किताबों को लेकर वैसे तो दुनिया में कई विवाद हुए हैं, लेकिन ज़्यादातर विवाद पुस्तक में प्रकाशित तथ्यों को लेकर होते हैं. वैसे भारत में यह पहली बार हो रहा है, जब किसी किताब की विषयवस्तु पर नहीं, बल्कि उसकी टाइमिंग को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं. दरअसल, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेबसी और उनकी गांधी परिवार के इशारे पर नाचने वाली छवि उजागर करती इन किताबों ने कांग्रेस को असहज कर दिया है. लोकसभा चुनाव के समय इन किताबों का बाज़ार में आना कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन गया है. सच्चाई सामने आने से मनमोहन, सोनिया, राहुल और उनके वफ़ादार सिपहसालार परेशान हैं, लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि देश की जनता पिछले दस वर्षों से प्रधानमंत्री के रूप में एक ऐसे व्यक्ति को देख रही है, जिसके पास स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता नहीं है. ये किताबें प्रधानमंत्री की इसी लाचारी को दस्तावेज़ी शक्ल प्रदान करती हैं
1अंग्रेजी में प्रकाशित दो किताबों ने कांग्रेस पार्टी को परेशान कर दिया है. पहली किताब-द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर: द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह संजय बारू ने लिखी है. बारू संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) की प्रथम सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके हैं. दूसरी किताब-क्रूसेडर ऑर कांस्पिरेटर कोलगेट एंड अदर ट्रूथ पीसी पारख ने लिखी है, जो संप्रग की प्रथम सरकार में कोयला सचिव रह चुके हैं. संजय बारू और पीसी पारख ने अपनी किताबों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ज़िक्र निहायत लाचार, गंभीर निर्णय लेने में अक्षम और सोनिया गांधी के इशारे पर काम करने वाले व्यक्ति के रूप में किया है. ये किताबें संप्रग सरकार के समय हुए घोटालों, ख़ासकर कोयला घोटाले के संबंध में तथ्यात्मक जानकारी मुहैया कराती हैं. वैसे संजय बारू और पीसी पारख ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विषय में जो बातें लिखी हैं, उन्हें देश की 120 करोड़ जनता भी बखूबी जानती है. जनता को इस बात का इल्म है कि नई दिल्ली स्थित सात रेस कोर्स (प्रधानमंत्री निवास) में बैठे उनके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दस जनपथ (कांग्रेस अध्यक्ष का निवास) में विराजमान सोनिया गांधी के हुक्म के ग़ुलाम हैं. इन किताबों का महत्व यह भी है कि इसने सोनिया गांधी को लेकर त्याग की मूर्ति वाले मिथक को तोड़ा है, क्योंकि किताबों के खुलासे से यह बात साबित होता है कि सोनिया गांधी बग़ैर प्रधानमंत्री बने भी वे सभी महत्वपूर्ण ़फैसलें लेती थी, जिसे बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेना चाहिए था.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मनमोहन सिंह जैसा कमज़ोर और दिग्भ्रमित प्रधानमंत्री भी हो सकता है, इसका अंदाज़ा किसी को नहीं था. दरअसल, इस देश में जब भी कांग्रेस की सरकार बनी और प्रधानमंत्री किसी ग़ैर गांधी परिवार का शख्स बना, तो उसकी हालत ऐसी ही हुई है. मैं चार साल पुरानी एक घटना का ज़िक्र करना यहां लाज़िमी समझता हूं. उस वक्त देश में चर्चित टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर संसद से लेकर सड़क तक हंगामा हो रहा था. काफ़ी दिनों बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मीडिया के समक्ष अपनी चुप्पी तोड़ी और ख़ुद को हाईस्कूल का एक नादान विद्यार्थी कहकर सबको चौंका दिया. बहरहाल, उस समय भी प्रधानमंत्री की इस स्वीकारोक्ति से जनता को कोई आश्‍चर्य नहीं हुआ. एक बेबस प्रधानमंत्री की इस व्यथा को देखकर इंदिरा गांधी की कृपा से राष्ट्रपति बने ज्ञानी जैल सिंह की वह बात याद आती है, जब उन्होंने कहा था, अगर इंदिरा कहें, तो मैं झाड़ू लगाने को भी तैयार हूं. पूर्व राष्ट्रपति रहीं प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के बारे में भी कई तरह की बातें कही जाती हैं. हालांकि मनमोहन सिंह ने तो गांधी परिवार की चाटुकारिता करने में पुराने सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए हैं. यही वजह है कि वह ख़ुद को सक्षम प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित नहीं कर पाए. कथित त्याग की मूर्ति कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर बातें यहीं ख़त्म नहीं होतीं. मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी वर्ष 2004 में कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार थे. उनकी काबिलियत और राजनीतिक समझ पर विपक्षी पार्टियों को भी संदेह नहीं था, लेकिन सोनिया गांधी और उनके चापलूस सिपहसालार नहीं चाहते थे कि प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री बनें, क्योंकि प्रणब मुखर्जी ख़ुद में एक संस्थान की तरह हैं. यह बात कांग्रेसी नेताओं के साथ-साथ सोनिया गांधी भी जानती थीं. इसलिए दोनों बार एक योग्य राजनेता को प्रधानमंत्री न बनाकर एक ऐसे शख्स को इस पद पर बैठाया गया, जो स्वयं को प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि सोनिया और गांधी परिवार का सेवक मानता है.
बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देखकर ऐसा लगा कि वह अपने दस वर्षों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री पद पर नौकरी करते रहे. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की लाचारी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कैबिनेट एक अध्यादेश जारी करती है और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी खुलेआम उस अध्यादेश को बकवास क़रार देते हुए कूड़े में फेंकने की बात कहते हैं. यहां भी मनमोहन सिंह राहुल के आगे नतमस्तक हो गए और विदेश से लौटने के बाद उन्होंने अध्यादेश वापस लेने का फैसला किया. पिछले दस वर्षों में हुई ये तमाम घटनाएं यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि मनमोहन सिंह भले ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हों, लेकिन उनकी अपनी कोई सोच या अपना कोई निर्णय नहीं है. दरअसल, अपनी इस हालत के लिए मनमोहन सिंह स्वयं ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि वह प्रधानमंत्री पद की गरिमा का अनुभव पिछले दस वर्षों में नहीं कर पाए. टेलीविजन पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी को आपने ज़रूर किसी समारोह में एक साथ देखा होगा. अगर आपको कुछ विजुअल्स याद होंगे, तो आपने देखा होगा कि सोनिया और राहुल की मौजूदगी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक निरीह प्राणी की तरह दिखते हैं. सोनिया के समक्ष बोलते समय अक्सर उनकी आवाज़ लड़खड़ाने लगती है. इसी अदृश्य ख़ौफ़ ने मनमोहन सिंह को न तो असरदार प्रधानमंत्री रहने दिया और न ही उनका व्यक्तित्व क़ायम रह सका. संजय बारू की किताब भी इस बात की तस्दीक करती है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कोई भी ़फैसला अपनी मर्ज़ी से नहीं, बल्कि सोनिया गांधी की इच्छानुसार लेते थे. कहने का आशय यह कि प्रधानमंत्री के लिए देशहित से ज़्यादा ज़रूरी सोनिया और राहुल को खुश करना था. दरअसल, संजय बारू और पीसी पारख की हालिया किताबों से न स़िर्फ प्रधानमंत्री पद की गरिमा धूमिल होने का पता चलता है, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय में दस जनपथ का कितना दख़ल रहा, यह बात भी साबित होती है, क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय में होने वाली तमाम नियुक्तियां मनमोहन की मर्जी से नहीं, बल्कि सोनिया गांधी की मर्जी से होती थीं.
