आपसी फूट, अविश्वास, षड्‌यंत्र, अनुशासनहीनता, ऊर्जाहीनता, बिखराव और कार्यकर्ताओं में घनघोर निराशा के  बीच चुनाव दर चुनाव हार का सामना, वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की यही फितरत बन गई है. ऐसे व़क्त में भारतीय जनता पार्टी को नया अध्यक्ष मिला है. 52 साल की उम्र वाले लोगों को अगर युवा कहा जा सकता है तो नया अध्यक्ष युवा है. उम्र न सही, लेकिन वह अपने बयानों, तेवर और राष्ट्रीय राजनीति के अनुभव के  नज़रिए से युवा मालूम पड़ते हैं. नितिन जयराम गडकरी, राष्ट्रीय राजनीति में एक नया नाम ज़रूर है, लेकिन महाराष्ट्र का यह नेता भारतीय जनता पार्टी के  कई दिग्गज नेताओं को पैवेलियन में बिठाकर खुद अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा है. भारतीय जनता पार्टी देश का प्रमुख विपक्षी दल है. देश में प्रजातंत्र मज़बूत करने के  लिए भाजपा का मज़बूत होना ज़रूरी है. क्या गडकरी को इस ज़िम्मेदारी का एहसास है?  क्या देश को नेतृत्व देने की दूरदर्शिता और इच्छाशक्ति उनके  पास है? यह समझने के  लिए यह जानना ज़रूरी है कि भारतीय जनता पार्टी के  नए अध्यक्ष नितिन गडकरी का एजेंडा क्या है?
भारतीय जनता पार्टी के  मुख्यालय में आजकल हलचल है. नितिन गडकरी की टीम में कौन-कौन लोग होंगे? किन-किन लोगों को दरकिनार किया जाएगा? नए अध्यक्ष के  रास्ते कौन कांटे बिछाएगा?   कुछ कहते हैं कि गडकरी में दम है और कुछ लोगों को लगता है कि अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के  मुक़ाबले गडकरी का क़द का़फी छोटा है. बहरहाल, भाजपा में नई टीम के गठन की जद्दोजहद चल रही है. पंचांग के  हिसाब से अभी खड़मास चल रहा है. ज्योतिषीय गणना में इस अवधि को महत्वपूर्ण कार्यों के लिए सही नहीं माना गया है.  इसलिए सारे फैसले 14 जनवरी यानी मकर संक्रांति के  बाद लिए जाएंगे. फरवरी के  पहले और दूसरे सप्ताह में यह पता चल पाएगा कि भारतीय जनता पार्टी के  नए अध्यक्ष की टीम में कौन-कौन शामिल हैं.

ताज तो मिल गया है, लेकिन उसमें कांटे बेशुमार हैं. कुछ तो वक्त की चाल ने पैदा किए हैं और कुछ घर के दुश्मनों ने. चुनौती इसी बात की है कि बीच भंवर में डगमगाती पार्टी की नैया को पार कैसे लगाया जाए.

नितिन गडकरी ने भाजपा की कमान ऐसे व़क्त में संभाली है, जब यह पार्टी कई स्तर पर, कई दिशाओं से बिखर रही है. संघ और भाजपा के रिश्तों को लेकर पार्टी दो धड़ों में बंटी है. एक तऱफ वे लोग हैं, जिनकी पृष्ठभूमि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की है, जो संघ की विचारधारा में विश्वास रखते हैं और जिन्हें भारतीय जनता पार्टी के  कामकाज में संघ के  द़खल से गुरेज़ नहीं है. दूसरे वे लोग हैं, जो संघ से जुड़े नहीं हैं, जो संघ की विचारधारा और पार्टी के  कामकाज में संघ के हस्तक्षेप का विरोध करते हैं. फिलहाल, संघ के  समर्थक भाजपा पर भारी हैं. यही वजह है कि संघ के  हस्तक्षेप से गडकरी अध्यक्ष बने हैं. नितिन गडकरी भाजपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की पसंद नहीं हैं, बल्कि वह संघ के  नुमाइंदे हैं. इसका मतलब सा़फ है कि भारतीय जनता पार्टी में गडकरी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के  एजेंडे को लागू करने वाले हैं. गडकरी की टीम में उन लोगों को महत्वपूर्ण दायित्व दिए जाएंगे, जिनकी पृष्ठभूमि संघ की है. इसमें कोई शक़ नहीं है कि गडकरी दिल्ली में पहले से बैठे नेताओं के  निशाने पर रहेंगे.
