kashmirमैं बैठा सोच रहा था कि कश्मीर में क्या हो रहा होगा? मैं अपने दो पत्रकार मित्रों अशोक वानखेड़े और अभय दुबे के साथ, जब 11 से 13 सितंबर को श्रीनगर में था, तो श्रीनगर की वो तस्वीर सामने आई, जिसका दिल्ली में बैठ कर एहसास ही नहीं हो सकता. तब लगा कि जो लखनऊ, पटना, कोलकाता, हैदराबाद, बंगलुरू या चेन्नई में हैं, वो तो कश्मीर के आज के हालात की कल्पना ही नहीं कर सकते कि क्यों दुकानें बंद हैं, क्यों लड़के पत्थर चला रहे हैं, क्यों लड़के सड़क पर पत्थर रख कर सड़क को बंद कर रहे हैं और क्यों अपने आप पत्थर साफ कर सड़कें खोल देते हैं? क्यों दुकानदार ठीक शाम छह बजे दुकानें खोल देते हैं, सरकारी बैंकों ने क्यों अपना समय शाम छह बजे से कर दिया है? ये सारे सवाल आंधी की तरह दिमाग़ में इसलिए उड़ने लगे कि हमें तो श्रीनगर जाकर इन सवालों का जवाब मिल गया, लेकिन क्या देश के लोग कभी इस सच्चाई को समझ पाएंगे? फिर एक और सवाल कौंधा कि पूरे देश में कहीं भी एक दिन का बाज़ार बंद कराने का स्लोगन जब कोई राजनीतिक दल करता है, तो लोग दुकानें बंद नहीं करते हैं. उन दुकानों को बंद कराने के लिए राजनीतिक दलों के युवा कार्यकर्ता लाठी लेकर सड़क पर निकलते हैं, तब वो एक दिन के लिए दुकानें बंद करा पाते हैं, लेकिन कश्मीर 105 दिनों से बंद था. सिर्फ एक काग़ज़ का पर्चा कैलेंडर के रूप में निकलता है और लोग उसका पालन करते हैं.

श्रीनगर में मैंने जो देखा

इन सारे सवालों ने मुझे बेचैन किया, तो मैंने अगले दिन फिर से श्रीनगर जाने का फैसला किया क्योंकि 27 अक्टूबर से सरकार चार या पांच महीने के लिए जम्मू चली जाती है और श्रीनगर सरकारी अफ़सरों, सरकारी अमलों, मुख्यमंत्री व मंत्रियों से ख़ाली हो जाता है. सारे लोग जम्मू में होते हैं. यहां रह जाते हैं वो, जो वहां नहीं जा सकते हैं, जिनका यहां व्यापार है, जिन्हें श्रीनगर में पढ़ना है, जिन्हें श्रीनगर में रहना और सरकार से कोई ख़ास काम नहीं है. मुझे लगा कि इस स्थिति को देखना चाहिए.

मैं जब श्रीनगर पहुंचा, मुझे लेने श्रीनगर के हमारे वरिष्ठ संवाददाता हारून रेशी आए हुए थे. हारून रेशी ने रास्ते में बताया कि दुकानें वैसे ही बंद हैं, पत्थर चलने कम हो गए हैं, लेकिन सड़कों पर गाड़ियां नहीं चल रही हैं. अपेक्षा है कि प्राइवेट गाड़ियां भी कम चलें, पर वो गाड़ियां जिनमें पैसेंजर चलते हैं, वो लगभग नहीं के बराबर चल रही थीं. पुलिस का पहरा कहीं-कहीं था, लेकिन पुलिस का पहरा इसलिए नहीं था कि दुकानें बंद हों, कर्फ्यू इसलिए नहीं लगा था कि दुकानें बंद हों, बल्कि पुलिस का पहरा और कर्फ्यू इसलिए था कि अगर लोग चाहें, तो अपनी दुकानें खोल लें. सरकार उन लोगों को रोकेगी, जिन्हें आम भाषा में दुकानें बंद कराने वाला कहा जाता है, लेकिन लोग अपनी दुकानें नहीं खोल रहे थे. इसका मतलब, श्रीनगर के लोगों का साहस और धैर्य कमज़ोर नहीं हुआ था.

भारत सरकार का ये आकलन कि हड़ताल करते-करते लोग थक जाएंगे और फिर वे अपनी दुकानें खोल देंगे, ग़लत साबित हुआ. भारत सरकार का ये आकलन, जिसे गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने घोषित किया था कि वो 7 दिन में स्थिति को सामान्य कर देंगे और उन्होंने सुरक्षाबलों को ये आदेश दिया था कि 7 दिनों में उन्हें कश्मीर की स्थिति सामान्य मिलनी चाहिए. उस समय लोगों को ये लगा था कि सरकार क्या करेगी, क्या सरकार गोलियां चलाएगी, लोगों को और जेल में भरेगी, लोगों की जान को और ख़तरा बढ़ जाएगा.

राजनाथ सिंह द्वारा 11 सितंबर को की गई ये घोषणा, श्रीनगर में 12 तारीख़ के अख़बारों में छपी थी. अब अक्टूबर समाप्त हो रहा है. राजनाथ सिंह का एक सप्ताह, एक महीने से ज्यादा वक्त ले चुका है, लेकिन वो एक हफ्ता नहीं आया, जिसमें सरकार और सुरक्षाबलों की अपेक्षाओं से स्थिति सामान्य हुई हो. इस बीच सरकार ने बात भी नहीं की. किसी प्रतिनिधिमंडल को नहीं भेजा. मुख्यमंत्री ने भी किसी से बात नहीं की. मुख्यमंत्री बात करके करतीं भी क्या? लोगों की अपेक्षा तो दिल्ली की सरकार से थी और दिल्ली की सरकार ने अपने आंख और कान दोनों बंद कर लिए थे.

