दिल्ली में आजकल हर जगह केजरीवाल की गूंज सुनाई दे रही है. रेडियो पर केजरीवाल, मेट्रो में केजरीवाल, ऑटो पर केजरीवाल, होर्डिंग्स में केजरीवाल. हर जगह केजरीवाल नज़र आ रहे हैं. इसकी वजह यह है कि दिल्ली में होने वाला विधानसभा चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए अस्तित्व का सवाल है. समस्या यह है कि आम आदमी पार्टी के पास केजरीवाल के चेहरे के अलावा कुछ नहीं बचा है. पार्टी कार्यकर्ता निराश हैं. कुछ को छोड़कर पार्टी का हर बड़ा-छोटा नेता भविष्य को लेकर चिंतित है. कई पुराने साथी पार्टी छोड़ चुके हैं. विधायकों और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का पार्टी से पलायन भी शुरू हो गया है. सबसे ज़्यादा ख़तरे की बात यह है कि पार्टी को लेकर जनता भी उदासीन है. पार्टी नेताओं को लगता है कि पार्टी आज ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां चुनाव में लगा एक झटका पार्टी को इतिहास बना सकता है. सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी वन टाइम वंडर या एक बार चमत्कार दिखाने वाली पार्टी बनकर रह जाएगी या इस बार भी अपनी साख बचाने में कामयाब रहेगी? 
वर्ष 2013 और आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में काफी फ़़र्क है. 2013 में केजरीवाल एक नए और आंदोलनकारी नेता के रूप में लोगों के सामने आए थे. लोगों की उनसे कुछ अपेक्षाएं थीं, आशाएं थीं. उनकी बातों से सच झलकता था. जब वह बोलते, तो लगता था कि वह आम आदमी के दु:खों और तकलीफों को समझते हैं. वह लोगों की नज़रों में एक हीरो थे. लेकिन, राजनीति में सब कुछ बदलने में एक दिन का समय काफी होता है. यहां तो एक साल बीत गए हैं. पिछले एक साल में दिल्ली की राजनीति में सब कुछ बदल गया. दिल्ली ने एक धरना देने वाला मुख्यमंत्री देखा. रात के अंधेरे में छापा मारने वाले मंत्रियों को देखा. नेतागीरी देखी. फरेब देखा. वीआईपी कल्चर ख़त्म करने का दावा करने वाले नेताओं को बड़े-बड़े बंगलों में रहते देखा. जनता के पैसों से बड़ी-बड़ी गाड़ियों में सफर करते मंत्रियों को देखा. और फिर, प्रधानमंत्री बनने की चाहत में मुख्यमंत्री की कुर्सी को लात मारने वाला नेता भी देखा. जनता को आम आदमी पार्टी के पैंतरे, उसका बर्ताव, उसकी भाषा पसंद नहीं आए. आम आदमी पार्टी के नेताओं ने खुद के बनाए आदर्शों और मूल्यों को खुद ही रौंद डाला. यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को पूरी तरह से खारिज कर दिया. पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी. सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव में हुए नुक़सान की भरपाई कर पाएगी? इसलिए सबसे पहले लोकसभा चुनाव के नतीजों को समझते हैं..

केजरीवाल का अब तक का राजनीतिक इतिहास अपरिपक्वता और अनुभवहीनता को प्रदर्शित करता रहा है. भारत की राजनीति एक संकट काल से गुजर रही है. इस परिदृश्य में वही नेता विकल्प बन सकता है, जो परिपक्व, अनुभवी, मृदुभाषी और वैचारिक दृष्टि से संपन्न हो तथा आलोचना बर्दाश्त करने की क्षमता रखता हो. अफ़सोस, अरविंद केजरीवाल में ये सारे गुण नहीं हैं.

लोकसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी का दावा था कि वह दिल्ली की हर सीट जीत लेगी. पार्टी के अंदर भी यह सोच थी कि दिल्ली की सारी सीटें आराम से उनकी झोली में चली आएंगी. यही वजह है कि अरविंद केजरीवाल के कई दोस्त, जो पत्रकार थे, वे राजनीति में आए और दिल्ली से चुनाव लड़े. उनका यह अनुमान था कि 49 दिनों की सरकार के दौरान अरविंद केजरीवाल ने ऐसा कमाल कर दिखाया है कि पार्टी दिल्ली की सारी सीटें आराम से जीत जाएगी. राजनीति में सबसे बड़ा दुश्मन ग़लत आकलन और अति उत्साह होता है. यह ग़लत आकलन का ही नतीजा था कि केजरीवाल को लगा कि जैसा रिस्पांस दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिला, वैसा ही रिस्पांस पूरे देश में मिलेगा. पार्टी का आकलन यह था कि लोकसभा चुनाव में किसी को भी बहुमत नहीं मिलेगा और ऐसे में अगर आम आदमी पार्टी 50-60 सीटें भी जीत जाती है, तो केजरीवाल जोड़-तोड़ की राजनीति से देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगे. ग़लत आकलन और अति उत्साह का नतीजा यह निकला कि दिल्ली की कुर्सी भी हाथ से गई और देश भर में 400 से ज़्यादा सीटों पर आम आदमी पार्टी की जमानत जब्त हो गई.
आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी से दिल्ली में बुरी तरह हारी, लेकिन फिर भी केजरीवाल की तरफ़ से यह दलील दी जा रही है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी का वोट शेयर बढ़ा है. पार्टी के प्रवक्ता बड़े ही शान से हार को जीत बता रहे हैं. वैसे यह बात सही है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी को लोकसभा चुनाव में विधानसभा चुनाव से ज़्यादा वोट मिले, लेकिन इसे बेहतर प्रदर्शन नहीं कहा जा सकता है. यह दलील तब सही होती, अगर भारतीय जनता पार्टी का वोट शेयर विधानसभा चुनाव से कम हो जाता या बराबर रहता. अब जरा आंकड़े देखते हैं. आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 2013 के विधानसभा चुनाव में 29 फ़ीसद था, जो लोकसभा चुनाव में बढ़कर 33 फ़ीसद हो गया. यानी आम आदमी पार्टी के वोट शेयर में चार फ़ीसद की वृद्धि हुई. लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी के वोट शेयर में बढ़ोत्तरी हुई. भाजपा को 2013 के विधानसभा चुनाव में 33 फ़ीसद वोट मिले थे, जो लोकसभा चुनाव में बढ़कर 46.4 फ़ीसद हो गए. मतलब यह कि आम आदमी पार्टी के वोट शेयर में महज चार फ़ीसद की बढ़ोत्तरी हुई, जबकि भाजपा के वोट शेयर में 13.4 फ़ीसद की बढ़ोत्तरी हुई. अब जब दिल्ली में भाजपा और आम आदमी पार्टी का सीधा मुकाबला है, तो कोई बेवकूफ ही कह सकता है कि आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन बेहतर हुआ है.

आम आदमी पार्टी मध्य वर्ग और युवाओं को लुभाने के लिए दिल्ली डॉयलाग नाम से सभाएं आयोजित कर रही है. कार्यक्रम का प्रारूप तो अच्छा है, लेकिन चिंता की बात यह है कि इसमें आम लोगों ही हिस्सेदारी नहीं है. इसमें ज़्यादातर पार्टी के कार्यकर्ता ही नज़र आते हैं. केजरीवाल को यह अच्छी तरह से पता है कि दिल्ली का युवा और मध्य वर्ग आम आदमी पार्टी से दूर चला गया है.

