anna-jiरालेगण सिद्धी में अन्ना हजारे ने नौ दिनों तक अनशन किया. इस अनशन के साथ साथ जनतंत्र मोर्चा के कार्यकर्ता देश के कई शहरों और क़स्बों में धरना-प्रदर्शन व अनशन करते रहे. नेशनल मीडिया में उन्हें दिखाया नहीं गया, लेकिन क्षेत्रीय अख़बारों और टीवी चैनलों ने स्थानीय आंदोलनों को जमकर दिखाया. देशभर में दो सौ से ज्यादा जगहों पर अन्ना के समर्थन में लोग सड़कों पर उतरे. सरकार को लगातार यह जानकारी मिल रही थी कि 2011 की तरह अगर नेशनल मीडिया ने अलग-अलग शहरों के बारे में ख़बरें दिखानी शुरू कीं तो इस बार का आंदोलन पिछली बार से ज्यादा बड़ा बन सकता है. चार राज्यों में कांग्रेस पार्टी हार चुकी थी. साथ ही यह संसद का आख़िरी सत्र था. अन्ना पहले से ही पत्राचार के माध्यम से इतनी दलीलें इकट्ठी कर चुके थे कि लोकपाल बिल पास न करने का कोई बहाना सरकार के पास बचा नहीं था.
अन्ना ने नौ दिनों तक लगातार अनशन किया. आख़िरी दो दिनों में उनकी तबियत बिगड़ने लगी थी. उनकी किडनी पर असर पड़ने लगा था. अन्ना का संघर्ष और त्याग की रणनीति ने रंग दिखाया और संसद में लोकपाल बिल पारित हो गया. लोकसभा में बिल के पारित होते ही अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा. कई लोगों को यह विश्‍वास नहीं था कि लोकपाल बिल पास हो पाएगा. लोकपाल बिल पास होने की इनसाइड स्टोरी क्या है, ये हम आपको बताते हैं.
अन्ना की तैयारी पक्की थी. उन्होंने मन बना लिया था कि वो इस लोकसभा के भंग होने से पहले लोकपाल बिल पास करा के रहेंगे. उन्होंने इसके लिए कई महीने पहले से प्रधानमंत्री से पत्राचार शुरू किया. और सरकार के जबाव का इंतज़ार भी किया. उन्होंने हर चिट्ठी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उनका वादा याद दिलाया. बार-बार उन्होंने उनके द्वारा लिखे पत्र भेजकर अनशन छो़डने का आग्रह याद दिलाया, साथ ही 27 अगस्त 2011 को संसद में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव की याद दिलाई. इन पत्रों के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी अन्ना को चिट्ठी लिखी. पहले वर्षाकालीन सत्र में लोकपाल बिल लाने का आश्‍वासन मिला, लेकिन सरकार ने बिल पेश नहीं किया. दरअसल, लोकपाल बिल 27 दिसंबर 2011 को ही लोकसभा में पारित हो चुका था. यही बिल 29 दिसंबर 2011 को राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया, लेकिन कोई निर्णय नहीं हो सका. वैसे भी यह एक कमज़ोर बिल था. इस बिल को सेलेक्ट कमेटी को सौंप दिया गया. इस कमेटी में सभी दल के सदस्य थे. इसके चैयरमैन कांग्रेस पार्टी के सत्यव्रत चतुर्वेदी थे. कमेटी में  भाजपा नेता अरुण जेटली भी थे. सेलेक्ट कमेटी ने इस बिल पर गहन चिंतन किया और एक नया बिल तैयार किया, जिसे 23 नवंबर 2012 को वापस राज्यसभा में भेज दिया. यह बिल तब से राज्यसभा में लटका पड़ा था. इसी बात को लेकर अन्ना लगातार पत्र में लिख रहे थे कि अब देर करने की ज़रूरत नहीं है. इसे फौरन पास कर दिया जाए. सत्र पर सत्र बीतता चला गया, लेकिन सरकार ने इसे राज्यसभा में पेश नहीं किया. चूंकि, बिल में बदलाव किया गया था, इसलिए इस नए बिल को राज्यसभा में पास होने के बाद लोकसभा में भी पास होना था. लोकसभा चुनाव से पहले यह आख़िरी सत्र था, इसलिए अन्ना ने इस समय को चुना और प्रधानमंत्री को यह पत्र लिखकर बता दिया कि वो शीतकालीन सत्र के पहले दिन से फिर से अनशन पर बैठेंगे, ताकि इस बिल को पास किया जा सके.