प्रोफेसर बट ने मीरवाइज़ से मिलने की सलाह दी

मैंने सोचा कि मुझे शहर में प्रोफेसर अब्दुल ग़नी बट से शुरुआत करनी चाहिए, जो जेल से बाहर हुर्रियत के सबसे बड़े नेता हैं. मैं सीधे प्रोफेसर बट के पास गया और उनसे मैंने कहा कि अब क्या हालात हैं और अब क्या होना चाहिए? ग़नी बट प्रोफेसर रहे हैं, चीज़ों को तार्किक ढंग से समझते हैं, उनका विश्‍लेषण करते हैं. उन्होंने एक लंबा विश्‍लेषण मुझे दिया, साथ ही मेरे सर पर हाथ रख कर इस बात की शाबासी दी कि आप ने जो काम किया है, कश्मीर की तकलीफ़ को जिस तरह आप कश्मीर से बाहर ले गए हैं, वो क़ाबिले तारीफ़ है. मैंने उनसे कहा कि मैं पत्रकार हूं, मेरा काम ब्रेकथ्रू नहीं है. उन्होंने कहा कि आप पत्रकार के साथ इंसान भी हैं और हमारा जो दर्द है, आंसू है, इनकी जानकारी, इनकी पीड़ा देश के बाक़ी हिस्से के लोगों को होनी चाहिए. उन्होंने कहा, मेरा मानना है कि इस दर्द को कम होने में उससे ज़रूर मदद मिलेगी.

मैंने प्रोफेसर बट से पूछा कि विद्यार्थियों का एक साल ख़राब होने वाला है, बोर्ड की परीक्षा वो नहीं दे पाएंगे, तो उन्होंने कहा कि हां, बोर्ड की परीक्षा वो नहीं दे पाएंगे, लेकिन यहां तो ज़िंदगी की परीक्षा में ही फेल या पास होने का सवाल पैदा हो गया है. अगर मान लीजिए कि बोर्ड या स्कूल की परीक्षा का सवाल उठाया भी जाए, तो कौन परीक्षा देगा? बच्चे तो जेल में हैं. उन्होंने डेढ़ घंटे के भीतर तीन बार चाय पिलाने और बिस्किट खिलाने के बाद ये सुझाव दिया कि मुझे हर हाल में मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ से मिलना चाहिए, जो जेल में बंद हैं. मैंने कहा कि मैं कैसे मिल सकता हूं उनसे, तो उन्होंने कहा कि कोशिश कीजिए. मुझे मालूम है आप जिस तरह के पत्रकार हैं, अगर ठान लेंगे, तो ज़रूर मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ से मिल पाएंगे.

प्रोफेसर बट की बातों ने मन को और चिंतित कर दिया. मैं वहां से होटल पहुंचा, सामान रखा. पहले मैंने सोचा था कि मैं सरकार से अनुरोध करूंगा कि मुझे अपेक्षाकृत कम ख़र्चे वाले सर्किट हाउस में रहने के लिए किसी तरह जगह दिलवाए, लेेकिन फिर मैंने सोचा कि जैसे ही मैं सरकार से निवेदन करूंगा और अगर सर्किट हाउस में मुझे जगह मिल गई तो मेरे ऊपर ये शक पैदा हो जाएगा कि मैं कहीं सरकार की मिलीभगत से तो श्रीनगर में नहीं घूम रहा हूं. इस एक शंका ने मेरे पांव एक होटल की तरफ़ मोड़ दिए.

मीरवाइज़ से मिलना एक चमत्कार था

होटल में मैंने सोचना शुरू किया कि मैं कैसे मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ से मिल सकता हूं, क्योंकि प्रोफेसर बट ने मुझे मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ से मिलने की सलाह दी थी. मैंने अपने पत्रकार दोस्तों, अधिकारी दोस्तों, सबसे बात की, लेकिन कोई भी मेरी मदद करने के लिए तैयार नहीं हुआ. तभी एक चमत्कार हुआ. एक शख्स ने कहा कि आप अगर मोबाइल फोन न ले जाएं, अपनी पहचान का ढिंढोरा न पीटें, तो मैं कोशिश करता हूंं कि किसी तरी़के से आपकी मुलाक़ात मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ से हो जाए. मैंने उससे कहा कि नेकी और पूछ-पूछ. उस ईश्‍वर के बंदे ने पता नहीं कहां, कैसे, क्या चलाया कि मुझे मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ से मिलने की अनुमति मिलने का अंदाज़ा हो गया. फिर, मुझे फोन आया कि मैं फ़ौरन जहां मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ जेल में बंद हैं, वहां आऊं. उस शख्स ने कहा कि मैं आपको वहां मिलूंगा और कोशिश करूंगा कि मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ से आपकी मुलाक़ात हो जाए.

मैं टैक्सी में बैठा, टैक्सी से डल झील के किनारे होता हुआ ऊपर पहाड़ों की तरफ़ गया. श्रीनगर का सबसे लोकप्रिय टूरिस्ट स्पॉट चश्मेशाही है. चश्मेशाही की तारीफ़ ये है कि वहां लगातार पानी आता रहता है. कहां से आता है, किसी को नहीं पता? उस चश्मेशाही पर्यटक स्थल के पास एक छोटा सा हट बना हुआ है, जिसमें मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ कैद हैं. मेरा ड्राइवर ग़नी डल झील के किनारे होते हुए चश्मेशाही की तरफ़ ऊपर चढ़ा. वहां से पुलिस के सिपाही, कुछ जेल के सिपाही दिखाई दिए. सुनसान, कोई नहीं. एक जगह मुझे एक शख्स ने रोक दिया कि आप इससे आगे नहीं जा सकते.

फिर मुझे अपने उस संपर्क से बात करनी पड़ी, पता नहीं उसने किस तरह से मैनेज किया कि मुझे कुटिया (हट) तक जाने की इजाज़त मिल गई. कुटिया में मुझसे दरख्वास्त ली गई. उस दरख्वास्त पर ऑफिशियल परमिशन लिखी गई और मैं मीरवाइज़ से मिलने चला गया. बहुत पहले मैं मीरवाइज़ से मिला होऊंगा, लेकिन उन्हें इस बात का इल्म था कि जो तीन पत्रकार यहां आए थे, उस अंधेरे में उन्होंने जिस तरह एक मोमबत्ती जलाने की कोशिश की थी, उसकी रोशनी ने पूरे श्रीनगर के लोगों के मन में एक आशा की चमक पैदा कर दी थी.