अगर इसी आंकड़े को वोटों में देखें, तो स्थिति और भी साफ़ हो जाती है. भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में कुल 26,04,100 वोट मिले और आम आदमी पार्टी को 23,22,330 वोट मिले थे. यानी भाजपा को महज दो लाख इक्यासी हज़ार सात सौ सत्तर वोट ज़्यादा मिले थे. लेकिन, लोकसभा चुनाव में जहां आम आदमी पार्टी को दिल्ली में कुल 27,22,887 वोट मिले, वहीं भाजपा को कुल 38,38,850 वोट मिले. यानी भाजपा को ग्यारह लाख पंद्रह हज़ार नौ सौ तिरसठ वोट ज़्यादा मिले. अगर लोकसभा चुनाव के नतीजों को विधानसभा क्षेत्रों के हिसाब से देखा जाए, तो दिल्ली की 70 सीटों में 60 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी अपनी जीत का परचम लहराएगी और आम आदमी पार्टी के खाते में स़िर्फ 10 सीटें आएंगी. दिल्ली की 70 सीटों पर भाजपा की औसतन बढ़त 15,942 वोट हैं. विधानसभा चुनाव की दृष्टि से 15 हज़ार से ज़्यादा की बढ़त बहुत होती है.
हैरानी की बात यह है कि आम आदमी पार्टी के गढ़ माने जाने वाले नई दिल्ली लोकसभा क्षेत्र में, जहां उसने विधानसभा चुनाव में 10 में से सात सीटें जीती थीं, वहां वह 1,62,708 वोटों से पराजित हो गई. इस नतीजे के मुताबिक, आम आदमी पार्टी उन सभी 10 विधानसभा सीटों पर हार गई. यही हाल पश्‍चिमी दिल्ली का भी है. यहां विधानसभा की 10 में से चार सीटों पर आम
आदमी पार्टी का कब्जा था, लेकिन लोकसभा चुनाव में वह यहां 2,68,586 वोटों से हार गई. लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी पश्‍चिमी दिल्ली के सभी दस विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा से पिछड़ गई. कहने का मतलब यह कि लोकसभा चुनाव के नतीजे आम आदमी पार्टी के लिए निराशाजनक थे. केजरीवाल सातों सीटें बुरी तरह से हारे. हर सीट पर आम आदमी पार्टी की हार एक लाख से ज़्यादा वोटों से हुई. लोकसभा में हार की वजह अरविंद केजरीवाल का 26 जनवरी से पहले का धरना है. पार्टी लाख दलीलें देती रही, लेकिन लोगों को यह बात समझ में आ गई कि केजरीवाल ने जो कुछ किया, वह सोमनाथ भारती को बचाने के लिए किया. केजरीवाल एक्पोज हो गए. पार्टी के पास न तो नीतियां हैं, न भविष्य का कोई नक्शा है और न अपने वादों पर अडिग रहने की ईमानदारी है. बंगला और गाड़ी के मामले में तो पार्टी लोगों की नज़रों से गिर गई. लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी से मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा दूर चला गया, क्योंकि इस वर्ग को 49 दिनों की सरकार ने बहुत निराश किया. अगर मध्य वर्ग वापस नहीं आया, तो आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली विधानसभा चुनाव वाटर लू साबित होगा.
दिल्ली में विधानसभा चुनाव 2015 के फरवरी महीने में होने की संभावना है. 14 फरवरी, 2014 को केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिया था. एक साल के बाद केजरीवाल फिर से मुख्यमंत्री पद पर बैठने के लिए उतावले नज़र आ रहे हैं. चुनाव की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन अभी से ही आम आदमी पार्टी पूरी तरह चुनावी रंग में आ गई है. जिस दिन यह ़फैसला हुआ कि दिल्ली में चुनाव होंगे, उसी दिन से केजरीवाल का उतावलापन दिखने लगा. उतावलापन भी ऐसा कि केजरीवाल ने खुद को तो मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया ही, साथ-साथ भाजपा का भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तय कर दिया. पूरी दिल्ली में केजरीवाल बनाम जगदीश मुखी के पोस्टर लगा दिए गए. दिल्ली के हर एफएम रेडियो पर केजरीवाल का धुआंधार प्रचार चल रहा है. हर प्रचार में बस एक ही अपील है कि केजरीवाल को मुख्यमंत्री बना दिया जाए. सवाल यह है कि क्या दिल्ली की जनता फिर से अरविंद केजरीवाल को मौक़ा देने के लिए तैयार है या नहीं.