अन्ना ने पहले यह कहा था कि वो रामलीला मैदान में अनशन करेंगे, लेकिन एक महीने पहले उनका एक ब़डा ऑपरेशन हुआ, जिसकी वजह से उन्होंने अपना फैसला बदला और अपने गांव रालेगण सिद्धी के यादव बाबा मंदिर में अनशन करने का फैसला किया. 2011 में जब अन्ना ने अनशन किया था तो लोग स्वत: सड़कों पर उतरे थे. लेकिन अन्ना ने 2013 में सात राज्यों का दौरा किया. इन राज्यों में अन्ना की जनतंत्र यात्रा हर ज़िले में गई. जिसकी वजह से जनतंत्र मोर्चा का संगठन पूरी तरह अन्ना के साथ खड़ा था. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और दिल्ली के हर ज़िले में अन्ना के साथ आंदोलन करने के लिए लोग मिल गए. संसद का जब सत्र शुरू हुआ, तब लोकपाल बिल संसद की कार्रवाई के एजेंडे में नहीं था. लेकिन जैसे ही अन्ना ने अनशन शुरू किया और देश में धरना-प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हुआ तो सरकार ने फ़ौरन लोकपाल बिल को एजेंडे में शामिल किया. सरकार ने कहा, वह इसी सत्र में लोकपाल बिल पास करेगी. लेकिन एक समस्या खड़ी हो गई. समाजवादी पार्टी लोकपाल बिल के विरोध में खड़ी हो गई.
पार्टी ने कहा कि वो संसद चलने नहीं देगी. राज्यसभा में हंगामा शुरू हो गया. इस बीच राहुल गांधी ने आगे बढ़कर देश को यह आश्‍वासन दिया कि किसी भी क़ीमत पर लोकपाल बिल पास किया जाएगा. भारतीय जनता पार्टी ने भी कहा कि वो बिना बहस के भी लोकपाल बिल पास करने पर तैयार है. लेकिन समाजवादी पार्टी टस से मस नहीं हुई. उनका विरोध इस बात को लेकर था कि अगर दो सौ करोड़ के लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रधानमंत्री ईमानदार नहीं हो सकता है तो देश में कोई ईमानदार नहीं है. समाजवादी पार्टी चाहती थी कि प्रधानमंत्री को लोकपाल क़ानून के दायरे से बाहर रखा जाए. वैसे उनकी योजना यह थी कि वो लगातार संसद के दोनों सदनों में हंगामा करेंगे और संसद को चलने नहीं देंगे. अगर लोकसभा और राज्यसभा चलेगी ही नहीं, तो बिल भी पास नहीं हो पाएगा.
पिछली बार अनशन के दौरान एक ग़लती हुई थी कि अन्ना हजारे की टीम की तरफ़ से किसी ने राजनीतिक दलों से संवाद स्थापित नहीं किया था. अनशन के मंच से और मीडिया में टीम अन्ना के लोग लगातार सासदों को गालियां देते रहे. उन्हें भ्रष्ट, मूर्ख, स्वार्थी और अनप़ढ कहते रहे. संवादहीनता की स्थिति में सारी पार्टियां अन्ना के विरोध में खड़ी हो गईं. इस बार चौथी दुनिया के प्रधान संपादक और अन्ना के प्रशंसक संतोष भारतीय जी ने दूसरी योजना बनाई. अनशन की शुरुआत से वो अन्ना के साथ रालेगण सिद्धी में थे. लेकिन बिल पास न होने का ख़तरा मंडराता देख वो दिल्ली लौट आए. इसके कई फ़ायदे हुए. एक तरफ़ मीडिया में अफ़वाहें फैल रही थीं. इस अफ़वाह को ़फैलाने में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का अहम रोल रहा. हर टीवी चैनलों ने एक भ्रम स्थिति पैदा कर दी. संतोष जी ने हर टीवी चैलनों पर बहस में हिस्सा लेकर इस भ्रम की स्थिति को साफ़ किया. सही बात लोगों व पार्टियों के सामने आई. जिसके बाद राहुल गांधी का बयान आया और भारतीय जनता पार्टी की भी स्थिति साफ़ हो गई कि दोनों ही पार्टियां लोकपाल पास कराना चाहती हैं. अब स़िर्फ समाजवादी पार्टी का विरोध बच गया था. उन्होंने समाजवादी पार्टी के दो नेताओं से संसद के अंदर ही मुलाक़ात की और उन्हें इस बिल के लिए समाजवादी पार्टी का समर्थन मांगा. समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव और नरेश अग्रवाल ने संतोष जी को यह आश्‍वासन दिया कि आपकी इच्छा पूरी करने के लिए हम अपनी रणनीति में बदलाव लाएंगे. इसके बाद यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुलायम सिंह से बात की. समाजवादी पार्टी ने यह ़फैसला किया कि वो हंगामा करके बिल को रोकने के बजाए सदन से वाक-आउट करेंगे. इस तरह दोनों सदनों में बहस के बाद लोकपाल बिल पास किया गया और अन्ना ने नौ दिन का अनशन ख़त्म किया.