मीरवाइज़ ने मुझे गले लगाया और मुझे अंदर कुटिया में ले गए. हम आपस में देश, दुनिया, कश्मीर के हालात की सारी बातचीत करने लगे और तब मीरवाइज़ ने मुझे बताया कि तीन महीने में आप पहले शख्स हैं, जो पता नहीं कैसे मेरे पास तक आ गए, जबकि सप्ताह में एक बार मेरे घर के लोग मुझसे मिलने आते हैं. इसके अलावा मैंने किसी बाहरी आदमी का चेहरा नहीं देखा है. मैंने पूछा, तो यहां मिलने कौन आता है? तो उन्होंने कहा, यहां भालू आते हैं. जंगल में जगह है.

मैंने पूछा, चूहे. उन्होंने छत की तरफ इशारा किया कि इस छत के अंदर, लकड़ी की छत है, इसके अंदर जब चूहे दिन में दौड़ते हैं, तो पता नहीं चलता, लेकिन सुनसान रात में जब हवा की आवाज़ भी त़ेज लगती है, तब ये चूहे दौड़ते हैं, तो बिल्कुल भूतिया आवाज़ के रूप में वो माहौल तब्दील हो जाता है. और मैं देख रहा था कि मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़, जो कश्मीर के सबसे ज्यादा इज्ज़त वाले मज़हबी धर्मगुरु हैं, मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़, जो हुर्रियत के चेयरमैन हैं, मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़, जो काफ़ी पढ़े-लिखे हैं, काफ़ी सौम्य हैं, चीज़ों को समझते हैं और भारत सरकार की तरफ़ से अटल बिहारी जी के ज़माने में वो मुज़फ्फराबाद और इस्लामाबाद भी गए थे, ताकि अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रस्तावित सुझावों पर उन लोगों को तैयार कर सकें.

आज वो मीरवाइज़ अकेले एक कुटिया में बैठे हुए हैं और मैं सोचने लगा कि इन्हें यहां लाकर सरकार को क्या मिला? सरकार इन्हें इनके घर में नहीं रख सकती थी. कम-से-कम आराम से सोते, ये जो जेल के कर्मचारी उनके साथ हैं, उन्हें ज़बरदस्ती वहां जेल हो गई. दूर बैठे हुए हैं, वो भी अपने यहां रहते.

मीरवाइज़ मौ. उमर फारूक़ से Exclusive बातचीत : ये नाइंसा़फी बंद होनी चाहिए

सेंट्रल जेल में यासीन मलिक से मेरी मुलाक़ात

मीरवाइज़ से लगभग एक-डेढ़ घंटे बात करने के बाद मैं वहां से निकला और निकलने के बाद मैं फिर होटल की तरफ़ चलने लगा कि रास्ते में मुझे लगा कि क्या मैं कोशिश कर सकता हूं कि यासीन मलिक से भी मिल लूं? यासीन मलिक सेंट्रल जेल में बंद थे. मैंने अपने ऊपर कृपा करने वाले कुछ सज्जनों को फोन किया और कहा कि क्या ये संभव है कि मैं सेंट्रल जेल में यासीन मलिक से मुलाक़ात कर लूं. बहुत सारे लोग मिलने जाते होंगे जेल में, एक मैं भी जा सकता हूं, परमिशन लेकर. वो हंसे और कहे कि अच्छा ठीक है, आप सेंट्रल जेल की तरफ़ अपनी गाड़ी मोड़िए. मैं देखता हूं, क्या कर सकता हूं, पर ये निश्‍चित नहीं है कि आपकी मुलाक़ात हो ही जाए.

चश्मेशाही से लगभग बीस-पच्चीस मिनट चलने के बाद हम श्रीनगर सेंट्रल जेल पहुंचे और वहां पर किसी तरह हाथ जोड़ते, विनती करते, जेलर साहब से मिलते, पुलिस के चीफ़ से मिलते, अपने को एक साधारण इंसान बताते हुए मिलने की गुज़ारिश की. पता नहीं उस दिन कैसे ईश्‍वर मेहरबान था कि यासीन मलिक से मिलने की अनुमति भी मिल गई. मैं अंदर गया. मेरा सारा सामान बाहर रखवा लिया गया. यहां तक कि पर्स, जिसमें पैसे और क्रेडिट कार्ड थे, भी बाहर रखवा लिया गया. बिना सोचे, मैंने उसे बाहर छोड़ दिया कि ग़ायब हो जाएगा. ये कार्ड ग़ायब हो सकता है, पैसे ग़ायब हो सकते हैं. कुछ भी नहीं सोचा. मैं सीधे अंदर गया, अंदर जेलर के कमरे में, वो किसका कमरा था, मुझे नहीं पता, लेकिन किसी अधिकारी का कमरा था, मैं बैठा हुआ था.

अधिकारी भी बैठे हुए थे, मुझे घूर रहे थे. मुस्कुराते हुए घूर रहे थे, तब तक देखा कि कंबल आ़ेढे यासीन मलिक धीरे-धीरे कमरे के अंदर आए. उन्हें मुझे पहचानने में कुछ वक्त लगा, लेकिन जब पहचान लिया तो हम पास बैठे. मैंने उनसे बातचीत शुरू की. यासीन मलिक बहुत समझदार शख्स हैं. यासीन मलिक उस टीम के लीडर हैं, जिस टीम ने कश्मीर के सवाल को दुनिया के सामने पहुंचाने के लिए हाथ में हथियार उठा लिए थे. जब कुलदीप नैयर और जस्टिस सच्चर 90 के शुरुआती दौर में श्रीनगर गए थे, तो उन्होंने उन्हें समझाया था कि आपलोग अगर हथियार रख देंगे, तो आपके साथ हम कश्मीर समस्या के हल के लिए बहुत कुछ कर सकेंगे.

