आज हमारे समाज में स्त्री और पुरुष कि संख्या लगभग बराबर हैं। ये हमारे देश में और दुनियां में दोनों जगह कुछ कुछ समान है।

भारत की बात करें तो 1947 मे  जो हमें आजादी मिली और उसके बाद 1950 मे हमें जो संविधान मिला वह उससे भी बड़ी आजादी थी। आजादी, हमे केवल अंग्रेजों से नहीं मिली, ब्लकि हजारों वर्षों की राजा महाराजाओं के शासन के गुलामी से भी आजादी मिली। आजादी की लगभग 100 वर्षों की लडाई हमारी केवल अंग्रेजों हुकूमत से नहीं थी, साथ ही हम अपने हजारों वर्षो से चली आ रही कुरीतियों से भी लड़ रहे थे।

शासन प्रशासन की लड़ाई तो चल ही रहीं थीं देश भर में। लेकिन देश महिलाओं, दलितों के साथ होने वाले अत्याचारों से भी देश लड़ रहा था। छुआ छूत, ऊंच नीच, दलित स्वर्ण, दलित महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, आदि सैकड़ों वर्ष पुरानी कुरीतियों से भी देश लड़ रहा था।

हमारे स्वतन्त्रता सैनानीयों ने न केवल देश को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त कराया ब्लकि इस सभी मनुवादी कुरीतियों से भी आजादी दिलाई।

देश की स्वतंत्रता संग्राम में यदि महिलाओं का योगदान नहीं होता, तो शायद हमारा स्वतंत्रता आन्दोलन कभी सफल नहीं होता। हमारे स्वतंत्रता के क्रान्तिकारी युवाओं को यदि घर में उनकी माँ, बहन, पत्नी, आदि महिलाओं का साथ नहीं मिलता तो शायद ही हम आज ये आज़ादी देख रहे होते।

महिला क्रांतिकारियों ने शिक्षा, के क्षेत्र में भी क्रांति लाए। हमारे लेखक, कवि, साहित्यकार, नाटककार, कहानीकार, फ़िल्मकार आदि प्रबुद्ध लोगों के सहयोग को भी कभी देश भुला नहीं सकता। देश की आज़ादी की लड़ाई हालांकि हमारे तात्कालिक राजा महाराजाओं ने शुरू की, लेकिन वह केवल अपने राज्य की सत्ता बचाने तक और कर वसूली तक ही सीमित रहीं। एक वक्त ऐसा आया जब देश के सभी राजा, महाराजा, नवाब, निज़ाम सभी अंग्रेजी हुकूमत के नीचे आ गए थे।

तब देश के पढ़े लिखे प्रबुद्ध महिला पुरुष दोनों लोगों ने पूरे देश में एक अंग्रेजों के विरुद्ध माहौल तय्यार किया। लोगों को बताया कि कैसे यदि हम आवाज नहीं उठाएंगे तो अपनी जमीन और देश से हाथ धो बैठेंगे।

इस पूरे आंदोलन मे महिलाओं का योगदान सर्वोच्च कोटि का रहा। सत्याग्रह आन्दोलन, जेल भरो आंदोलन, अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन, आमरण अनशन, सामुहिक कोर्ट अरेस्ट, अहिंसक प्रदर्शन ने अंग्रेजों के नाकों चने चबवा दिए।

क्यूंकि अंग्रेज कानून के बड़े पक्के थे। आए दिन नए कानून बनाते और उसके तहत आंदोलनकारियों को बंद कर देते। लेकिन अहिंसक आंदोलन से, अंग्रेज बड़े ही परेशान रहते।

महात्मा गांधी ने बिहार में अनशन किया, सारा देश भूख हड़ताल पर चला जाता। न मोबाइल न फोन न कुछ, उसके बावजूद भी खबरे ऐसी फैलती जैसे आग। पत्रकार, मीडिया सभी बड़े ही अद्भुत तरीके से काम करते थे।

हम बात कर रहे थे कुरीतियों की। हमारे इस लड़ाई में कई अंग्रेजी समाज सेवी लोगों ने भी अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।

देश एक ओर अंग्रेजी हुकूमत से जूझ रहा था दूसरी ओर मनुवादी विचार धारा के कट्टर हिन्दू वादी विचारधारा से भी लड़ रहा था।

क्यूंकि ये विचार समाज मे अलगाव पैदा करते थे, इसलिए अंग्रेजों के लिए यह एक आजादी के आन्दोलन को कमजोर करने वालीं बहुत बड़ी कुंजी थी। फ़ूट डालो और राज करों।