भाजपा के पास दिल्ली में नेतृत्व की कमी है. यही वजह है कि वह मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नहीं करेगी. इस चुनाव में पार्टी का चेहरा नरेंद्र मोदी होंगे. बनारस में केजरीवाल मोदी से हार चुके हैं और देश में फिलहाल जो माहौल है, उसमें मोदी से दो-दो हाथ करने में अक्लमंदी नहीं है. इसलिए आम आदमी पार्टी ने इससे निपटने के लिए एक रणनीति बनाई. यह आम आदमी पार्टी की पहली रणनीति का पटाक्षेप था. पार्टी ने मोदी फॉर पीएम एंड केजरीवाल फॉर सीएम का नारा दिया. मोदी पर हमला न करके स़िर्फ भाजपा और दिल्ली भाजपा के नेताओं को निशाने पर लेने की रणनीति बनी. इसके लिए वीडियो बनाया गया. टीवी चैनलों पर इंटरव्यू तय किया गया. सभी एंकरों ने एक ही सवाल पूछा कि क्या दिल्ली में मोदी बनाम केजरीवाल होने वाला है. हर बार केजरीवाल ने यही कहा कि दिल्ली के लोग कह रहे हैं कि मोदी फॉर पीएम एंड केजरीवाल फॉर सीएम. मोदी तो प्रधानमंत्री बन गए और अब फिर से केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी है. मुख्यमंत्री बनने के लिए आतुर केजरीवाल यह भी घोषणा करने लगे कि भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा. इस बार बिना जनता से पूछे उन्होंने खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया, साथ ही जगदीश मुखी को भी भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया. इतना ही नहीं, आम आदमी पार्टी की वेबसाइट पर इस कैंपेन को लॉन्च किया गया. आम आदमी पार्टी की वेबसाइट पर मोदी का फोटो भी लगा दिया गया. वेबसाइट पर यह सब कुछ आते ही खेल उलट गया. सोशल मीडिया में यह प्रचारित होने लगा कि आम आदमी पार्टी मोदी के सामने नतमस्तक हो गई. लोग कहने लगे कि केजरीवाल ने चुनाव से पहले ही मोदी से हार मान ली है. कुछ टीवी चैनलों पर ख़बर चलने लगी. जैसे ही पता चला कि यह कैंपेन बैकफायर कर गया, तो मोदी का फोटो वेबसाइट से फौरन हटा दिया गया और वीडियो डिलीट कर दिया गया.
इसके बाद से आम आदमी पार्टी मध्य वर्ग और युवाओं को लुभाने के लिए दिल्ली डॉयलाग नाम से सभाएं आयोजित कर रही है. कार्यक्रम का प्रारूप तो अच्छा है, लेकिन चिंता की बात यह है कि इसमें आम लोगों ही हिस्सेदारी नहीं है. इसमें ज़्यादातर पार्टी के कार्यकर्ता ही नज़र आते हैं. केजरीवाल को यह अच्छी तरह से पता है कि दिल्ली का युवा और मध्य वर्ग आम आदमी पार्टी से दूर चला गया है. अगर ये वर्ग वापस नहीं लौटे, तो आम आदमी पार्टी को 10 से ज़्यादा सीटें जीतना मुश्किल हो जाएगा. इसलिए पार्टी नुक्कड़ सभाएं करके अपने एजेंडे को सामने रख रही है. आम आदमी पार्टी स्कूली शिक्षा में सुधार, 20 नए कॉलेजों की स्थापना, छात्रों के लिए ऋण, आठ लाख नौकरियां, 10 लाख लोगों को वोकेशनल ट्रेनिंग, वाई-फाई सुविधा, वैट टैक्स में कमी, खेल सुविधाएं, नशा मुक्ति और पूरी दिल्ली में सीसीटीवी लगाने का वादा कर रही है. लेकिन, समझने वाली बात यह है कि इसमें कुछ भी नया नहीं है. सभी राजनीतिक दल इसी तरह के वादे करते हैं.
