मैं पिछले कई दिनों से बहुत सारे समकालीन कवियों से गुजर रहा हूँ। मैंने श्री ब्रज श्रीवास्तव को भी इसी कड़ी में पढ़ा।

सरलता के बारे में अक्सर एक माहौल बनाया जाता है। या तो वह सरलता के पक्ष में होता है या विपक्ष में। सरलता के पक्ष में इसलिए कहा जाता है कि कही हुई या लिखी हुई बात एक सामान्य आदमी को समझ में आ सके। विपक्ष में इसलिए कहा जाता है कि यदि आम आदमी को समझ में आ गया कि क्या कहा गया है और क्यों कहा गया तो इससे लिखे हुए या कहे हुए का विशिष्ट-भाव टूटता है।

ब्रज जी उस संतुलन के कवि हैं – जहां सरलता के पक्ष में या विपक्ष में कोई सरलीकरण नहीं किया जा सकता। यहां मैं उनके कविता संग्रह ‘ऐसे दिन का इंतजार’ के बारे में बात कर रहा हूं। केवल बात कर रहा हूं समीक्षा नहीं कर रहा। समीक्षा इसलिए नहीं कर रहा कि कवि की कविताएं कविताएं ना होकर अपने आप में समीक्षाएं ही हैं। मसलन इस कविता संग्रह की पहली ही कविता ‘मां की ढोलक’ के बारे में कोई विस्तृत बात कैसे की जा सकती है।

‘माँ ही है उधर / जो बजा रही है / डूबकर ढोलक’

कविता ‘एक मनोकामना’ में उसे संतुलन की ही बात की गई है जो जीवन के लिए अनिवार्य है। बड़ी अजीब बात है कि अतिरिक्त की चाह में अनिवार्य का महत्व कम करके देखा जाता है। इस कविता की एक पंक्ति में धरती के बारे में चिड़चिड़ाने शब्द का प्रयोग हुआ है। मैं अक्सर सोचता था कि भूकंप के बारे में कैसी उपमा देनी चाहिए। अब जाकर वह उपमा मिली है।

यह बात सोचने विचारने की है कि प्रेम हमारी दिनचर्या में शामिल होने के लिए इतना संकोच से क्यों भर गया है। या हम ही संकोची बन बैठे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हजार हजार विषयों के बीच प्रेम केवल एक विषय बनकर रह गया है और इस प्रेम की उपस्थिति हमारे लिए अन्य उपस्थितियों जितनी ही महत्वपूर्ण रह गई है?

यदि ऐसा है तो यह जागने की बात है।

‘प्रेम / पंक्ति में खड़ा रहा / संकोच के साथ / मेरी दिनचर्या में शामिल होने के लिए’

दुःस्वप्न हमारे यथार्थ में बदल गए हैं। बम हमारे यथार्थ में फटते हैं। इन बमों का फटना हमारे सपनों में आता है। हम सपने से जागते हैं। और जागकर जलती हुई आंखों से यह सपना देखते हैं कि अब वह दुःस्वप्न फिर घटित नहीं होगा।

‘एक और स्वप्न देखा / दुःस्वप्न से बाहर आने का’

कविता ‘जन्मदिन’ तो अब मुझे याद हो गई है। इतनी धारदार कविताओं से गुजरने की अब हिम्मत नहीं रह गई। इसके बारे में क्या लिखा जाए।

आप स्वयं पढ़िए-

‘आज फिर गिनी मैंने अपनी पोशाकें / गिने शुभकामना के पत्र / और मोबाइल पर आए संदेश / गिने अपने दोस्त / गिनी प्रेमिकाएँ और उनके प्रेम भरे पत्र / इस विराट में / किया अपना आकलन / और खीजा स्वयं पर / जन्मदिन की वर्षगांठ / कोई खास दिन थोड़े ही है’

कविता ‘एम्बुलेंस’ और ‘बच्चों की दुनिया’ स्वयं अपना विस्तार हैं।

कविता ‘नहीं बदला’ किसी हल्के उर्दू शेर का तर्जुमा भर लगती है।

कविता ‘टोपी’ पढ़कर एक मीठी गुदगुदी भीतर उठती है और तलवार की तरह हमें दो फांक कर जाती है।

‘वो टोपी बस मेरी जरूरत थी / उस टोपी के जैसी नहीं / जिसे ना लगाने पर / उनकी पहचान ही नहीं हो पाती’

कविता ‘है किसकी वजह से’ एक बड़े साधारणीकरण का शिकार है। यह बात हिंदी कविता में इतनी तरह से और इतनी बार कही जा चुकी है कि कि कहने से इतर इसका कोई मूल्य नहीं रह जाता।

कवि की कविता अक्सर वहां पर घटित होती है जहां पर कुछ अघट अपने पूरे सामर्थ्य और आश्चर्य के साथ मंच पर आता है। एक जगह कवि ने अपनी कविताई का बड़ा जोरदार नमूना दिखाया है।

वे लिखते हैं – ‘तुमने प्यास को पानी में बदला / और प्यास को बदला और तेज प्यास में’ ( कविता – ‘तुम्हारे बारे में’ )

अपने प्रभाव से इधर जब किसी दृश्य को कवि देखता है तो कविता से भर उठता है। यह कविता पंक्ति देखिए-

‘पता नहीं कौन से उन्माद में / चली जा रही हैं नदियाँ / अपने ही किनारों को डुबोते हुए / उन्हें कोई दुख नहीं’

कवि का मन तो होता ही सारे गुनाहों को अपने सर पर लेने के लिए है। इसलिए कवि को इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए के सारे गुनाह उसके सर गए। यदि गुनाह उसके सर ही नहीं जाते तो किसके सर जाते।