यासीन मलिक ने इनलोगों की बात मान ली थी. मैं उस शख्स को देखता रहा. बीमार होने के बावजूद चेहरे पर एक सख्ती, जो उसी दिन से जेल में बंद है, जिस दिन बुरहान वानी वाली वारदात हुई. बुरहान वानी की हत्या, शहादत या उनके एनकाउंटर में मारे जाने के दो घंटे बाद यासीन मलिक को कैद कर लिया गया.

मैंने यासीन मलिक से पूछा कि इसका ब्रेकथ्रू क्या है? उन्होंने कहा कि क्या ब्रेकथ्रू होगा? जो सिचुएशन है, दुनिया के सामने है, पाकिस्तान के भी सामने है, हिंदुस्तान के भी सामने है. जब सरकार का प्रधानमंत्री ये कहे कि हम देश को इज़राइल बनाना चाहते हैं, जिस तरी़के से इज़राइल स्ट्राइक करता है, हम वैसे ही स्ट्राइक कर रहे हैं. कश्मीर का मसला इस स्ट्राइक और इज़राइल के जुमलों के बीच ग़ायब हो जाता है, तो मैं क्या बात करूं, मैं क्या सोचूं? बहुत तल्ख़ थे यासीन मलिक साहब. बहुत ही तल्ख़.

शायद उस नौजवान के मन में हथियार रखते हुए कुलदीप नैयर और जस्टिस सच्चर के वादों के टूटने का मलाल रहा होगा. हर किसी घटना के वक्त सबसे पहले उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया जाता है, उसका मलाल रहा होगा. उनकी बात को कश्मीर के बाहर न सुने जाने का दुख रहा होगा. उन्हें अपने साथ हुई हर नाइंसाफ़ी के लम्हे याद आते होंगे. मुझे लगा ये तल्ख़ी और ये सख्ती उसका एक स्वाभाविक परिणाम है. मैं इसे अस्वाभाविक परिणाम भी कह सकता हूं.

यासीन मलिक से मिलते हुए जब मैं बाहर आने लगा, तो जो जेल का कर्मचारी मुझे बाहर छोड़ने आया, मैंने उससे पूछा कि जेल में सबसे पुराना ़कैदी कौन है? उसने कहा कि इसमें हुर्रियत के ही एक नेता बंद हैं, जो 23 साल से जेल में हैं. मैंने कहा कि 23 साल से जेल में बंद हैं. कहने लगा कि हां, वो एक मामले में छूट कर बाहर निकलते हैं, तब तक पुलिस दूसरा मामला लगा देती है. जब तक वो दूसरे से निकलते हैं, तो तीसरा लगा देती है. आज 23 साल से वो जेल में बंद हैं. तब मुझे लगा कि पुलिस की कार्यप्रणाली सारे देश में एक सी है. वो कश्मीर में अलग है, ऐसा नहीं है. किसी ने मुझे बताया कि पाकिस्तान में भी कुछ ऐसा ही होता है. सरकार जेल से निकलते ही कोई दूसरा आरोप लगा देती है और उन्हें जेल में भेज देती है. चाहे भारत हो, चाहे पाकिस्तान पुलिस की कार्यप्रणाली दोनों जगह समान है. कम-से-कम यहां तो दोनों देशों ने व्यावहारिक एकता दिखाई.

कश्मीर की पुलिस और अधिकारी भी नाख़ुश हैं

यासीन मलिक के यहां से निकल कर मैं फिर होटल आया और सोेचने लगा कि अब क्या करना चाहिए? मैंने दिन भर की सारी घटनाओं के नोट्स लिए. नोट्स लेकर सोचता रहा कि अब मुझे अगले दिन क्या करना चाहिए? तभी मुझे पता चला कि एक पुलिस अफ़सर मुझसे मिलने आए हैं. मैंने उन्हें कमरे में आने का निमंत्रण दिया. हो सकता है वो व्यक्तिगत हैसियत से आए हों, सादे कपड़े में थे, लेकिन हो सकता है जम्मू-कश्मीर या केंद्र सरकार ने उन्हें भेजा हो यह जानने के लिए कि मैं आज कहां-कहां गया? मैंने उनका स्वागत किया.

उनसे बातचीत की. वे 15 मिनट के लिए आए थे, लेकिन एक घंटे बैठ गए. उस बातचीत में मुझे पता चला कि जम्मू-कश्मीर के सरकारी अधिकारी, जम्मू-कश्मीर की पुलिस, ये सब इस स्थिति से बहुत नाख़ुश हैं. उनसे लंबी बातचीत के बाद मैंने ये नतीजा निकाला कि अगर सरकार अपनी इस नीति को नहीं बदलती, उसे हर चीज़ के जवाब में गोलियां चलानी है, तो एक दिन गोलियां चलाने वाले लोग कहीं गोली चलाने से इंकार न कर दें. मुझे ये डर लगा. उन्हीं से बातचीत में मुझे ये भी अंदाज़ा हुआ कि सरकार ने सख्ती की इतनी इंतहा कर दी है कि लोगों के मन से इसका डर निकल गया है. लोगों के मन से जेल और मौत का डर निकल गया है. अब ये मेरी समझ में नहीं आया कि अक्सर सरकारें वहीं तक ज़ुल्म करती हैं, जहां तक ज़ुल्म का डर बना रहे, लेकिन अगर ज़ुल्म उस हद को पार कर जाता है, जहां से ज़ुल्म का डर ही समाप्त हो जाए, तो ये बड़ी मूर्खतापूर्ण स्थिति मानी जाती है. जम्मू-कश्मीर में तो कम-से-कम सरकार उस स्थिति को पार कर गई है.

