कल अचानक शाहरुख खान की नयी फिल्म ‘जवान’ के बारे में किस्से कोते तो सुन रहा था और यूट्यूबर ध्रुव राठी ने भी ट्वीट कर इसे जबरदस्त फिल्म बताया था। इसलिए मन में फिल्म देखने की उत्कंठा जाग रही थी। पर अभी तक यानी लिखने तक देख नहीं पाया हूं। कल अचानक सुबह 11 बजे ‘सत्य हिंदी’ के ‘सिनेमा संवाद’ कार्यक्रम में इस फिल्म पर तीन प्रबुद्ध लोगों की बातचीत सुन कर जैसे खलबली सी मच गई दिमाग में। बड़ी बेबाक, मुखर और दिलचस्प। लगा कि केवल दो या तीन लोगों में कितनी सारगर्भित बात हो सकती है। फिल्म क्या कहती है। कितनी मसाला है कितनी मासी यानी ‘मास’ की फिल्म है। कितनी राजनीतिक है, क्या संदेश देती है और आज की राजनीति पर क्या असर करने वाली हो सकती है। यह सब सोचने समझने के लिए अजय ब्रह्मात्मज और जवरीमल पारेख को सुनना ही पर्याप्त रहा।‌
फिल्म साउथ और नार्थ का कॉकटेल समझिए। फिल्म के चर्चित निर्देशक एटली दक्षिण भारतीय हैं और द्रविड़ राजनीति में खासा दखल रखते हैं। फिल्म की नायिका नयनतारा दक्षिण भारतीय हैं और नायक शाहरुख खान उत्तर और मध्य भारत की पहचान हैं। आज की राजनीति से निर्देशक और नायक दोनों प्रभावित हैं। इसलिए कहिए कि फिल्म में दोनों की अच्छी कैमिस्ट्री है। तो जाहिरा तौर से फिल्म पर मौजूदा राजनीति का प्रभाव होना ही था।‌ आज की राजनीति को यह फिल्म इस अर्थ में बुनती है कि इसमें राजनीति जनित तमाम सामाजिक समस्याओं को बड़ी शिद्दत से उठाया गया है। किसानों की आत्महत्या का मसला है तो गोरखपुर के अस्पताल में आक्सीजन की कमी से हुई बच्चों की दर्दनाक मौतों की बात है। कहने का मतलब यह है कि यह फिल्म उन राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं की ओर इशारा करती है जो कांग्रेस के शासन से आज के निजाम तक बदस्तूर जारी हैं। सबसे बड़ी बात इस फिल्म का संदेश है कि वोट देना है तो सोच समझ कर और नेताओं से उनका हिसाब किताब मांग कर खुली आंखों और समझ से दो‌। इन समस्याओं और संदेश को आज की राजनीति पर चोट और सबक के रूप में लिया जा रहा है। चतुराई भी इसी बात में है। जी- 20 सम्मेलन के समय में फिल्म रिलीज होना भी कुछ कहता है। कुछेक महीने बाद देश में लोकसभा चुनाव हैं। तो क्या मान लिया जाए कि यह फिल्म 2024 के चुनाव में या चुनाव तक अपना असर बनाए रखेगी। संभव है एटली और शाहरुख दोनों शायद यही चाहते हों। लेकिन मोदी चौतरफा अपने इर्द गिर्द चल रहे षड़यंत्रों और वातावरण से सचेत हैं। उनकी चाल तेज है। सब जानते हैं जी 20 सम्मेलन की मेजबानी भारत को 2022 में मिलनी थी लेकिन इसे बदला गया। चौबीस के चुनाव को देख कर इसे चंद महीनों पहले तेईस में रखा गया। और मोदी अपने मंतव्य में सफल भी रहे।‌ यह तो डंके की चोट पर कहा जा सकता है।