जब भारत वासी ऊँच नीच, भेद भाव, हिन्दू मुस्लिम मे बंटेगा तो आज़ादी का आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन कमजोर पड़ेगा और अँग्रेजी पुलिस को शासन को आसानी होती। जब एकता नहीं होगी तो आन्दोलन कमजोर असानी से होगा।

ये कुछ विघटनकारी भारतीय लोग अंग्रेजी हुकूमत को खुश करने के लिए, देश के लोगों में आपस में लड़ाई करवाने मे व्यस्त रहते।

देश अंग्रेजी हुकुमत से तो आज़ाद हो गया। लेकिन इस विघटनकारी लोगों से आज तक जूझ रहा है।

आज भी हमारा देश इस कट्टरपंथी विचार धारा को जड़ से मिटा नहीं पाया है। आजादी के बाद हमारे संविधान ने महिलाओं को कई हक दिलाए, दलितों को कई हक्क दिलाए, लेकिन वैचारिक तौर पर हमारे समाज का पुरुष प्रधान सोच आज भी अत्याचार करने से बाज नहीं आ रहा।

हमारे समाज में दो तरह के महिलायें है: एक गांव में रहने वाली और

एक शहर मे रहने वालीं। हमारे समाज में दो तरह के दलित-आदिवासी सामाज हैं। एक जो शहर में रहते हैं और दूसरा जो आज भी गांव में रहता है।

गांव में रहने वाली महिलाओं, दलितों, आदिवासियों के नाम पर शहर में रहने वाली महिला, दलित, आदिवासी लोग कुछ संविधानिक अधिकारों का आनंद ले रहे हैं। विडंबना यह है कि हालात आज भी गांव में वही है जो बरसों से है और जो आज असंवैधानिक है।

73rd संविधानिक संशोधन से एक बहुत बड़ी व्यवस्था का सुधार तो हुआ हमारे गांव में। लेकिन केवल शासन के तंत्र में सुधार आया। सामाजिक सुधार अभी भी बाकी है।

महिला सरपंच तो बन जाती है लेकिन सरपंच पति सारा अधिकार लिए घूमता हैं। महिला शहर में IAS बन जाती है, लेकिन वापस अपने गांव में जाकर कोई सुधार नहीं करती। आदिवासी आज प्रशासन में सचिव, मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव, पुलिस अधिकारी आदि तो बन जाते हैं लेकिन अपने मूल निवास को प्रायः सभी भूल जाते हैं।

मुझे लगता है जैसे हमने,  गांव के दलित आदिवासी का शहरीकरण कर दिया, या हमने कुछ दलित आदिवासियों को एक अलग चोला ओढ़ा दिया है। अब वो अपनी असली पहचान खो गए हैं। हम धीरे-धीरे असली दलितों और आदिवासियों को खत्म कर रहे हैं। अब जो दलित आदिवासी शहर में बस गए हैं, वे एक नई प्रजाति बन गए हैं। जिनका सामाजिक ताना बाना गांव के रहने वाले दलित आदिवासियों से बिल्कुल अलग है।

इस व्यवस्था से ये समाज कैसे सुधरेगा?

आज भी पंचायतों में दलित समुदाय के लोगों को नंगा घुमाया जाता है। आज भी गांव में, महिलाओं को पेड़ से बाँध कर पिटाई की जाती है। आज भी दलित के मुँह में कालिक मल कर गांव में घुमाया जाता है। सामुहिक बलात्कार, बलात्कार के बाद हत्या, आज भी गांव में सरेआम हो रहा है।

ऐसे में क्या एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति का पद देना से ये सारी घटना का अंत हो जाएगा? नहीं।

केवल स्कूल में दाखिला दिलाने से बदलाव नहीं आयेगा। जिन्होंने स्कूल में दाखिला लेकर जिंदगी में कुछ हासिल कर लिया है उनको फिर अपने अपने गांव जाना होगा, सभी अपने सगे संबंधी और समाज के लोगों को aware करना होगा। जागरुक करना होगा। जागरुक कर के बाकी समाज से ज़ंग नहीं लड़ना सिखाना ब्लकि कैसे और लोगों के साथ मिलकर आगे तरक्की करना हैं। अपने जमीन से जुड़े रहना है।

आज हमारे समाज को वह एक ज़ंग जो अधूरी रह गई थी उसको फिर से शुरू करना होगा। महिला दलित आदिवासियों के लिए फिर एक ज़ंग लड़ना होगा।

फिर एक राम मोहन, फिर एक मोहन दास, फिर एक अम्बेडकर, फिर एक नेहरू…फिर एक वैचारिक विद्रोह, फिर एक सामाजिक क्रांति!! फिर एक आज़ादी!!

 

जय हिंद!!

 

जी वेंकटेश

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