जो 1952 या 1954 में कश्मीर में पैदा हुए, उनकी संख्या लाखों में है, उन्होंने जबसे आंखें खोली हैं, तबसे कर्फ्यू, लाठीचार्ज, आंसू गैस, रबर की गोलियां और अब पैलेट्स गन देखे हैं. इससे ज्यादा उन्होंने बंदूक़ों से निकली हुई गोलियां देखी हैं, लाशें देखी हैं. उनके लिए यही लोकतंत्र है. जो लोकतंत्र पटना में है, लखनऊ में है, मुंबई में है, सहारनपुर में है, मुज़फ्फरपुर में है या चेन्नई में है, बंगलुरू में है, हैदराबाद में है, उस लोकतंत्र को तो वो जानते ही नहीं कि वो क्या चीज़ है.

सारी रात मुझे नींद नहीं आई, स़िर्फ ये सोचकर कि क्या सरकारें सचमुच हृदयहीन होती हैं, उनका हृदय नहीं होता. वो लोगों का दर्द नहीं समझते. क्या देश के लोग हृदयहीन हो गए हैं, जो कश्मीर की तकलीफ़ को जानना ही नहीं चाहते. जो 370 को कश्मीर के भारत के विलय में एक बाधा मानते हैं. 370 क्या है? महाराजा हरि सिंह के साथ क्या समझौता हुआ था? उसकी शर्तें क्या थीं? संयुक्त राष्ट्रसंघ में कौन गया था? क्या शर्तें थी उसकी? उन शर्तों का पालन किन लोगों ने नहीं किया या नहीं होने दिया, ये सारे सवाल देश के लोगों को क्यों नहीं पता? चूंकि ये सवाल लोगों को नहीं पता हैं, शायद इसलिए पूरा देश इस समय कश्मीर के एक-एक व्यक्ति को पाकिस्तानी मान रहा है और यह मानता है कि पाकिस्तान में शामिल करने के लिए सारे हुर्रियत के नेता जी-जान लगाए हुए हैं.

सैयद अली शाह गिलानी से एक दिलचस्प मुलाक़ात

मैं सुबह उठा, फिर सोचने लगा कि आज क्या किया जा सकता है. मुझे शाम को दिल्ली वापस चले जाना चाहिए और मैं जिन लोगों से मिला हूं, उनकी बातचीत के आधार पर एक आकलन अपने अख़बार में लिखूंगा. मैं नाश्ता करने के बाद बाहर निकला तो एक शख्स मिला. उसने मुझे पहचान लिया और कहा, आप सच्चे आदमी हैं. आप पहले ऐसे आदमी हैं, जिसने कश्मीर की सच्चाई कश्मीरियों के भी सामने रखी, जिससे हमको लगा कि आप हैं. आपके वो दो साथी कहां हैं?

मैंने कहा कि मैं उन्हें बिना बताए यहां आया हूं, अगली बार वो दोनों साथ आएंगे. उसने जिस तरह से अपनी बातें कही, मुझे लगा कि ये भोले-भालेे लोग, इन्हें थोड़ी सी रोशनी की किरण दिखाई दी, किसी ने इनके पक्ष में बातें की, इससे ये उसे अपना सबसे अच्छा दोस्त मानने लगे. उसकी बातचीत के बाद मैंने तय किया कि मुझे हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के सर्वमान्य नेता अली शाह ग़िलानी से भी मिलना चाहिए. ग़िलानी साहब से पिछली बार जब मैं और मेरे दोनों पत्रकार साथी मिलने गए थे, तो पुलिस ने हमें मिलने नहीं दिया था. जिस सूत्र ने मुझे पिछली बार गिलानी साहब से मिलने की सलाह दी थी, जिसके जवाब में गिलानी साहब ने फिर हमें होटल में फोन किया था, मैंने उन्हीं से गुज़ारिश की कि क्या किया जा सकता है? उसने मुझे कहा कि आप गिलानी साहब के यहांं पहुंचिए, देखिए कोशिश करते हैं. संयोग से हम गिलानी साहब के यहां गए, वहां हमें अंदर जाने दिया गया. ये हमारी आधिकारिक मुलाक़ात थी. मैं गिलानी साहब के पास गया.

उन्होंने शायद 15 या 20 मिनट का समय दिया था. पर जब हमारी बातचीत शुरू हुर्ई, तो बातचीत डेढ़ घंटे में तब्दील हो गई. जब डेढ़ घंटा बीता, तब गिलानी साहब ने अपना हाथ मेरे सर पर रखा. गिलानी साहब इस समय 87 साल के हैं, उम्र के आख़िरी पड़ाव पर हैं और वहां से बैठकर वो जिस तरह से सारी समस्याओं को, कश्मीर को देख रहे हैं, मैंने उसी नज़रिए से उनसे बातचीत की. अचानक मुझे लगा कि ये बातचीत तो गिलानी साहब सबसे करते होंगे और तब मैंने गिलानी साहब से उनकी ज़िंदगी के उन पहलुओं के बारे में बातचीत की, जिसके बारे में आजतक उन्होंने किसी से बात नहीं की.

गिलानी साहब की इस बातचीत को हम चौथी दुनिया के अगले अंक में छापेंगे, जिसमें गिलानी साहब क्या करना चाहते थे, जो वे नहीं कर पाए? गिलानी साहब क्या नहीं करना चाहते थे या गिलानी साहब को किस चीज़ का गम रहा ज़िंदगी में? कौन सी चीज़ उनकी ज़िंदगी से छूट गई, जो अब उनके पास कभी नहीं आ सकती? उन्हें चांद और सुरज की रोशनी से, किस तरह का अहसास होता है? गिलानी साहब अगर श्रीनगर में नहीं होते तो देश के किस हिस्से में रहना पसंद करते या दुनिया के किस हिस्से में रहना पसंद करते? ऐसे सारे सवाल, जो मानवीय सवाल हैं, उन सवालों को मैंने हिम्मत कर के पूछा और गिलानी साहब के चेहरे पर जो भाव आ रहे थे, वे उस ज़िंदगी से मिली हुई तल्ख़ियों के भाव थे, ज़िंदगी से मिली हुई ख़ुशियों के रंग थे और ज़िंदगी से ना मिल सके लम्हों के अफ़सोसनाक साए थे.