नितिन गडकरी की चुनौतियां भी अजीबोग़रीब हैं. उन्हें दुश्मनों से खतरा नहीं है. उनकी सबसे बड़ी परेशानी भाजपा के वे नेतागण हैं, जो अब तक पार्टी के  कर्ताधर्ता रहे हैं. अध्यक्ष बनते ही नितिन गडकरी ने अपने प्रतिद्वंद्वियों पर पहला वार किया. पुराने लोगों को वापस पार्टी में शामिल करने की बात कहकर गडकरी ने उन नेताओं को यह संदेश दिया है कि वे अपने हिसाब से पार्टी को चलाएंगे. यह संदेश देने की कोशिश की कि पार्टी को अब तक जिस हिसाब से चलाया जा रहा था, उस पर लगाम लगने वाली है. व्यक्तिविशेष के  हित से पार्टी का हित पहले है. इस संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी से निकाले गए पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह का नाम नहीं लिया गया. जसवंत सिंह भाजपा के बड़े नेता रहे हैं. उनकी पृष्ठभूमि संघ की नहीं है. उनका नाम न लेकर गडकरी ने उस विश्वास को पुख्ता किया है कि वह संघ के  नुमाइंदे बनकर भारतीय जनता पार्टी के  भविष्य को निखारना चाहते हैं.
भाजपा में गडकरी की सीधी लड़ाई दिल्ली में पहले से स्थापित नेताओं से है. दिल्ली में बैठे नेताओं ने शायद इसे पहले ही भांप लिया था, इसलिए आडवाणी के  नेतृत्व में गडकरी के अध्यक्ष बनने से ठीक पहले सुषमा स्वराज एवं गोपीनाथ मुंडे को लोकसभा में विपक्ष का नेता और उपनेता तथा राज्यसभा में अरुण जेटली एवं एस एस अहलुवालिया को विपक्ष का नेता और उपनेता घोषित कर दिया गया. आडवाणी एंड कंपनी ने ऐसा करके  गडकरी के पर कतरने की चाल चल दी. संसदीय दल और संगठन के  कामकाज को अलग कर दिया. देखना यह है कि संघ और गडकरी इसके  जवाब में क्या करते हैं.
भाजपा के  सूत्र बताते हैं कि संघ की मदद से पार्टी में भारी फेरबदल होने वाले हैं. हो सकता है कि कामराज प्लान की तर्ज़ पर भाजपा में भी सभी पदाधिकारियों, अलग-अलग कमेटियों के  सदस्यों, संसदीय बोर्ड एवं संसदीय दल, राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्ती़फे दिलाए जाएं, ताकि नए अध्यक्ष फिर से संगठन का पुनर्गठन कर सकें. इस्ती़फे  की तारी़ख 15 जनवरी रखी गई है. अगर इसका विरोध होता है तो संघ और गडकरी को यह तुरंत पता चल जाएगा कि वे कौन लोग हैं, जो आने वाले दिनों में समस्या खड़ी कर सकते हैं. संघ की मदद से उन नेताओं पर सख्त कार्रवाई की जाएगी. यही एकमात्र रास्ता है, जिससे गडकरी पूरी तरह पार्टी की कमान अपने हाथों में ले सकेंगे. अपने नज़दीकियों और संघ के चहेते लोगों को संगठन में ज़िम्मेदारियां देने में कामयाब हो सकेंगे. इसके  बाद गडकरी संघ की योजनाओं को पार्टी संगठन में अंजाम देंगे. संघ की योजना यह है कि विचारधारा में विश्वास न रखने वाले नेताओं की जगह देश भर में संघ के 500 विश्वस्त कार्यकर्ताओं को अलग-अलग दायित्व दिया जाएगा, जो पार्टी के  नेताओं की गतिविधियों पर नज़र रखेंगे. भाजपा संगठन को अपनी गिरफ़्त में लेने की संघ की योजना है. संघ भारतीय जनता पार्टी की चाल, चरित्र और चेहरा बदलना चाहता है, लेकिन सवाल यह है क्या गडकरी संघ के  एजेंडे को लागू कर पाएंगे?
गडकरी और संघ की इस योजना का विरोध होना तय है. सोचने वाली बात यह है कि इसके  अलावा गडकरी के  पास पार्टी को नियंत्रण में लेने का दूसरा रास्ता भी नहीं है. गडकरी का मुक़ाबला दिल्ली में बैठे परिपक्वनेताओं से है. अगर अभी गडकरी इस मा़के  से चूक जाते हैं तो भविष्य में उन्हें कोई दूसरा मौक़ा नहीं मिलने वाला है. इसके  बाद गडकरी भाजपा में नई जान फूंकने में सफल नहीं हो पाएंगे. गडकरी भी राजनाथ सिंह, जेना कृष्णमूर्ति और वैंकेया नायडू जैसे अध्यक्ष साबित होंगे.