पीसी पारख ने अपनी किताब-क्रूसेडर ऑर कांस्पिरेटर कोलगेट एंड अदर ट्रूथ में पूरी बेबाकी से लिखा है कि तत्कालीन केंद्रीय कोयला मंत्री शिबू सोरेन और कोयला राज्य मंत्री दसारी नारायण राव समेत कई सांसदों ने कोयला मंत्रालय में सुधार प्रक्रियाओं को बाधित किया. उन्होंने कोल ब्लॉकों की खुली नीलामी के प्रस्तावों का विरोध किया. पारख के मुताबिक़, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कोल ब्लॉकों की नीलामी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए रजामंद हो गए थे, लेकिन अपने चहेते मंत्रियों और सांसदों की दख़लंदाज़ी से वह ऐसा करने में असमर्थ रहे. पारख की किताब यह बताती है कि कोल ब्लॉक के आवंटन पर सीएजी की रिपोर्ट ने भी यूपीए सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया था. रिपोर्ट के मुताबिक़, कोयला सचिव पीसी पारख द्वारा वर्ष 2004 में की गईं उन सिफ़ारिशों को नज़रअंदाज़ करना गलत था, जिनमें नीलामी के ज़रिये कोल ब्लॉकों के आवंटन की बात कही गई थी. जिस समय सीएजी ने यह टिप्पणी की थी, उस दौरान कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास था. तत्कालीन कोयला सचिव पीसी पारख ने स्वीकार किया कि उनके ऊपर कुछ ख़ास कंपनियों को कोल ब्लॉक आवंटित करने के लिए दबाव था. पारख के अनुसार, अगर प्रधानमंत्री ने इस मामले में अपनी इच्छाशक्ति दिखाई होती, तो शायद करोड़ों रुपये का कोयला घोटाला न होता. हैरानी की बात यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोटालेबाज़ों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बजाय कोयला सचिव पारख को भी नौकरी करने की सलाह दे डाली थी.
पारख ने अपनी किताब में सीबीआई पर भी गंभीर आरोप लगाए हैं. उनके मुताबिक़, सीबीआई ने हिंडाल्को को ओडिशा के तालाबीरा कोल ब्लॉक आवंटन मामले में उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज किया है, लेकिन प्रधानमंत्री के विरुद्ध कोई एफआईआर दर्ज़ नहीं की गई, जबकि तालाबीरा कोल ब्लॉक के आवंटन का ़फैसला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ही लिया था. पारख ने अपनी किताब में राजग सरकार के दौरान कोयला मंत्री रहीं ममता बनर्जी पर भी पद के दुरुपयोग का आरोप लगाया है. पारख के अनुसार, तृणमूल कांग्रेस प्रमुख की मेहरबानी से पार्टी के 50 कार्यकर्ताओं को नॉर्थ ईस्टर्न कोल फील्ड्स में नियमों को ताक पर रखकर नौकरी दी गई. बहरहाल, संजय बारू और पीसी पारख की किताबों के बारे में कई वरिष्ठ पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों का कहना है कि ये दोनों किताबें ऐसे समय पर प्रकाशित हुई हैं, जब देश में लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं. लिहाज़ा कांग्रेस विरोधी पार्टियों को इसका राजनीतिक लाभ मिल सकता है. हालांकि जो लोग ऐसी दलील दे रहे हैं, उनसे सहमत नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि ऐसे गंभीर मुद्दों के लिए इससे बेहतर समय और क्या हो सकता है?
आज देश की जनता नई सरकार चुनने जा रही है, लिहाज़ा उसे अपनी निवर्तमान सरकार की करतूतों के बारे में पता होना चाहिए. यही लोकतंत्र के लिए सही भी है, वरना देश फिर किसी अंधेरी सुरंग की ओर अग्रसर हो सकता है. जो लोग किताबों की टाइमिंग को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं, उनकी बुद्धि पर तरस आता है, क्योंकि जब ये किताबें ठोस तथ्यों पर आधारित हैं, तो इसके प्रकाशन और टाइमिंग पर सवाल उठाना समझ से परे है. फर्ज़ करें, अगर ये किताबें लोकसभा चुनाव के बाद प्रकाशित होतीं, तो क्या ये तमाम तथ्य और जानकारियां बदल जाते? अगर चुनाव के बाद ये किताबें प्रकाशित होतीं, तो इस बात की क्या गारंटी है कि इसे राजनीति से प्रेरित न माना जाता?
क्या उस समय यह सवाल न उठता कि जब किताबें छपकर तैयार थीं, तो उन्हें नई सरकार बनने तक पाठकों के बीच  आने से क्यों रोका गया? दूसरी बात यह कि हिंदुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और यहां हर साल किसी न किसी राज्य में विधानसभा के चुनाव होते रहते हैं. मिसाल के तौर पर इसी साल अक्टूबर-नवंबर में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं. वहां भी कांग्रेस-एनसीपी की गठबंधन सरकार है. अगर ये किताबें अक्टूबर में प्रकाशित होतीं, तब भी सवाल उठता कि यह किसी पूर्वाग्रह के तहत लिया गया फैसला है.


