विधानसभा चुनाव आते ही बेपर्द होने लगे राजनीतिक दल, तेज हुआ दंगल बेटे और बाप की कुश्ती सत्ताग्रह का दुराग्रह चरम पर
राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने सामाजिक मर्यादा रौंद डाली. मुलायम परिवार का सत्ताग्रह न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश के आधुनिक राजनीतिक इतिहास का पहला काला अध्याय बन गया है. सत्ताग्रह के दुराग्रह ने चाचा-भतीजे और पिता-पुत्र के रिश्ते की ऐसी-तैसी कर दी. जबकि सत्ताभोग के लिए ही मुलायम ने प्रदेश की राजनीति में परिवारवाद का सृजन किया था.
समाजवाद के नाम पर परिवारवाद की स्थापना की मुलायम-यात्रा के जरिए ही प्रो. रामगोपाल यादव से लेकर शिवपाल यादव, अखिलेश यादव से लेकर डिंपल यादव, धर्मेंद्र यादव से लेकर अक्षय यादव, तेज प्रताप यादव, आदित्य यादव और तमाम रिश्तेदार राजनीति के अलग-अलग पायदान पर स्थापित होते चले गए. यह प्रयास आगे भी जारी था. अपर्णा यादव से लेकर कई अन्य मुलायम पीढ़ियां सियासत के दरवाजे पर कतार बांधे खड़ी थीं, लेकिन इस रिश्ताभियान में अचानक बाधा पड़ गई.
उत्तर प्रदेश के विशाल राजनीतिक परिवार में सत्ता की महत्वाकांक्षा ने सारी मर्यादाएं तोड़ डालीं. जिस रिश्ते से वशीभूत मुलायम ने सारी राजनीतिक मर्यादा ताक पर रख कर बेटे को मुख्यमंत्री बनाया था, उस बेटे ने रिश्ते की मर्यादा ताक पर रख दी और पिता को हटा कर खुद को समाजवादी पार्टी का अलमबरदार घोषित कर दिया. सत्ता लोलुपता का मुगलकालीन इतिहास दोहराया गया. अब दोनों साथ चुनाव लड़ें या अलग-अलग, गुणा-गणित साथ-साथ हो या अलग-अलग, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. भारतीय समाज ने पिता-पुत्र संघर्ष के उत्तरार्ध को स्वीकार नहीं किया है. समाजवादी पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता और पुराने प्रतिबद्ध समाजवादियों की ऐसी राय अच्छे भविष्य के संकेत नहीं दे रही है.
समाजवादी पार्टी के इस ऐतिहासिक रार में राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक मर्यादा के साथ-साथ कृतज्ञता के भाव की भी मिट्टी पलीद हो गई. मुलायम की कृपा से ऊंचे पदों पर विराजमान होते रहे लोगों ने भी ऐसे मौके पर मुलायम का साथ छोड़कर अपनी नैतिक-ऊंचाई का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से परेहज नहीं किया. इनमें किरणमय नंदा, अहमद हसन, नरेश अग्रवाल, कुंअर रेवती रमण सिंह, अवधेश प्रसाद, धर्मेंद्र यादव जैसे स्वनामधन्यों के नाम अग्रगण्य हैं. राजनीतिक अवसरवाद के ये संकेत-चेहरे मुलायम के खिलाफ 1 जनवरी 2017 को आयोजत विद्रोह सभा में मंच पर विराजमान थे. सत्ता का लोभ मनुष्य को क्या-क्या बना देता है.
उधर, मजीवस्य जीवयो भोजनमफ की शाश्वतता को बहाल रखते हुए अन्य राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी के समापन की मनौती और सत्ता-स्वाद की बंटौती का अभी से जतन करने लगे हैं. बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने तो मान ही लिया कि सपा के इस युद्ध का फायदा उन्हें मिलेगा. कलह से विक्षुब्ध मुसलमानों का वोट उन्हें प्राप्त होगा और वह दलित-मुस्लिम समीकरण के कंधे पर सवार होकर सत्ता तक पहुंच जाएंगी. भाजपा अलग अपनी स्वाद-साधना में लगी है और 40 सीटों से सीधे तीन सौ पर पहुंचने का ख्वाब बुनने लगी है.
कांग्रेस भी सत्ता का कुछ टुकड़ा पाने की अभिलाषा में कभी सपा से गलबहियां लेने तो कभी बसपा से झप्पी लेने की कोशिश में इधर-उधर डोल रही है. आम लोगों की रायशुमारी और सर्वेक्षण पर पतंगबाजियां हो रही हैं, लेकिन वह सर्वेक्षण सपा की तख्तापलट-सभा के काफी पहले किया गया था, जो बदली हुई स्थितियों में प्रासंगिक नहीं रहा. उस सर्वेक्षण के आधार पर समाजवादी पार्टी को पहले पायदान पर, भाजपा को दूसरे और बसपा को तीसरे स्थान पर रखा जा रहा है, लेकिन अखिलेश यादव द्वारा खुद को राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित करने और पार्टी मुख्यालय पर जबरन कब्जा करने के बाद उनका ग्राफ अचानक नीचे चला गया.