यह सब सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन जनता यह जानना चाहती है कि 49 दिनों की सरकार में आपने इन सब मुद्दों पर क्या किया? दूसरी बात यह कि आम आदमी पार्टी इन वादों को मुंगेरी लाल के हसीन सपने की तरह पेश करती है. जैसे शिक्षा में सुधार की बात को ही लीजिए. पार्टी कहती है कि सरकारी स्कूलों को वह इतना सुधार देगी कि अमीर लोग भी अपने बच्चों को वहां भेजना शुरू कर देंगे. अब यह कैसे होगा…सिलेबस बदलेंगे या फिर टीचरों का टेस्ट लेकर कांग्रेस के जमाने में नियुक्त शिक्षकों को हटाएंगे. यह अब तक रहस्य ही है. उसी तरह से 20 नए कॉलेज खोलने का वादा है. यह वादा पिछली बार भी किया गया था, लेकिन कॉलेजों के लिए दिल्ली सरकार के पास ज़मीन कहां है? पढ़ाई-लिखाई की बात चली है, तो केजरीवाल से यह पूछा जाएगा कि 49 दिनों की सरकार के दौरान आप के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने दिल्ली में बाहर से आए छात्रों के नामांकन पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश क्यों की थी? दिल्ली में पढ़ने वाले ज़्यादातर छात्र बिहार और उत्तर प्रदेश से आते हैं. आजकल रेडियो पर खूब प्रचार किया जा रहा है कि आम आदमी पार्टी सरकार बनाने के बाद पूरी दिल्ली में सीसीटीवी लगवाएगी और हर महिला-लड़की के फोन पर एक बटन दिया जाएगा, जिसके इस्तेमाल से पुलिस बुलाई जा सकेगी. सवाल यह है कि दिल्ली का लॉ एंड ऑर्डर क्या दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में है? दिल्ली के हर व्यक्ति को पता है कि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के अधीन काम करती है. आम आदमी पार्टी इस तरह के झूठे प्रचार की वजह से मध्य वर्ग की नज़रों में खलनायक बन गई. लेकिन, ऐसा लगता है कि पार्टी अपनी आदत से लाचार है.
पार्टी की सबसे बड़ी चिंता पार्टी में होने वाले विद्रोह और विरोध से है. उम्मीदवारी को लेकर पार्टी में घमासान चल रहा है. कुछ लोग पार्टी से बाहर भी जा चुके हैं. कुछ भाजपा में शामिल हो गए और कुछ नई पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में हैं. अभी पूरी सूची नहीं आई है, लेकिन यह माना जा रहा है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के 70 उम्मीदवारों में से क़रीब 35 लोगों को इस बार टिकट नहीं मिलने वाला है. इनमें दस से ज़्यादा विधायक हैं. वैसे अभी आख़िरी सूची आना बाकी है, लेकिन सवाल यह है कि उक्त 35 उम्मीदवार क्या करेंगे? विद्रोह और विरोध की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी है. हालांकि, ऐसी स्थितियों का सामना हर पार्टी को करना पड़ता है. पार्टी नेतृत्व के लिए हमेशा से इस विरोध को मैनेज करना एक चुनौती रहा है. केजरीवाल किस तरह इसे मैनेज करेंगे, उसी से उनकी नेतृत्व क्षमता का पता चलेगा. आम आदमी पार्टी ने राजनीतिक मूल्यों के आधार पर राजनीति की जो बात कही थी, वह स्वयं उसके विरोधाभास में घिरती नज़र आ रही है. पार्टी के कार्यकर्ताओं की शिकायत यह है कि इस बार जनता से पूछकर उम्मीदवार क्यों नहीं तय किए गए. अगर किसी विधायक या उम्मीदवार का टिकट पार्टी ने काटा, तो उसके लिए जनमत संग्रह किया गया या नहीं. तीसरे चुनाव में आते-आते राजनीति को बदलने की केजरीवाल की बातें हवा-हवाई हो चुकी हैं. अपरिपक्व, अनुभवहीन और अव्यवहारिक बातों से राजनीति में नुक़सान ही होता है. यह बात आम आदमी पार्टी के नेताओं को समझ में आ चुकी होगी, ऐसी उम्मीद है.