जो कहो, वह करो मत और जो करना है, वह कहो मत- यह दिल्ली में राजनीति करने का मूलमंत्र है. अध्यक्ष बनने के  बाद गडकरी ने प्रेस कांफ्रेस में जो बातें कहीं, अगर वे सही हैं तो जो लोग गडकरी से आशा लगाए बैठे हैं, उन्हें बाद में निराशा होगी. अगर गडकरी ने दिल्ली के  मूलमंत्र को समझ लिया है तो भाजपा में बदलाव के  आसार हैं. पार्टी को मज़बूत करने की बात उठी तो गडकरी ने कहा कि वह पार्टी के  जनाधार का विस्तार करेंगे. दलितों, अल्पसंख्यकों, मज़दूरों और किसानों का दिल जीतना उनकी प्राथमिकता होगी. उन्होंने यह भी कहा कि वह विकास की राजनीति करेंगे. भाजपा के कमज़ोर होने की मुख्य वजह निराश कार्यकर्ता, समर्थकों का पार्टी से टूटा हुआ विश्वास और एयरकंडीशन कमरे में बैठे बिना जनसमर्थन वाले नेता हैं. गडकरी ने अब तक यह नहीं बताया है कि कार्यकर्ताओं की निराशा को वह कैसे दूर करेंगे और समर्थकों का विश्वास कैसे जीतेंगे.
भारतीय जनता पार्टी देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है. प्रजातंत्र में इसका महत्व और ज़िम्मेदारी सरकार चलाने वाली पार्टी से ज़्यादा है. ऐसी पार्टी का मुखिया बनना कोई आसान काम नहीं है. यह काम औऱ भी मुश्किल तब हो जाता है, जब पार्टी के  मुख्य नेता विरोध कर रहे हों. ऐसे पद पर विराजमान होने के  लिए दूरदर्शिता की आवश्यकता होती है. ऐसा दर्शन, जिससे आम जनता का विश्वास मज़बूत होता हो. भारतीय जनता पार्टी  यही ज़िम्मेदारी पिछली बार नहीं निभा सकी, जिसकी वजह से जनता ने उसे सरकार बनाने का मौक़ा नहीं दिया. यशवंत सिन्हा ने 2009 के चुनाव में हार के  बाद तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह से पूछा था कि जो लोग हार के  लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्हें इनाम क्यों दिया जा रहा है? ऐसे ही सवाल अरुण शौरी ने उठाए थे. अब ये सारे सवाल नितिन गडकरी के  सामने हैं.
नितिन गडकरी को महाराष्ट्र के  बाहर लोग जानते नहीं हैं, इसलिए कार्यकर्ताओं और आम जनता के  बीच नए अध्यक्ष के  बारे में कोई राय नहीं है. ऐसे व्यक्तित्व को इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी मिल जाने के फायदे भी हैं और नुक़सान भी. नुक़सान यह है कि ऐसे नेताओं को खुद को मज़बूत करने में ही का़फी व़क्त लग जाता है. अपनी छवि और खुद को राष्ट्रीय स्तर का नेता बनाने और साबित करने में ही उसकी सारी ऊर्जा निकल जाती है. ऐसे में सकारात्मक बदलाव नहीं हो पाता है. पार्टी की हालत पहले से ज़्यादा खराब हो जाती है. ऐसे नेताओं के  अध्यक्ष बनने से फायदा स़िर्फ इतना है कि नया चेहरा होने से पार्टी में नई ऊर्जा का संचार हो सकता है. उसका व्यक्तित्व लोगों के  सामने नहीं होता है, तो ऐसे में अध्यक्ष बनने के  बाद वह क्या करता है, उसी के  अनुसार उसे मापा जाता है. उसकी छोटी सी सफलता भी दूसरे लोगों की बड़ी सफलताओं पर भारी पड़ती है. यह बात और है कि गडकरी के  पास अपनी योग्यता साबित करने के  लिए व़क्तकम है. अगले तीन महीने गडकरी की अग्नि परीक्षा का समय है. पार्टी के  नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों का धैर्य खत्म होता जा रहा है. अगर गडकरी पार्टी में नई जान फूंकने में असफल रहे तो उन पर भी सवाल उठने शुरू हो जाएंगे.

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