शिवपाल के खिलाफ अखिलेश के आक्रोश-प्रसंग पर आम लोगों ने अखिलेश के प्रति अपनी सहानुभूति जताई थी और तब उनका सियासी ग्राफ ऊपर था, लेकिन बाद की प्रगति ने अखिलेश के कद की प्रगति अचानक रोक दी. जब तक वे अपने अधिकार के लिए जूझ रहे थे, तब तक लोग अखिलेश के साथ थे, लेकिन जब सत्ताकांक्षी विधायकों की जमात लेकर उन्होंने अपने पिता मुलायम के अस्तित्व पर ही प्रहार किया, तब लोगों को यह रास नहीं आया. यह सर्वेक्षण के बाद की प्रगति है. यादव समुदाय से लेकर समाज के अन्य तबकों में भी पिता के खिलाफ बेटे की बगावत पच नहीं पाई है. खुद समाजवादी पार्टी से जुड़े लोग ही इसे पचा नहीं पा रहे हैं.
समाजवादी पार्टी के विद्रोह के दिन, यानि, एक जनवरी 2017 को जो भीड़ रामगोपाल-नियोजित सभा में जुटी थी और जो भीड़ समाजवादी पार्टी के दफ्तर पर अखिलेश समर्थकों द्वारा की गई तोड़फोड़ और कब्जेबाजी की हरकतों की चश्मदीद थी, उसमें से अधिकांश लोगों ने खुली राय दी कि यह ठीक नहीं हो रहा. आम लोग भी सपा मुख्यालय पर हो रही उस ऐतिहासिक घटना के चश्मदीद बने थे, जिन्होंने खुलेआम कहा कि इस तरह की हरकतों से लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ गईं. बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में समाजवादी पार्टी के लिए अब तक प्रतिबद्ध रहा मतदाता भी पूरी तरह भ्रम में भटक गया है कि वह किधर जाए. बेटे की तरफ या पिता की तरफ! मतदाताओं का यह भ्रम उसे सपा में वोट डालने से रोकेगा, इसके साफ संकेत मिल रहे हैं.
समाजवादी पार्टी के ही एक वरिष्ठ नेता बोले कि डॉ. लोहिया ने कहा था, सुधरो या टूटो, ये सुधर नहीं सकते तो इनका टूट जाना ही बेहतर है. सपा मुख्यालय परिसर में ही एक किनारे खड़े कुछ अधेड़ कुछ बुजुर्ग समाजवादी मुलायम के योगदान और पार्टी खड़ा करने के उनके समर्पण को रेखांकित करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि पुत्र मोह में नेताजी की फजीहत हो गई. इसके बावजूद सपा के ये सामान्य नेतागण अखिलेश और उनके समर्थकों की ऐसी कार्रवाई को फूहड़ और अराजक बताने से नहीं हिचक रहे थे. उनका कहना था कि ऐसे पिता के साथ अखिलेश को ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए थी.
लेकिन शिवपाल ने भी जिस तरह का रुख अपनाया और जिस तरह की कार्रवाइयां कीं, उसे सराहा नहीं जा रहा है. सरकार से लेकर संगठन तक खींचतान और अखिलेश समर्थकों की बर्खास्तगी की सिलसिलेवार कार्रवाइयों ने तल्खी बढ़ाने का काम किया. अखिलेश के प्रदेश अध्यक्ष होते हुए भी सांगठनिक फेरबदल और टिकटों के बंटवारे में अखिलेश की उपेक्षा ने कलह को गहराने का काम किया. अखिलेश को हटाकर जब शिवपाल खुद प्रदेश अध्यक्ष बन गए तो उसने आग में बारूद का काम किया. मुलायम का सहारा लेकर शिवपाल अनाप-शनाप फैसले लेने लगे. अखिलेश के विरोध के बावजूद माफिया सरगना मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का सपा में विलय करा दिया. अपराधिक छवि के लोगों को धड़ल्ले से टिकट बांटा जाने लगा. फिर मंत्रिमंडल से बर्खास्तगी और संगठन से निष्कासन की परस्पर प्रतिक्रियात्मक कार्रवाइयों ने माहौल और खराब किया.
फिर शिवपाल ने अखिलेश के तीन खास मंत्रियों राम गोविंद चौधरी, अरविंद सिंह गोप और पवन पांडेय का टिकट काट कर सीधी भिड़ंत का न्यौता दे दिया. जबकि अखिलेश मंत्रिमंडल के दसों निष्कासित मंत्रियों को टिकट दिया गया. माफिया सरगना अतीक अहमद, भ्रष्टाचार के आरोपी मुकेश श्रीवास्तव, पत्नी-हंता अमनमणि त्रिपाठी और माफिया सरगना मुख्तार अंसारी के भाई सिगबतुल्लाह को भी टिकट दे दिया गया. इस पर अखिलेश बिफर पड़े. अखिलेश ने अपना अधिकार मांगा, जिसे पार्टी ने देने से मना कर दिया. इसमें पार्टी सुप्रीमो मुलायम ने भी शिवपाल का ही साथ दिया.
मुलायम यह नहीं सोच पाए कि जिस पुत्र को उन्होंने पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था, जिसे बाद में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया, उसे उसकी प्रतिष्ठा के मुताबिक उसके सांगठनिक अधिकार भी मिलने चाहिए थे. मुलायम पुराने समय में जी रहे थे. उन्होंने बदलते समय का आकलन नहीं किया और शिवपाल की घेरेबंदी ने उन्हें बदलते समय का एहसास नहीं होने दिया. जबकि वास्तविकता यही थी कि अखिलेश के रूप में नया युग आ चुका था. अखिलेश ने अपना अधिकार प्राप्त करने में राजनीतिक-अराजनीतिक और लोकतांत्रिक-अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों का मिश्रण बनाया और पार्टी पर सीधे कब्जा कर लिया.