कश्मीर जो 1947 में था

गिलानी साहब के यहां से जब लगभग डेढ़ घंटे के बाद मैं निकला, तो मुझे लगा कि मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ ने कल और गिलानी साहब ने आज यह साफ़ कर दिया कि वह तो कभी पाकिस्तान में मिलने की बात ही नहीं करते. उनका स़िर्फ ये कहना है कि जो वादे भारत की सरकार ने राजा हरि सिंह से किए थे और जिसके आधार पर उन्होंने जो शर्तें यूनाइटेड नेशंस में दी थी, उन पर अमल हो और वो शर्तें सिर्फ श्रीनगर के लिए नहीं, वो शर्तें पूरे कश्मीर के लिए, जो कश्मीर 1947 में था, यानी पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले तीन हिस्से, बलतिस्तान, गिलगित, मुज़फ्फराबाद और इधर श्रीनगर, लद्दाख और जम्मू.

ये सारा हिस्सा, इसमें वो शर्तें लागू हों. जो वादे पूरे हुए हैं, वो इन सारी चीज़ों में, उनका असर इन तीनों चीज़ों पर पड़े, जिनके लिए वो कहते हैं कि आप अगर पाकिस्तान से बात नहीं करेंगे, तो पाकिस्तान के कब्ज़े वाले तीनों हिस्सों में वो चीज़ें कैसे लागू होंगी? इसलिए उन दोनों का मानना है कि हम पाकिस्तान का नाम इसलिए लेते हैं कि एक हिस्सा हिंदुस्तान के पास है, एक हिस्सा पाकिस्तान के पास है. कश्मीर को एक पूर्ण इकाई के रूप में देखने के लिए दोनों देशों की सरकारें बात करें और हम कश्मीर के दोनों हिस्सों के कश्मीर के लोग, उनकी बातों को सुनकर ये फैसला करें कि उन्हें आगे क्या करना है.

पर ये बात तो हिंदुस्तान के लोगों को बताई ही नहीं जाती. वहां तो ये कहा जाता है कि कश्मीर में रहने वाला हर आदमी पाकिस्तान का समर्थक है और गिलानी साहब व हुर्रियत के बाक़ी नेता पाकिस्तान की वकालत करते हैं. मीरवाइज़ ने कहा कि यहां लोग जब पाकिस्तान का झंडा निकालते हैं, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वे पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं. इसका मतलब है कि वो भारत सरकार को चिढ़ाना चाहते हैं. अब तो उन्होंने पाकिस्तान और चीन दोनों का झंडा निकाल दिया है, तो क्या आप मानते हैं कि हमलोग चीन के साथ जाना चाहते हैं? दरअसल गिलानी साहब इस मसले में बिल्कुल साफ़ हैं. जब ज़िंदगी के चंद साल उनके पास हैं, तो वे चाहते हैं कि इस मसले का सही और कश्मीरियों को किए गए वादे के हिसाब से हल निकले.

गिलानी साहब ने अपनी आत्मकथा और अपने द्वारा लिखी हुई तमाम किताबों की प्रतियां मुझे सौंपी. एक किताब पर उन्होंने अपने दस्तख़त किए और मैं जब वहां से निकला तो गिलानी साहब अपनी आदत के ख़िलाफ़ मुझे बाहर सड़क पर, जहां दूर मेरी गाड़ी खड़ी थी, वहां तक छोड़ने आए. वे जब बाहर सड़क पर निकले तो मैंने उनसे पूछा कि क्या आप कभी बाहर टहलने निकलते हैं, उनका कहना था कि हां, कभी-कभी निकलता हूं. थोड़ा सा दो क़दम आगे जाता हूं, तो ये मुझे वापस ले आते हैं और जब मैं कहता हूं कि नहीं दो क़दम और चलूंगा, तो ये मुझे थाने में ले जाते हैं. हम हंसे इसपर.

जब गिलानी साहब मेरी कार के पास आए, तो मैंने मज़ाक़ में कहा कि गिलानी साहब, चलिए गाड़ी में बैठिए. हम गाड़ी में भाग चलते हैं. अभी ये लोग पीछा करेंगे. गोलियां ये चलाएंगे नहीं क्योंकि आप यहां बैठे हैं और चारों तरफ शोर हो जाएगा कि हिंदुस्तान का एक पत्रकार गिलानी साहब को लेकर फ़रार होने की कोशिश कर रहा है. गिलानी साहब खुल कर हंसे. मुझे लगा कि 87 साल का एक व्यक्ति इस मज़ाक़ को भी किस तरी़के से इंज्वॉय कर रहा है, इसका लुत्फ ले रहा है.

मैं दोबारा मीरवाइज़ से क्यों मिला

गिलानी साहब के यहां से निकलते समय भी मेरे दिमाग़ में एक बात चल रही थी कि क्या मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ से एक ऐसी बात नहीं हो सकती, जिससे मैं उनका ह़र्फ-दर-ह़र्फ नोट कर लूं. तब मुझे अफसोस हुआ कि कल जब मैं मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ के पास गया तो मैं क्यों काग़ज़ पेन नहीं ले गया. मैंने फिर कोशिश की और सबसे पहले शाम की टिकट कैंसिल कराई. गिलानी साहब के यहां से मैं शायद 4 बजे निकला. वहां सेे निकलने के बाद मैंने फिर चश्मेशाही की तरफ़ दौड़ लगाई.