फिल्म का चुनावों पर या चुनावों तक क्या असर रहेगा और दर्शक फिल्म से क्या लेकर जाएगा इस पर बात करने से पहले मौजूदा राजनीति पर भी थोड़ी बात कर ली जाए। यह तो सब जानते हैं कि देश के गम्भीर मुद्दों पर परदा डालने के लिए यह सत्ता हर वक्त ऐसी ऊटपटांग चर्चाएं कराए रखती है। जैसे पांच दिन का विशेष अधिवेशन या इंडिया बनाम भारत की बहस आदि। एक ओर यह है और दूसरी ओर मोदी का स्वयं की छवि को सुदृढ़ और सुदृढ़ करते जाने का प्रयोजन है। जी 20 का सम्मेलन उसी अर्थ में देखिए। इस सम्मेलन की भव्यता और तमाम चीजों में जिस तरह पैसा बहाया गया है और मोदी, मोदी और मोदी की जिस तरह छवि उकेरी गई है उसका कोई विरोध करता भी तो मोदी की बेशर्मी के तले दब कर रह जाता। जैसे अडानी और चीन का मसला कारपेट के नीचे दबाया जा रहा है। थोड़े दिनों में ये दोनों मसले बेमानी साबित हो जाएंगे। अडानी पर तो हर सरकार घिरी है अपने अपने राज्यों में। राजनीतिक चिंतक अभय दुबे कहते हैं कि विपक्ष विधानसभाओं के चुनावों के लिए एकजुट नहीं हुआ है वह लोकसभा चुनाव के लिए बना है। और नवंबर के बाद जब सारे विधानसभाओं के चुनाव खत्म हो जाएंगे तब स्थिति कुछ और बनेगी । सच है। लेकिन मोदी की चाल और विपक्ष की चाल में आ रहे गहरे अंतर पर हमें कुछ सोचना चाहिए या नहीं? जी 20 का असर कैसे पड़ेगा। सबसे बड़ा तर्क यह है कि दिनोदिन धूमिल होती मोदी की छवि पुनः साफ हुई है। जो तबका मोदी से शुरु से हिप्नोटाइज रहा है और खाता पीता उच्च या उच्च मध्य वर्ग उसमें जी 20 के आयोजन ने कमाल किया है। सम्मेलन खत्म हो गया लेकिन मोदी की छवि सुदृढ़ हो गई। जी 20 सम्मेलन में आपने जो देखा उसका दुगना उत्साह और असर आप अयोध्या के मंदिर उद्घाटन में देखिएगा। इसके बीच भी इसी तरह की की और बातें होंगी। देश की तमाम समस्याओं पर तिरपाल ढक दी जाएगी और चौतरफा मोदी मोदी की गूंज आप सुनेंगे। यह एक चित्र है। दूसरा चित्र विपक्ष का है क्या वह मोदी की छवि और माहौल को तोड़ कर असली मुद्दों पर देश को लाकर सत्ता पक्ष के सामने वन टू वन उम्मीदवार को खड़ा कर पाने में सफल हो पाएगा। बहुत बड़ी चुनौती है।
मोदी इस बात को जानते हैं कि लड़ाई 60 और 40 के बीच की है। चतुर खिलाड़ियों को हमने खूब देखा है कि कैसे वे मजबूत को मात देने का हुनर रखते हैं। लोकतंत्र में वोटर राजा होता है। लेकिन दूसरा राजा अगर मालिक वोटर को ही हांक ले जाए तो क्या कहिएगा। 2014 और 2019 के चुनाव में हमने यही देखा है। क्या यही कहानी फिर से इन चुनावों में दोहराई जाएगी। क्या 40 प्रतिशत वोटर 60 प्रतिशत वोटर पर हावी होगा। अजय ब्रह्मात्मज इसी को दोहराते हैं। वे कहते हैं दर्शक, दर्शक ही होता है। वह सीख लेकर कुछ नहीं जाता। उन्हें नहीं लगता कि यह दर्शक फिल्म से सीख लेकर वोट करेगा। इसलिए चौबीस तक ‘जवान’ फिल्म का असर बना रहना मुश्किल है। फिल्म का अंत भी चर्चा का विषय है जहां शाहरुख खान के मॉनोलॉग के बाद संजय दत्त का फिल्म में पदार्पण होता है और वह सब कुछ ‌धो डालता है यानी शाहरुख खान के मॉनोलॉग का कोई अर्थ नहीं। मैं फिर बता दूं कि मैंने अभी फिल्म नहीं देखी है । मित्रों का सुझाव था कि फिल्म देख कर लिखें । लेकिन इस फिल्म से यह सबक तो मिल ही रहा है कि एजेंडा फिल्मों या खास तरह की फिल्मों के बरक्स दूसरा सिनेमा भी बनाया जा सकता है। वैसे भी एजेंडा फिल्मों की उम्र तभी तक होती है जब तक समाज उस एजेंडा पर चलता दिखता है।