जो लोकपाल बिल पास हुआ है, उसके बारे में यह भ्रम ़फैलाया गया कि यह एक कमज़ोर बिल है. इससे चूहे भी नहीं पकड़े जा सकते. यह एक मिथ्या है, जिसका पर्दाफ़ाश उस दिन ही हो जाएगा जिस दिन से लोकपाल की संस्था अपना काम शुरू करेगी. इस विषय पर सबसे ज्यादा चिंतित आम आदमी पार्टी नज़र आ रही है. समझने वाली बात यह है कि इस पार्टी का जन्म ही लोकपाल लाने के लिए हुआ था. अब जब यह पास हो गया है, तो वो इस बिल की नु़क्ताचीनी में लगे हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि क्या भ्रष्टाचार के मामले में सीबीआई की जांच पर किसी का दबाव काम करेगा या नहीं. यह भ्रम ़फैलाया जा रहा है कि सीबीआई को स्वायत्ता नहीं दी गई है. यह अर्धसत्य है. इसका साधारण सा जवाब है कि वर्तमान बिल में जांच को स्वायत्ता दी गई है. असलियत यह है कि इस बिल में अभियोजन निदेशालय का गठन होने का प्रावधान है. सीवीसी की रेकमेंडेशन पर अभियोजन निदेशक की नियुक्ति होगी. यहां तक कि यह भी साफ़ किया गया है कि लोकपाल द्वारा रेफर किए गए केसों की जांच करने वाले अधिकारियों का तबादला बिना लोकपाल की मर्ज़ी के न हो सकेगा. जिस केस की जांच लोकपाल के तहत होगी, उसमें शामिल सीबीआई अधिकारी सरकार के अधीन नहीं होंगे और न ही कोई निर्देश लेंगे. सीबीआई ऐसे मामलों में स़िर्फ और स़िर्फ लोकपाल के प्रति ज़िम्मेदार होगी. दूसरा भ्रम लोकपाल की नियुक्ति को लेकर है. जो पुराना बिल था उसमें लोकपाल की नियुक्ति एक कमेटी करेगी, जिसके सदस्य उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दोनों सदनों के नेता, दोनों सदनों के विपक्ष के नेता, क़ानून और गृहमंत्री होंगे. लेकिन अब जो बिल पास हुआ है उसमें इसे बदल दिया गया है. अब इस कमेटी में प्रधानमंत्री, लोकसभा के स्पीकर और नेता प्रतिपक्ष और एक सुप्रीम कोर्ट के जज और न्यायविद होंगे. कहने का मतलब यह कि पहले जो प्रक्रिया थी, उसमें सरकार अपने हिसाब से लोकायुक्त को नियुक्त कर सकती थी, लेकिन अब सेलेक्शन कमेटी में सरकारी पक्ष बहुमत में नहीं है, इसलिए यह उम्मीद करनी चाहिए कि लोकपाल का चुनाव निष्पक्ष होगा. वैसे जो लोग इस बिल को कमज़ोर बता रहे हैं, उनके जनलोकपाल में तो हास्यास्पद तरी़के से मैगसेसे अवार्ड के विजेता को भी सिलेक्शन कमेटी का सदस्य बनाने का प्रावधान था.

जो लोकपाल बिल पास हुआ है, उसके बारे में यह भ्रम फैलाया गया कि यह एक कमज़ोर बिल है. इससे चूहे भी नहीं पकड़े जा सकते. यह एक मिथ्या है, जिसका पर्दाफ़ाश उस दिन ही हो जाएगा, जिस दिन से लोकपाल की संस्था अपना काम शुरू करेगी.

समझने वाली बात यह है कि सरकार ने एक लोकपाल बिल तैयार किया था जो सचमुच कमज़ोर था. लेकिन सेलेक्ट कमेटी में गहन चिंतन के बाद जो लोकपाल बिल तैयार किया गया है, वह अलग है. यह कारगर लोकपाल बिल है. यह ऐसा लोकपाल बिल है, जिसे लागू करने में ज्यादा परेशानी नहीं है. एक बार यह काम करना शुरू करे, तब ही कमियों का भी पता चलेगा. अगर कोई कमियां सामने आईं तो उसमें सुधार की भी गुंजाइश है. जो भी सुधार होना है वह भी संसदीय प्रक्रिया से ही होगा. लेकिन अगर अरविंद केजरीवाल और उनकी तरह दूसरे लोग इस ज़िद पर अड़े रहे कि उनका ही लोकपाल मज़बूत है, बाक़ी सब जोकपाल है तो वो लोकतांत्रिक तरी़के से अपनी मनमर्ज़ी का लोकपाल बनाने को आज़ाद हैं. लेकिन जिस बिल को अन्ना ने मान लिया, जनरल वी के सिंह ने मान लिया, किरण बेदी ने मान लिया, जस्टिस हेगड़े ने भी मान लिया, ऐसे बिल को जोकपाल बताकर अरविंद बिल की खिल्ली नहीं उ़डा रहे, बल्कि संसद और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने वाले विश्‍वसनीय लोगों की खिल्ली उड़ा रहे हैं.