रास्ते में मैंने अपने सारे संपर्कों से कहा कि सरकार से, ग़ैर सरकार से, साहब से, नौकर से, जिससे भी हो, मुझे किसी तरह से मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ से आधे घंटे मिलने का मौक़ा मिल जाय. मैंने कहा, नहीं मिलेगा, तो मैं वहां इंतज़ार करूंगा सड़क पर, जहां से चश्मेशाही का रास्ता शुरू होता है. मैं उस माहौल को देखना चाह रहा था. रात के अंधेरे में वो इलाक़ा कैसा लगता है, जिसे किताबों में, कहानियों में, पृथ्वी के स्वर्ग की संज्ञा दी जाती है, वो रात में कैसा लगता है? कर्फ्यू वाली रातों में कैसा लगता है? सर्दी की रातों में कैसा लगता है?

क्या इसे मैं अपना अच्छा भाग्य कहूं या मित्रों की मदद कहूं, मुझे फिर किसी तरह जेल में जाने का मौक़ा मिल गया. मैं काग़ज़ों का एक पुलिंदा लेकर चश्मेशाही वाली सड़क पर चढ़ा. इस बार मेन गेट पर तैनात, जहां बैरियर लगा है, सिपाही ने पूछा, तो मैंने उसे अपने पूर्व सांसद होने का कार्ड दिखाया. उसने फ़ौरन अंदर जाने दिया. जेल के कर्मचारी मुझे मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ के पास ले गए. उन्होंने कहा कि अरे, आप फिर कैसे आए? मैंने कहा, मौलवी साहब, यही तो हमारा हुनर है. मैंने उन्हें मज़ाक़ में बताया कि किस तरह मैंने कैसे-कैसे उन लोगों से अपने पत्रकारीय जीवन में मुलाक़ात की, जिनसे कोई दूसरे कभी मुलाक़ात कर ही नहीं पा रहे थे. उनमें डाकू भी थे, अंडरवर्ल्ड के लोग भी थे, ऐसे राजनेता भी थे, जो कुछ करके छुपे हुए थे.

इसमें सुकुर नारायण बखिया और हाजी मस्तान जैसे लोग, माधव सिंह, फूलन देवी जैसे डाकू और वो सारे मुख्यमंत्री, वो सारे मंत्री जिन्होंने कुछ ऐसा किया, जिसको मैंने रिपोर्ट किया और जिससे उनके पद के ऊपर आंच आई. कम-से-कम दो मुख्यमंत्रियों के इस्ती़फे मेरी रिपोर्ट पर हुए और सात या आठ कैबिनेट मंत्रियों का मुझे याद है, या तो उनके इस्ती़फे हुए या उनके विभाग बदले गए. मैंने ये मज़ाक़-मज़ाक़ में मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ को जब बताया, तो उन्होंने कहा, लेकिन मैं आपको इंटरव्यू नहीं दूंगा. मैंने कहा, मीरवाइज़ साहब, इंटरव्यू अगर नहीं देंगे, तो मेरी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी. मैं यहां अख़बार के लिए आया हूं. मैं उसमें आपकी कही हुई बात छापना चाहता हूं. मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ ने कहा, हमने तय किया है कि मैं, गिलानी साहब और यासीन मलिक साहब, हम तीनों आपस में मशविरा करके ही कोई बात कहेंगे. मैंने कहा, वही कीजिए.

मैं आपसे बयान देने की बात नहीं कर रहा हूं. मैं आपसे स्थिति का आकलन करने की बात कह रहा हूं, जिसकी वजह से ये 106 दिनों का कर्फ्यू लगा है. लड़के जेल में हैं, लोग मारे गए हैं, पैलेट गन से लोगों की आंखें गई हैं. सरकार बंद है, डल झील सूनी है, सड़कों पर टैक्सियां नहीं चल रही हैं, विद्यार्थियों के इम्तिहान नहीं हो रहे हैं, जो घायल हैं उनका इलाज नहीं हो रहा है. कश्मीर के इस बंद की वजह से उन लोगों की मौत इस खाते में नहीं लिखी जा रही है, जिन्हें डाइलिसिस कराना था, लेकिन जिनकी डाइलिसिस नहीं हुई और उनकी जानें चली गईं. मैं इसमें उन्हें नहीं जोड़ रहा हूं, जिनको कैंसर था, जिन्हें इलाज के लिए हॉस्पिटल आना पड़ता है, वे नहीं आ पाए, इसलिए उनकी मौत हो गई. तब मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ ने मुझसे बात करनी शुरू की.

मैंने उस बात की एक-एक चीज़ को जल्दी-जल्दी काग़ज़ पर नोट किया. नोट करने के बाद मैंने मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ से कहा कि मैंने जो नोट किया है और जो मेरी याद्दाश्त में रहेगा, उसे लेकर मैं स्टोरी करूंगा. अगर कहीं कौमा-फुलस्टॉप इधर-उधर हो जाय, तो कृप्या मुझे क्षमा कीजिएगा. मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ अपनी सौम्यता की हंसी हंसे. मैं वहां से निकलकर बाहर आया. ग़नी से मैंने कहा, मुझे आज फिर श्रीनगर घूमना है. ग़नी लड़का है, ड्राइवर है, टैक्सी चलाता है. मैंने फिर उसके साथ बैठकर डल झील का चक्कर लगाया. सुनसान, बियाबान. शहर मेें घूमा. वो दिन शुक्रवार था. मैं आपको बताता हूं कि पिछले दिनों कुछ गलियों में दुकानें खुली हुई थीं, लेकिन उस शुक्रवार को उन गलियों की दुकानें भी बंद थीं.

हुर्रियत ने कहा था कि शुक्रवार को तो कुछ भी खुला नहीं होना चाहिए. चाय का एक कप अगर कहीं उस दिन मिल जाता, तो शायद लाख रुपए का एक कप होता. नहीं मिला कहीं. खाने के लिए लोग तरस जाते हैं, क्योंकि सारी दुकानें बंद, दवाइयों की दुकानें बंद, सबकुछ बंद.