चौथी दुनिया की रिपोर्ट सच साबित हुई
चौथी दुनिया ने अप्रैल, 2011 में ही कोयला घोटाले का पर्दाफ़ाश किया था. उस वक्त न तो सीएजी की रिपोर्ट आई थी और न ही किसी ने यह सोचा था कि इतना बड़ा घोटाला भी हो सकता है. उस वक्त इस घोटाले पर किसी ने विश्‍वास नहीं किया. जिन्हें विश्‍वास भी हुआ, तो आधा-अधूरा हुआ. चौथी दुनिया ने आपसे अप्रैल, 2011 में जो बातें कहीं, उस पर वह आज भी अडिग है. हमारी तहक़ीक़ात के मुताबिक़, यह कोयला घोटाला कम से कम 26 लाख करोड़ रुपये का है और यह देश के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है. उस समय किसी ने हमारी ख़बर पर गंभीरता नहीं दिखाई, लेकिन संसद में पेश होने से पहले सीएजी की रिपोर्ट लीक हो गई और मार्च 2012 में टाइम्स ऑफ इंडिया अख़बार ने इस बाबत सीएजी की रिपोर्ट प्रकाशित कर दी, जिसे लेकर संसद में उन दिनों ज़ोरदार हंगामा हुआ. सीएजी की यह रिपोर्ट घोटाले की बात करती है, लेकिन उसने घोटाले की रक़म कम बताई है. सीएजी की लीक रिपोर्ट के मुताबिक़, यह घोटाला दस लाख सत्तर हज़ार करोड़ रुपये का है, लेकिन सरकार की तरफ़ से यह ख़बर दी गई कि सीएजी खुद अपनी रिपोर्ट पर क़ायम नहीं है और जो ख़बर छपी है, वह झूठी है. सीएजी की एक चिट्ठी का हवाला देकर प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह ख़बर फैलाई. मज़ेदार बात यह है कि अगले ही दिन इस सीएजी की पूरी सच्चाई बाहर आ गई, जिसका निष्कर्ष यही निकलता है कि सीएजी ने घोटाले से इंकार नहीं किया है. वैसे समझने वाली बात यह है कि इस घोटाले के बारे में सभी पार्टियों को पहले से पता था, लेकिन फिर भी वे ख़ामोश रहीं. अख़बार में सीएजी की रिपोर्ट छपते ही मामले ने तूल पकड़ा और संसद में शोर-शराबा शुरू हो गया. कोयले को काला सोना कहा जाता है, काला हीरा कहा जाता है, लेकिन सरकार ने इस हीरे की बंदरबांट कर डाली और अपने प्रिय-चहेते पूंजीपतियों एवं दलालों को मुफ्त ही दे दिया.


 
प्रधानमंत्री ने इच्छाशक्ति नही दिखाई : पारख 
पूर्व कोयला सचिव पीसी पारख की किताब को लेकर देश में इन दिनों सियासी घमासान मचा हुआ है. इस किताब के ज़रिये यह खुलासा किया गया है कि अगर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी लाचारी छोड़कर इच्छाशक्ति दिखाई होती, तो शायद करोड़ों रुपये के कोयला घोटाले से बचा जा सकता था. घोटाले और प्रधानमंत्री से जुड़े इन्हीं मसलों पर चौथी दुनिया संवाददाता अभिषेक रंजन सिंह ने क्रूसेडर ऑर कांस्पिरेटर कोलगेट एंड अदर ट्रूथ के लेखक  पीसी पारख  से बातचीत की, प्रस्तुत है उसके मुख्य अंश… 
पारख साहब, आपने क्रूसेडर ऑर कांस्पिरेटर कोलगेट एंड अदर ट्रूथ नामक अपनी किताब में कोयला घोटाले के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ज़िम्मेदार ठहराया है. आपके इन आरोपों की सच्चाई क्या है? 