दरअसल, झुग्गी-झोंपड़ी और मुस्लिम समर्थन के अलावा पिछले एक साल में दिल्ली में सब कुछ बदल गया है. आम आदमी पार्टी को इस बदलते हुए राजनीतिक माहौल में ढलना होगा, भाषा बदलनी होगी, अपने नेताओं का रवैया बदलना होगा और हर किसी को दलाल-चोर कहने से बचना होगा. पिछले विधानसभा चुनाव में वे नए थे. लोगों को उनकी योजनाओं, विचारधारा, नीतियों और नेतृत्व के बारे में जानकारी नहीं थी. लोगों की नज़रों में वे अन्ना के आंदोलन से निकले देश की सेवा करने वाले आंदोलनकारी थे. इसलिए उनकी कई ग़लतियों को जनता ने माफ़ कर दिया. लोगों को उनसे बहुत आशा थी. लेकिन, 49 दिनों की सरकार और लोकसभा चुनाव ने देश की जनता, खासकर दिल्ली की जनता को उन्हें समझने का मौक़ा दिया. देश की जनता समझदार है. जिस तरह से केजरीवाल का ताबड़तोड़ प्रचार दिल्ली में किया जा रहा है, उसका मध्य वर्ग पर उलटा असर हो रहा है. आम आदमी पार्टी की छवि एक अपरिपक्व, सत्तालोलुप व महत्वाकांक्षी पार्टी की बनती जा रही है. लोगों को यह समझ में आने लगा है कि बिना सत्ता के आम आदमी पार्टी अस्तित्व विहीन होने की कगार पर आ गई है. चुनाव फरवरी में होंगे, अभी वक्त है. देखना यह है कि केजरीवाल आम आदमी पार्टी से दूर गए मध्य वर्ग और युवाओं को कैसे वापस लेकर आते हैं.
आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में अगर आम आदमी पार्टी 2013 में मिली 28 सीटों से ज़्यादा सीटें जीतने में सफल हो जाती है, तो उसकी साख बचेगी. अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक कद पुनर्स्थापित हो जाएगा. आगे आने वाले समय में अरविंद केजरीवाल मोदी के विकल्प के रूप में देखे जा सकते हैं. लेकिन यदि आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की सीटें 28 से कम हो जाती हैं, तो यह उसके लिए घातक साबित हो सकता है. अगर भाजपा को बहुमत नहीं मिला और फिर से कांग्रेस व आम आदमी पार्टी मिलकर सरकार बनाने की स्थिति में आ जाती हैं, तो ऐसा भी हो सकता है कि अरविंद केजरीवाल की जगह मनीष सिसोदिया मुख्यमंत्री बनकर उभर सकते हैं. अगर आम आदमी पार्टी को 20 से कम सीटें मिलती हैं, तो उसका अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा. आम आदमी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता ही केजरीवाल के नेतृत्व पर सवाल उठाएंगे तथा पार्टी से पलायन का सिलसिला शुरू हो जाएगा. आम आदमी पार्टी अपने ही बनाए आदर्शों व मूल्यों की दीवारों में घिर गई है. पार्टी में केजरीवाल के अलावा ऐसा कोई दूसरा शख्स है ही नहीं, जो पार्टी संगठन और कार्यकर्ताओं को नेतृत्व दे सके. केजरीवाल का अब तक का राजनीतिक इतिहास अपरिपक्वता और अनुभवहीनता को प्रदर्शित करता रहा है. भारत की राजनीति एक संकट काल से गुजर रही है. इस परिदृश्य में वही नेता विकल्प बन सकता है, जो परिपक्व, अनुभवी, मृदुभाषी और वैचारिक दृष्टि से संपन्न हो तथा आलोचना बर्दाश्त करने की क्षमता रखता हो. अफ़सोस, अरविंद केजरीवाल में ये सारे गुण नहीं हैं.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here