इसलिए यह फिल्म जरूर देखिए और विपक्ष को चाहिए कि इस फिल्म को चौबीस तक चर्चा में बनाए रखे । मेरी तंद्रा टूटी। शाहरुख खान की नयी फिल्म ‘जवान’ के बारे में किस्से कोते तो सुन रहा था और यूट्यूबर ध्रुव राठी ने भी ट्वीट कर इसे जबरदस्त फिल्म बताया था। इसलिए मन में फिल्म देखने की उत्कंठा जाग रही थी। पर अभी तक यानी लिखने तक देख नहीं पाया हूं। कल अचानक सुबह 11 बजे ‘सत्य हिंदी’ के ‘सिनेमा संवाद’ कार्यक्रम में इस फिल्म पर तीन प्रबुद्ध लोगों की बातचीत सुन कर जैसे खलबली सी मच गई दिमाग में। बड़ी बेबाक, मुखर और दिलचस्प। लगा कि केवल दो या तीन लोगों में कितनी सारगर्भित बात हो सकती है। फिल्म क्या कहती है। कितनी मसाला है कितनी मासी यानी ‘मास’ की फिल्म है। कितनी राजनीतिक है, क्या संदेश देती है और आज की राजनीति पर क्या असर करने वाली हो सकती है। यह सब सोचने समझने के लिए अजय ब्रह्मात्मज और जवरीमल पारेख को सुनना ही पर्याप्त रहा।‌
फिल्म साउथ और नार्थ का कॉकटेल समझिए। फिल्म के चर्चित निर्देशक एटली दक्षिण भारतीय हैं और द्रविड़ राजनीति में खासा दखल रखते हैं। फिल्म की नायिका नयनतारा दक्षिण भारतीय हैं और नायक शाहरुख खान उत्तर और मध्य भारत की पहचान हैं। आज की राजनीति से निर्देशक और नायक दोनों प्रभावित हैं। इसलिए कहिए कि फिल्म में दोनों की अच्छी कैमिस्ट्री है। तो जाहिरा तौर से फिल्म पर मौजूदा राजनीति का प्रभाव होना ही था।‌ आज की राजनीति को यह फिल्म इस अर्थ में बुनती है कि इसमें राजनीति जनित तमाम सामाजिक समस्याओं को बड़ी शिद्दत से उठाया गया है। किसानों की आत्महत्या का मसला है तो गोरखपुर के अस्पताल में आक्सीजन की कमी से हुई बच्चों की दर्दनाक मौतों की बात है। कहने का मतलब यह है कि यह फिल्म उन राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं की ओर इशारा करती है जो कांग्रेस के शासन से आज के निजाम तक बदस्तूर जारी हैं। सबसे बड़ी बात इस फिल्म का संदेश है कि वोट देना है तो सोच समझ कर और नेताओं से उनका हिसाब किताब मांग कर खुली आंखों और समझ से दो‌। इन समस्याओं और संदेश को आज की राजनीति पर चोट और सबक के रूप में लिया जा रहा है। चतुराई भी इसी बात में है। जी- 20 सम्मेलन के समय में फिल्म रिलीज होना भी कुछ कहता है। कुछेक महीने बाद देश में लोकसभा चुनाव हैं। तो क्या मान लिया जाए कि यह फिल्म 2024 के चुनाव में या चुनाव तक अपना असर बनाए रखेगी। संभव है एटली और शाहरुख दोनों शायद यही चाहते हों। लेकिन मोदी चौतरफा अपने इर्द गिर्द चल रहे षड़यंत्रों और वातावरण से सचेत हैं। उनकी चाल तेज है। सब जानते हैं जी 20 सम्मेलन की मेजबानी भारत को 2022 में मिलनी थी लेकिन इसे बदला गया। चौबीस के चुनाव को देख कर इसे चंद महीनों पहले तेईस में रखा गया। और मोदी अपने मंतव्य में सफल भी रहे।‌ यह तो डंके की चोट पर कहा जा सकता है।
