा. जब नाम ही पूज्य नहीं रहा तो उनका बताया रास्ता तो अब इनके किसी काम का रहा ही नहीं. इसीलिए देश में राजनैतिक तंत्र के प्रति अविश्वास बढ़ रहा है.
कौन सी जाति है, या जाति की उपजाति है, या कौन सा धर्म है जिसके मानने वालों को मंहगाई नहीं सता रही. हां, जाति या धर्म के नेताओं को मंहगाई नहीं सता रही. पहले के नेता अपने को छोड़ समूह के दर्द को महसूस करते थे, पर आज के नेता अपने अलावा किसी का दर्द महसूस नहीं करते. वह समय बहुत दूर नहीं है जब जनता अपना रास्ता अलग चुनने के लिए मजबूर हो जाएगी. हो सकता है वह रास्ता लोकतंत्र की परिभाषा में न आता हो. पर आज जो कुछ सरकार और विपक्ष कर रहा है, वह भी तो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है.

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