केद्र सरकार द्वारा गोपाल सुब्रह्मण्यम को सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश न नियुक्त करने के निर्णय ने एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया चर्चा का विषय बना दी है. 1993 तक जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया बिल्कुल साफ़ थी. सरकार भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेकर जजों को नियुक्त करती थी. बाद में कोर्ट ने परामर्श को सहमति के अर्थ में अपनाना शुरू कर दिया. इसका मतलब यह कि अगर सुप्रीम कोर्ट को किसी व्यक्तिकी जज के रूप में नियुक्ति पर आपत्ति हो, तो सरकार उसे जज नियुक्त नहीं कर सकती. बहरहाल, 1993 में पूरी प्रक्रिया बदल दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति के संबंध में संविधान की एक धारा को आधार बनाकर निर्णय देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के परामर्श का पालन करना सरकार की बाध्यता है. आंतरिक प्रयोजन के लिए पहले मुख्य न्यायाधीश एवं दो जजों का कोलेजियम बनता था और अब मुख्य न्यायाधीश और चार जजों का कोलोजियम बनने लगा है. इस आंतरिक प्रयोजन की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने की थी, लेकिन वास्तविकता यह है कि अब सुप्रीम कोर्ट सरकार से अनुशंसा करता है और वर्ष 1993 के बाद से सरकारें आंख मूंदकर केवल उनका पालन करती रही हैं.
हालांकि, गोपाल सुब्रह्मण्यम सुप्रीम कोर्ट के जज बनने के लिए एक उत्कृष्ट व्यक्ति हैं, लेकिन यहां सरकार का रवैया अनुचित है. चूंकि गोधरा दंगों से जुड़े कुछ मामलों में गोपाल सुब्रह्मण्यम ने न्यायालय के मददगार (एमिकस-क्यूरी) की भूमिका अदा की थी, इसलिए वह वर्तमान सरकार की पसंद नहीं हैं. दुर्भाग्यवश, सरकार ने इस मामले में अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल किया है. यद्यपि क़ानून ने यह साफ़ कर दिया है कि एक न्यायाधीश दूसरे न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं कर सकता है. दुनिया में कहीं भी एक न्यायाधीश दूसरे न्यायाधीश को नियुक्त नहीं करता. भारत में यह अजीब परंपरा 1993 में शुरू हुई और सुुप्रीम कोर्ट अपने न्यायाधीशों की नियुक्ति स्वयं करने लगा. सरकार को एक क़ानून लाना चाहिए या वर्तमान क़ानून को स्पष्ट करना चाहिए. सरकार को संविधान के मुताबिक जजों की नियुक्ति के मामले में पहल करते हुए मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से उनकी नियुक्ति करनी चाहिए. परामर्श तो परामर्श है, उसे सहमति नहीं समझना चाहिए.
इंदिरा गांधी अपने शासनकाल में सुुप्रीम कोर्ट की सहमति पर जोर नहीं देती थीं. यदि इंदिरा गांधी किसी को जज नियुक्त करना चाहती थीं, तो वह व्यक्ति नियुक्त होता था, भले ही सुप्रीम कोर्ट उसे पसंद करे या नापसंद. परामर्श केवल परामर्श था, इसके अलावा और कुछ नहीं. यदि वहां कोई सहमति होती थी, तो वह भी स्वीकार हो जाती थी, लेकिन इसके उलट यह स्वीकार्य नहीं था कि सुप्रीम कोर्ट ने नाम दिए और सरकार ने रबड़ स्टैंप की तरह उस पर हस्ताक्षरकर दिए. इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च नहीं था. इसे न्यायपालिका के काम में दखल कहने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है. यहां कोई किसी न्यायाधीश के काम में दखलंदाज़ी नहीं कर रहा है. उन्हें किसी मामले में कैसा रुख अपनाना है और क्या निर्णय देना है, इसके लिए वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं. भारत के प्रमुख न्यायाधीश के काम में कोई दखल नहीं दे सकता, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति करना सरकार का विशेषाधिकार होना चाहिए और राष्ट्रपति को सरकार की अनुुशंसा के आधार पर उन्हें नियुक्त करना चाहिए. मैं आशा करता हूं कि आज़ादी के बाद से 1993 तक चलने वाली न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली पुनर्स्थापित होगी.
