BRD-Hospital

प्रभात रंजन दीन : पूर्वांचल में इंसेफ्लाइटिस का कहर अब सरकारों के बचने का बहाना बनता जा रहा है. गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हुए हादसे में 60 से अधिक बच्चों की मौत पर प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री यह कहता हो कि इस मौसम में तो बच्चे इंसेफ्लाइटिस से मरते ही रहते हैं तो आप समझ लें कि यह लोकतंत्र के मरने की पूर्व घोषणा है. बच्चों की मौत पर इंसेफ्लाइटिस का बहाना यह बताता है कि सरकारों को दुष्टता का रोग लग गया है.

इंसेफ्लाइटिस रोग दशकों से बच्चों की जान ले रहा है और सरकारें बेशर्मी से कहती हैं कि इस मौसम में बच्चे मरते ही हैं तो यह कितने शर्म की बात है! लेकिन भारतीय लोकतंत्र में नेताओं को शर्म नहीं आती है. यह कितना दर्दनाक आधिकारिक आंकड़ा है कि बारिश के मौसम में एक अकेले गोरखपुर बीआरडी अस्पताल में दो हजार से ढाई हजार बच्चे भर्ती होते हैं और करीब पांच सौ बच्चे मर जाते हैं. यूपी के गोरखपुर समेत पूरब के 12 जिलों के एक लाख से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है.

वर्ष 2016 में इंसेफ्लाइटिस से होने वाली मौतों की संख्या 15 फीसदी बढ़कर 514 हो गई. यह आंकड़ा सिर्फ गोरखपुर मेडिकल कॉलेज का है. बच्चे मर रहे हैं लेकिन इसका कोई उपाय नहीं किया गया. सरकारें इसे जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम का नाम देती रहीं, लेकिन बेशर्म सरकारों को इस बात पर तनिक भी झेंप नहीं आई कि जापान ने इस बीमारी पर 1958 में ही कारगर तरीके से काबू पा लिया था और हम अब भी लाचार हैं. पूर्वांचल में पिछले चार दशक से जापानी इंसेफ्लाइटिस से बच्चे लगातार मर रहे हैं. पूरब के जिलों के अधिकांश मरीज बच्चे गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ही भर्ती होते हैं.

इस अस्पताल में न केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों से बल्कि पश्‍चिमी बिहार और नेपाल के मरीज भी भर्ती होते हैं. अत्यधिक दबाव के कारण मेडिकल कॉलेज को दवाइयों, डाक्टरों, पैरा मेडिकल स्टाफ, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन व अन्य जरूरतों के लिए काफी जद्दोहद करनी पड़ती है. इंसेफ्लाइटिस की दवाओं, चिकित्सकों, पैरामेडिकल स्टाफ, उपकरणों की खरीद, मरम्मत और उनके रखरखाव के लिए अलग से कोई बजट का प्रबंध नहीं है. गोरखपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में सौ बेड का इंसेफ्लाइटिस वार्ड बन जाने के बावजूद मरीजों के लिए बेड व अन्य संसाधानों की भारी कमी है. मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए आने वाले इंसेफ्लाइटिस मरीजों में आधे से अधिक अर्ध बेहोशी के शिकार होते हैं और उन्हें तुरन्त वेंटिलेटर उपलब्ध कराने की जरूरत रहती है. इस अस्पताल में पीडियाट्रिक (बाल रोग) आईसीयू में 50 बेड उपलब्ध हैं.

वार्ड संख्या 12 में कुछ वेंटिलेटर हैं. बच्चों की मौत पर मर्सिया पढ़ने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर केंद्र के मंत्री तक गोरखपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मरीजों के इलाज के लिए धन की कमी नहीं होने देने की बातें करते हैं, लेकिन असलियत यही है कि बीआरडी मेडिकल कॉलेज की तरफ से पिछले चार-पांच वर्षों के दौरान केंद्र और प्रदेश सरकार को जो भी प्रस्ताव भेजे गए, वे मंजूर नहीं हुए. इन प्रस्तावों में यह भी शामिल था कि इंसेफ्लाइटिस के मरीजों के इलाज में लगे चिकित्सकों, नर्स, वार्ड ब्वॉय और अन्य कर्मचारियों का वेतन, मरीजों की दवाइयां और उनके इलाज के काम आने वाले उपयोगी उपकरणों की मरम्मत के लिए एकमुश्त बजट आवंटित किया जाए.

यह बजट सालाना करीब 40 करोड़ आता है, लेकिन इस प्रस्ताव को न तत्कालीन अखिलेश सरकार ने सुना और न केंद्र सरकार ने. यह आधिकारिक तथ्य है कि 14 फरवरी 2016 को गोरखपुर मेडिकल कॉलेज प्रबंधन ने चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक से इंसेफ्लाइटिस के इलाज के मद में 37.99 करोड़ मांगे थे. महानिदेशक ने इस पत्र को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक को भेज कर अपनी ड्युटी निभा ली और एनएचएम को भ्रष्टाचार से फुर्सत नहीं मिली.

दुखद पहलू यह भी है कि जापानी इंसेफ्लाइटिस की बीमारी से जो बच्चे उबर जाते हैं, उनमें से भी अधिकांश बच्चे विकलांग होकर ही वापस लौटते हैं. अनधिकृत रिपोर्ट है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के 10 जिलों में जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम बीमारी के कारण मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग हुए बच्चों की संख्या 50 हजार से कम नहीं है. जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम बीमारी में एक तिहाई बच्चे मानसिक और शारीरिक विकलांगता का शिकार हो जाते हैं.

बाल आयोग ने कई बार प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम बीमारी से विकलांग हुए बच्चों की वास्तविक संख्या का पता लगाने के लिए सर्वेक्षण कराए और उनके इलाज, शिक्षा और पुनर्वास के लिए ठोस काम हो, लेकिन यह काम सरकारों की रुचि के दायरे में नहीं आता, क्योंकि विकलांग बच्चों से नेताओं को वोट नहीं मिलता. सर्वेक्षण का काम सरकार नहीं करा पाई और गैर सरकारी संस्थाओं ने भी इस सर्वेक्षण के काम में रुचि नहीं ली.

 

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