अन्ना के आंदोलन और लोकपाल बिल के पास होने से सबसे ज्यादा नुक़सान आम आदमी पार्टी का हुआ है. उन्हें अन्ना से नाराज़ होने का हक़ है. अफ़वाह फैलाने का हक़ है और जिन लोगों ने अन्ना का साथ दिया, उन्हें अपशब्द कहने के लिए भी माफ़ किया जाना चाहिए.

वैसे केजरीवाल का विरोध लाजिमी भी है. अब वो अन्ना की तरह आंदोलनकारी नहीं हैं. अरविंद एक पार्टी के सुप्रीमो हैं. ऐसी पार्टी, जिसका जन्म ही जनलोकपाल के मुद्दे पर हुआ. अब उनके हाथ से यह मुद्दा निकल गया तो नाराज़गी तो वाजिब है. 2011 के अन्ना आंदोलन के बाद अरविंद केजरीवाल ने अलग पार्टी बना ली. पार्टी बनाने के लिए यह दलील दी गई कि आंदोलन के ज़रिए देश को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ सशक्त लोकपाल नहीं दिया जा सकता है. अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों का मानना है कि चुनावी राजनीति के ज़रिए वो विधानसभाओं और लोकसभाओं में अपने लोगों को भेजेंगे और जब संसद में उनका बहुमत हो जाएगा तो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उनकी पार्टी जन-लोकपाल क़ानून बनाएगी. दो रास्ते, दो विचार और दो नेता. एक तरफ़ अन्ना हैं जो यह कहते हैं कि व्यवस्था परिवर्तन स़िर्फ प्रजातांत्रिक आंदोलन के ज़रिए हो सकता है. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल व्यवस्था का हिस्सा बनकर व्यवस्था बदलने की रणनीति को सही मानते हैं. जबकि इतिहास गवाह है कि जो भी लोग व्यवस्था का हिस्सा बने वो व्यवस्था को बदल नहीं सके. हिंदुस्तान में वामपंथी पार्टियां एक सटीक उदाहरण हैं, जिन्होंने आज़ादी के बाद यह तय किया था कि वो चुनावी राजनीति में हिस्सा लेंगी और व्यवस्था परिवर्तन करेंगी. लेकिन 65 साल बीत गए और वामपंथी पार्टियों ने कई राज्यों में राज भी किया. लोकसभा व राज्यसभा में सदस्य भी भेजे, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन का उनका सपना, सपना ही रहा. समझने वाली बात यह है कि आम आदमी पार्टी के पास तो वामपंथी पार्टियों की तरह कोई समग्र विचारधारा भी नहीं है. केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन की बात तो करते हैं, लेकिन उनके सामने भविष्य का कोई नक्शा नहीं है. जनतंत्र मोर्चे की भूमिका संभवत: अब ख़त्म होती नज़र आ रही है. अब अन्ना को नये आंदोलन के लिए नया संगठन बनाना चाहिए.
आज अन्ना के आंदोलन और लोकपाल बिल के पास होने से सबसे ज्यादा नुक़सान आम आदमी पार्टी का हुआ है. उन्हें अन्ना से नाराज़ होने का हक़ है. अफ़वाह फैलाने का हक़ है और जिन लोगों ने अन्ना का साथ दिया, उन्हें अपशब्द कहने के लिए भी माफ़ किया जाना चाहिए. यह इसलिए क्योंकि इन लोगों ने उनके हाथ से उनका सबसे बहुमूल्य मुद्दा छीना लिया है. अन्ना ने अपने त्याग और संघर्ष से लोकपाल का महासंग्राम जीता है. 2011 के आंदोलन के बाद अरविंद और उनके साथियों ने उनका साथ छोड़ दिया. जनतंत्र मोर्चे के ज़रिए उन्होंने देश में फिर से एक आंदोलन को शून्य से शुरू किया. देश भर की यात्रा की. लोगों को जागरूक किया. और जब मौक़ा आया तो उन्होंने अनशन किया और देश को लोकपाल दिलाने में सफल हुए. कई लोग भारत को समझने में ग़लती करते हैं. भारत की राजनीति और यहां का प्रजातंत्र यांत्रिक नहीं, बल्कि यह एक सजीव चेतना है. यहां चुतर चालाक और अतिबुद्धिमान राजनेता की कोई अहमियत नहीं है. यह देश हमेशा से त्याग को पूजता रहा है. गांधी हों, जयप्रकाश हों या फिर अन्ना, ऐसे लोगों से जो भी कटराएगा, जनता उनके घमंड को चूर-चूर कर देगी.

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