यहाँ किसके कांधे पर सर है? (संदर्भ – कविता ‘कवि-मन’

कविता के मन की बात कौन जान सकता है। हम कविता से कुछ भी कहलवा सकते हैं। आज का समय तो कवि का चोगा ओढ़े शब्दों के मैनेजरों से भी वही घिसी पिटी क्रांति कहलवा रहा है – जिसे पिटे हुए भी आधी सदी से अधिक का वक्त गुजर चुका। (संदर्भ कविता – ‘कविता के मन की बात’)

कवि कहते हैं – ‘जीवन नहीं रचा / उम्र की हथेली पर मेहंदी जैसा’।

दरअसल सारी समस्याओं की जड़ उम्र को दुल्हन मान लेना है। यह उम्र की दुल्हन बड़ी जादूभरी है। इसके साथ हजारों सुहागरात मनाने के बाद भी दिल प्यासा रह जाता है। आखिर हम सभी एक शोक में स्खलित होते हैं।

कितनी सच्ची बात कहते हैं कवि। जब कहते हैं – ‘यह सोचना ठीक नहीं / विरोध में उठना / जीने की कला में शामिल नहीं’

लेकिन समीक्षक भी सच्ची बात कहता है। समर्थन भी कोई बुरी चीज नहीं यदि समर्थन अच्छी चीज का हो। समर्थन की कला का भी एक सौंदर्य है – जिसे रगड़ खा चुकी चेतना जल्दी से स्वीकार नहीं कर पाती!

सोलह सौ बरस हों या सोलह हजार बरस हों या सोलह लाख या सोलह करोड़ – पत्थरों को फूलों की तरह छूने वाला ही उनकी कोमलता का संधान करता है। (संदर्भ कविता – ‘उदयगिरी के पत्थर’)

कविता ‘मत करो उसे फोन’ अपने शिल्प में एक बड़ी निर्मम कविता है। इस निर्ममता से वही लिख सकता है जिसके भीतर ममता छुपी हुई हो।

अहा! क्या कविता पंक्ति है!

‘और यह भी लिखो कि / बात करने की तीव्र इच्छा को तुम ने कुचला / और लिखी एक कविता’

कविता ‘मां का प्रवास’ भावुक कर देने वाली कविता है। लेकिन विराटता शब्द चुभता है। विराट में ‘ता’ लगाने की कोई आवश्यकता नहीं। व्याकरण की इस तरह की गलती चुभती है।

कविता ‘अच्छी खबर’ कवि की एक बेहद लोकप्रिय, छोटी मगर अपने अर्थ और संकेत में बड़ी कविता है।

‘अच्छी खबर बस यही है / कि दरवाजा तोड़कर / बाहर आने में / नाकाम हो रही है / बुरी खबर’

कविता ‘मरणोपरांत जीवन’ एक बेहद सधी हुई और मार्मिक कविता है। संकेत यह है कि जीवन की आपाधापी मृत्यु के पश्चात बचे-खुचे सौंदर्य को भी नष्ट कर देगी। यहाँ बचा-खुचा सौंदर्य हमारी स्मृति के आधार पर नहीं बल्कि उसकी गरिमा के सौंदर्य के आधार पर तय होना है। जिन हाथों में हमारी मृत्यु के बाद हमारी अनुपस्थिति की गरिमा होगी – कुल मिलाकर हमें उन लोगों पर ही भरोसा नहीं है। किसी हद तक तो उन लोगों में हम भी शामिल ही हैं।

कुल मिलाकर ब्रज श्रीवास्तव मामूली चीजों के बड़े कवि साबित होते हैं। उनके पास एक ऐसी दृष्टि है जो बहुत सारी छोटी-छोटी चीजों में से कविता निकाल कर ले आती है। हां, कभी-कभी कविता निकाल कर ले आना ही पर्याप्त नहीं होता। उसकी फर्निशिंग फिनिशिंग भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। कहीं-कहीं मुझे एक ऐसी जल्दीबाजी भी नजर आई जिसकी वजह से ऐसे विषय भी कविता में आ गए जिन्हें या तो किसी दूसरे रूप में आना था या आना ही नहीं था।

लेकिन इतने लंबे सृजन में यह बातें तो रह ही जाती हैं। इन बातों की वजह से उन बातों का मूल्य कम नहीं हो जाता जिनको कविता बनाने के लिए कवि ने दिन-रात तपस्या की है। यह तपस्या कोई एक दिन का हासिल नहीं होती।

आज की तारीख में जब कविताओं की बमबारी हो रही है – कविता की गरिमा को अक्षुण्ण रखना कोई आसान काम नहीं। फेसबुक जैसे मंच पर प्रेमकवियों क्रांतिकारियों और स्त्रीविषयककवियों की अथाह भीड़ में ब्रज श्रीवास्तव चुपचाप काम करने वाले कवियों में से हैं। लेकिन इस चुप्पी को किसी भी कीमत पर अपने प्रति लापरवाही में नहीं बदलना चाहिए।

हम समीक्षकों और आलोचकों को तो इस कवि को गंभीरता से लेना ही चाहिए स्वयं कवि को भी अपने आप को गंभीरता से लेना चाहिए।

प्रश्न उठता है कि कोई कवि अपने आप को गंभीरता से कैसे लेवे। यदि कोई मेरी इस विस्तृत टिप्पणी को नहीं पढ रहा होता तो मैं इन कविताओं के सर्जक को थोड़ा तेज़ और दुनियादार बनने की सलाह देता।

अब कैसे दे सकता हूँ?

ख़ैर, कवि को बहुत शुभकामनाएं।।

 

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