मीरवाइज़ का इंटरव्यू और यशवंत सिन्हा का कश्मीर दौरा

रात में मैंने मीरवाइज़ के दिए हुए इंटरव्यू के प्वाइंट्स बनाए. अपने दिमाग़ में जितना याद था, वो सब मैंने लिखा और प्रश्‍न-उत्तर की शक्ल में एक तिहाई काम मैंने पूरा कर लिया. अगले दिन सुबह में पहले हवाई जहाज़ से, जो सुबह सात बजे वहां से दिल्ली के लिए उड़ता है, मैं उससे दिल्ली आ गया. रास्ते भर मैं सोचता रहा कि काश, कश्मीर का ये दर्द दिल्ली को समझ में आ जाए. दिल्ली पहुंचते ही मैंने ईटीवी को बताया कि मैं कश्मीर होकर आया हूं, मैंने मीरवाइज़ का इंटरव्यू छापा है. वो शाम को मेरे पास आए, तब तक अख़बार छप कर आ चुका था. उन्होंने अख़बार के पन्नों की तस्वीरें ली और टीवी पर दिखाया. उन्होंने मुझसे बातचीत की और उसे टीवी पर दिखाया. कश्मीर न्यूज़, जो शाम सात से आठ बजे तक आती है, फिर उसमें विस्तार से दिखाया.

नतीजे के तौर पर पूरे कश्मीर को ये पता चल गया कि मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ का इंटरव्यू हुआ है और मीरवाइज़ इस इंटरव्यू में, ये-ये-ये कह रहे हैं. उस इंटरव्यू में मीरवाइज़ मौलाना उमर फ़ारूक़ ने यह कहा, जो मैंने टीवी पर बताया कि अटल बिहारी वाजपेयी ने जहां सिरा छा़ेडा था, उसी सिरे से इस सरकार को काम शुरू करना चाहिए, तभी कश्मीर का कोई हल निकलेगा, अन्यथा हल निकलना मुश्किल है. शायद उस इंटरव्यू को कश्मीर में महबूबा मुफ्ती और दिल्ली में होम मिनिस्ट्री ने देखा और तब ये तय हुआ कि यहां से एक अध्ययन दल फौरन कश्मीर भेजा जाए.

भूतपूर्व विदेश मंत्री और वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के नेतृत्व में वजाहत हबीबुल्लाह, पत्रकार भारत भूषण, पूर्व एयर वाइस मार्शल कपिल काक और सुशोभा बार्वे कश्मीर गए. ये लोग सोमवार (23 अक्टूबर) की सुबह श्रीनगर के लिए चल दिए. वहां जाकर उन्होंने गिलानी साहब, मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ और प्रोफेसर बट से मुलाक़ात की. यासीन मलिक ने उनसे मिलने से मना कर दिया. ये लोग सिविल सोसायटी के लोगों से भी मिले. ये लोग वकीलों से मिले. वहां के व्यापारियों के कुछ ग्रुप से मिले, लेकिन इनलोगों ने कहा कि वे यहां सरकार से बात कर के नहीं आए हैं. उनका कोई सरकारी एजेंडा नहीं है. अच्छा होता, अगर ये इस बात को खोल देते कि हां, हम सरकार से बातचीत करेंगे. इसमें बुरा क्या है? सरकार को चाहिए कि वो बातचीत के रास्ते खोले.

एक रास्ता इसमें ये भी है, लेकिन इन्होंने बार-बार ये स्टैंड लिया कि सरकार ने हमें नहीं कहा है. सवाल ये है कि अगर आपको सरकार ने नहीं जाने के लिए कहा है, तो पूरी सरकार आपके लिए सुविधाएं कैसे पैदा कर रही है और चौथी दुनिया को दिए हुए इंटरव्यू में मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ ने ये कहा कि जब तक राजनीतिक लोग नहीं छोड़े जाएंगे, राजनीतिक गतिविधियां नहीं होंगी. ये उनकी मांग थी. शायद उसकी वजह से सरकार ने मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ को इतवार की रात जेल से निकाल कर उनके घर में भेज दिया. पर ये संयोग था कि पहले जेल में बंद होने की वजह से सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से इनमें से कोई नेता नहीं मिला था. इस बार जेल से बाहर होने की वजह से अपने घर पहुंचने पर मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़, यशवंत सिन्हा के नेतृत्व वाले दल से मिले. गिलानी साहब भी इनसे मिले. उन्होंने अपनी-अपनी बातें इनके सामने रखीं.

प्रधानमंत्री को तत्काल श्रीनगर जाना चाहिए क्योंकि समस्या का हल स़िर्फ उनके पास है

कश्मीर एक दर्द के धुंध के बीच घिरा हुआ इलाक़ा है. 60 लाख लोग यहां हैं. सरकार कोई भी फैसला करे तो ये मान कर करे कि वो 60 लाख लोगों को या तो अपने पक्ष में करना चाहती है या 60 लाख लोगों को अपने विरोध में करना चाहती है. कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियां बंद हैं. कोई विधायक अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं जा सकता है. मंत्री अपने दफ्तरों में आराम से नहीं जा सकते हैं. सारी राजनीतिक गतिविधियां बंद हैं. हालत ये है कि जब श्रीनगर में एक सर्वदलीय मीटिंग हुई, तब हुर्रियत ने कह दिया कि आप चुप बैठिए, जब आप लोग सरकारों में थे, तब आपने क्या किया.

उसके बाद किसी राजनीतिक नेता का वहां पता नहीं है. कश्मीर के लोग हमारे अपने लोग हैं. हम लाओस, चीन, सूडान, यमन की चिंता करते हैं, अपने लोगों की भी चिंता कर लें. मैं इस स्थिति के आकलन को इस निवेदन के साथ स्वीकार करता हूं कि प्रधानमंत्री जी, आपके हाथ में चाबी है, आप कृप्या कर श्रीनगर जाएं. दो दिन वहां बैठें और वहीं फैसला लें कि कश्मीर के लिए क्या करना है. आपने एक दिवाली श्रीनगर में मनाई थी. उससे ज्यादा ज़रूरी, इस दिवाली पर या इसके कुछ दिन बाद कश्मीर के लोगों को दिवाली का तोहफ़ा देना आपका फर्ज़ बनता है.

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