फिल्म का चुनावों पर या चुनावों तक क्या असर रहेगा और दर्शक फिल्म से क्या लेकर जाएगा इस पर बात करने से पहले मौजूदा राजनीति पर भी थोड़ी बात कर ली जाए। यह तो सब जानते हैं कि देश के गम्भीर मुद्दों पर परदा डालने के लिए यह सत्ता हर वक्त ऐसी ऊटपटांग चर्चाएं कराए रखती है। जैसे पांच दिन का विशेष अधिवेशन या इंडिया बनाम भारत की बहस आदि। एक ओर यह है और दूसरी ओर मोदी का स्वयं की छवि को सुदृढ़ और सुदृढ़ करते जाने का प्रयोजन है। जी 20 का सम्मेलन उसी अर्थ में देखिए। इस सम्मेलन की भव्यता और तमाम चीजों में जिस तरह पैसा बहाया गया है और मोदी, मोदी और मोदी की जिस तरह छवि उकेरी गई है उसका कोई विरोध करता भी तो मोदी की बेशर्मी के तले दब कर रह जाता। जैसे अडानी और चीन का मसला कारपेट के नीचे दबाया जा रहा है। थोड़े दिनों में ये दोनों मसले बेमानी साबित हो जाएंगे। अडानी पर तो हर सरकार घिरी है अपने अपने राज्यों में। राजनीतिक चिंतक अभय दुबे कहते हैं कि विपक्ष विधानसभाओं के चुनावों के लिए एकजुट नहीं हुआ है वह लोकसभा चुनाव के लिए बना है। और नवंबर के बाद जब सारे विधानसभाओं के चुनाव खत्म हो जाएंगे तब स्थिति कुछ और बनेगी । सच है। लेकिन मोदी की चाल और विपक्ष की चाल में आ रहे गहरे अंतर पर हमें कुछ सोचना चाहिए या नहीं? जी 20 का असर कैसे पड़ेगा। सबसे बड़ा तर्क यह है कि दिनोदिन धूमिल होती मोदी की छवि पुनः साफ हुई है। जो तबका मोदी से शुरु से हिप्नोटाइज रहा है और खाता पीता उच्च या उच्च मध्य वर्ग उसमें जी 20 के आयोजन ने कमाल किया है। सम्मेलन खत्म हो गया लेकिन मोदी की छवि सुदृढ़ हो गई। जी 20 सम्मेलन में आपने जो देखा उसका दुगना उत्साह और असर आप अयोध्या के मंदिर उद्घाटन में देखिएगा। इसके बीच भी इसी तरह की की और बातें होंगी। देश की तमाम समस्याओं पर तिरपाल ढक दी जाएगी और चौतरफा मोदी मोदी की गूंज आप सुनेंगे। यह एक चित्र है। दूसरा चित्र विपक्ष का है क्या वह मोदी की छवि और माहौल को तोड़ कर असली मुद्दों पर देश को लाकर सत्ता पक्ष के सामने वन टू वन उम्मीदवार को खड़ा कर पाने में सफल हो पाएगा। बहुत बड़ी चुनौती है।
मोदी इस बात को जानते हैं कि लड़ाई 60 और 40 के बीच की है। चतुर खिलाड़ियों को हमने खूब देखा है कि कैसे वे मजबूत को मात देने का हुनर रखते हैं। लोकतंत्र में वोटर राजा होता है। लेकिन दूसरा राजा अगर मालिक वोटर को ही हांक ले जाए तो क्या कहिएगा। 2014 और 2019 के चुनाव में हमने यही देखा है। क्या यही कहानी फिर से इन चुनावों में दोहराई जाएगी। क्या 40 प्रतिशत वोटर 60 प्रतिशत वोटर पर हावी होगा। अजय ब्रह्मात्मज इसी को दोहराते हैं। वे कहते हैं दर्शक, दर्शक ही होता है। वह सीख लेकर कुछ नहीं जाता। उन्हें नहीं लगता कि यह दर्शक फिल्म से सीख लेकर वोट करेगा। इसलिए चौबीस तक ‘जवान’ फिल्म का असर बना रहना मुश्किल है। फिल्म का अंत भी चर्चा का विषय है जहां शाहरुख खान के मॉनोलॉग के बाद संजय दत्त का फिल्म में पदार्पण होता है और वह सब कुछ ‌धो डालता है यानी शाहरुख खान के मॉनोलॉग का कोई अर्थ नहीं। मैं फिर बता दूं कि मैंने अभी फिल्म नहीं देखी है । मित्रों का सुझाव था कि फिल्म देख कर लिखें । लेकिन इस फिल्म से यह सबक तो मिल ही रहा है कि एजेंडा फिल्मों या खास तरह की फिल्मों के बरक्स दूसरा सिनेमा भी बनाया जा सकता है। वैसे भी एजेंडा फिल्मों की उम्र तभी तक होती है जब तक समाज उस एजेंडा पर चलता दिखता है।
इसलिए यह फिल्म जरूर देखिए और विपक्ष को चाहिए कि इस फिल्म को चौबीस तक चर्चा में बनाए रखे ।

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