जी बिल्कुल, मैंने अपनी किताब में कोयला घोटाले के लिए प्रधानमंत्री को उत्तरदायी ठहराया है, क्योंकि इसे उनकी विवशता कहें या अकर्मण्यता कि वह सब कुछ जानते हुए भी कोयले की लूट नहीं रोक सके. मंत्रालय में बतौर कोयला सचिव मैंने पत्र के ज़रिये प्रधानमंत्री कार्यालय को सूचित किया. यहां तक कि मैंने स्वयं प्रधानमंत्री से मिलकर उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया, लेकिन मेरी तमाम कोशिशें नाक़ाम साबित हुईं. जहां तक आरोपों की सच्चाई का प्रश्‍न है, तो मेरी किताब नवीन तथ्यों और जानकारियों से युक्त है.
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने आपकी किताब को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं, उनके मुताबिक़, लोकसभा चुनाव में भाजपा को मदद पहुंचाने के लिए यह किताब लिखी गई है. कांग्रेस के इन आरोपों के बारे में आपका क्या कहना है? 
क्या अब लेखकों को राजनीतिक दलों से यह इज़ाज़त लेनी पड़ेगी कि उन्हें अपनी किताब कब लिखनी चाहिए. लेखन एक लंबी और सतत प्रक्रिया है. कोई भी किताब रातोरात प्रकाशित नहीं हो जाती. इसमें काफ़ी समय लगता है. इस किताब को लिखने में मुझे क़रीब तीन वर्षों का समय लगा. किताबों को राजनीतिक चश्मे से देखना ग़लत है. अगर किसी व्यक्ति को सवाल उठाना है, तो वह किताब में प्रकाशित तथ्यों पर प्रश्‍न करे.
क्या इसे महज़ इत्तेफ़ाक ही कहा जाएगा कि लोकसभा चुनाव के समय न सिर्फ आपकी किताब बाज़ार में आई, बल्कि प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब भी प्रकाशित हुई है, क्योंकि इन दोनों ही किताबों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं? 
इसे आप बिल्कुल संयोग कह सकते हैं कि ये किताबें ऐसे समय पर प्रकाशित हुई हैं, जब देश में लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं. फर्ज़ करें, अगर ये किताबें चुनाव के बाद बाज़ार में आतीं, तो क्या इनमें लिखी गई बातें बदल जातीं. मेरे ख्याल से इनकी टाइमिंग को लेकर बेवजह सवाल उठाए जा रहे हैं.
आपने अपनी किताब में कोयला मंत्रालय में सुधार प्रक्रिया की बात कही है. साथ ही आपने तत्कालीन कोयला मंत्री शिबू सोरेन पर भी आरोप लगाए हैं, आख़िर यह मामला क्या था? 
बेशक, कोयला सचिव रहते हुए मैंने सुधार के कई प्रस्तावों के विषय में प्रधानमंत्री जी को अवगत कराया. प्रधानमंत्री मेरे सुझाव से सहमत थे, लेकिन वह अपने मंत्रियों और सांसदों के आगे बेबस नज़र आते थे. कोयला मंत्रालय में न स़िर्फ विभागीय मंत्री, बल्कि अन्य मंत्रियों और सांसदों का हस्तक्षेप बढ़ने लगा था. मैंने ये सारी बातें प्रधानमंत्री को बताईं, लेकिन उन्होंने कुछ करने की बजाय मुझे शांतिपूर्वक नौकरी करने की सलाह दे डाली.
कोयला ब्लॉक आवंटन में घोर अनियमितताएं बरती जा रही थीं, बावजूद इसके आपने उस वक्त कुछ नहीं किया. ऐसे में सेवानिवृत्ति के बाद किताब के ज़रिये उसका खुलासा करने का क्या अर्थ है?
कोयला घोटाले को लेकर आज पूरा देश शर्मसार है, लेकिन यूपीए सरकार को इसे लेकर कोई पछतावा नहीं है. इस संबंध में मैंने लिखित एवं मौखिक जानकारी सरकार को दी थी, लेकिन उसने इसे संजीदगी से नहीं लिया. अगर केंद्र सरकार ने इस मामले में सक्रियता दिखाई होती, तो शायद कोयले की लूट को रोका जा सकता था, लेकिन सरकार, ख़ासकर प्रधानमंत्री ने भी अपना दायित्व नहीं निभाया.

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