अब सरकार के कुछ मंत्रियों के बयान पर आते हैं. हालांकि, प्रधानमंत्री ने अच्छी पहल करते हुए अपने मंत्रियों से अनावश्यक बयान देने से परहेज करने करने के लिए कहा है, लेकिन सरकार के कुछ मंत्री अभी भी अनावश्यक बयान दे रहे हैं. संसदीय कार्यमंत्री वैंकैया नायडू ने एक दिन बयान दिया कि नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति नहीं की जाएगी. एक दिन उन्होंने कहा कि लोक लेखा समिति (पीएसी) की अध्यक्षता कांग्रेस पार्टी को दी जाएगी. उनका व्यवहार ऐसा है, जैसे वह अपनी पैतृक संपत्ति को अपनी पसंद के लोगों में बांट रहे हों. इन संसदीय पदों पर लोगों की नियुक्ति करना लोकसभा अध्यक्ष का विशेषाधिकार है. नायडू अपने दायरे से बाहर निकल कर लोकसभा अध्यक्ष का अपमान कर रहे हैं और कह रहे हैं कि ऐसा होगा, ऐसा नहीं होगा. इस विषय को लोकसभा अध्यक्ष के ऊपर छोड़ देना चाहिए. इसके लिए कुछ स्थापित सिद्धांत एवं परंपराएं हैं, मसलन नेता प्रतिपक्ष वही बन सकता है, जिसकी पार्टी को सदन में दस प्रतिशत सीटें हासिल हुई हों.
वर्ष 1952 से 1969 तक सदन में कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं था. कांग्रेस सत्ता में थी और किसी विपक्षी दल के पास इतनी सीटें नहीं थीं कि वह इस पद के लिए दावा कर सके. इससे कोई बड़ी आफत नहीं आई और सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहा. कांग्रेस में टूट वजह से वर्ष 1969 में राम सुभाग सिंह पहले नेता प्रतिपक्ष बने. कुछ समय बाद एक बार फिर यह पद रिक्त हो गया. इसलिए नेता प्रतिपक्ष कोई ऐसा पद नहीं है, जो सदन में हमेशा रहा हो. तो, यहां भी यह कैसे होगा? कांग्रेस उपरोक्त तथ्यों को भुलाकर नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए जोर लगा रही है, जैसे नेता प्रतिपक्ष को कोई विशिष्ट अधिकार मिल गए हों. कैबिनेट रैंक के अलावा इसकी कोई खास अहमियत नहीं है. संसद में हर समूह का नेता स्वतंत्र होता है और उसके पास सदन में काम करने के लिए दूसरे गुट के नेताओं के बराबर अधिकार होते हैं. इसलिए इस मामले को ज़्यादा तूल नहीं देना चाहिए. यह व्यवहार ठीक नहीं है. इसे देखकर ऐसा लगता है कि कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी छोटी चीजों में उलझ रही है, लेकिन वैंकैया नायडू जैसे नेताओं को भी यह समझना चाहिए कि वह संसद की गरिमा कम न करें.
जहां तक पीएसी के अध्यक्ष की बात है, तो 1967 तक यह पद भी सत्तारूढ़ दल के पास होता था. इसके बाद हाउस ऑफ कॉमंस का अनुकरण करते हुए यह पद विपक्षी दलों को दिया जाने लगा. 1967 के बाद से यह पद हमेशा विपक्ष के पास रहा है. पहले भी जब केंद्र में एनडीए का शासन था, तब यह पद कांग्रेस के पास था और जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब यह पद विपक्षी दल के पास था. इसलिए इसमें कुछ नया नहीं है. लेकिन, जिस तरह वैंकैया नायडू बात कर रहे हैं, उससे ऐसा लग रहा है कि वह हर किसी को उपहार दे रहे हैं. यह बंद होना चाहिए. संसद की गरिमा सर्वोपरि है. भाजपा को लोकसभा में 282 सीटें मिली हैं, यदि एनडीए को शामिल कर लिया जाए, तो कहीं और ज़्यादा. इसलिए उन्हें शालीनता का परिचय देते हुए विपक्ष को अपनी बात रखने का मौक़ा देना चाहिए.
कांग्रेस पार्टी को नेता प्रतिपक्ष जैसे छोटे मामले में न पड़कर स्वयं को संसद में अच्छी बहस के लिए तैयार करना चाहिए. संसद का बजट सत्र सामने है. किस तरह का बजट पेश किया जाएगा, संसद की परिचर्चा एवं बहस में विपक्षी दल किस तरह की भूमिका निभाएंगे, इस बारे में हर कोई उत्सुक है. पुराने दिनों में, खासकर पहली दो-तीन लोकसभाओं के दौरान कांग्रेस के सामने कोई चुनौती नहीं थी, लेकिन उस वक्त संसद में बहस बहुत ही रोचक होती थी और विपक्ष की बातें सुनी जाती थीं. जवाहर लाल नेहरू स्वयं सदन में उपस्थित रहते थे. वह विपक्षी दलों की बातें सुनते थे और उस दौरान जो भी मसले सामने आते थे, उन्हें हल करने की कोशिश करते थे. आइए, अतीत के तौर-तरीके, परंपराएं और संसद की गरिमा पुनर्स्थापित करने का प्रयास करें.

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