अपनी मर्ज़ी की मालिक हो चुकी सरकारें खुद के गिरहबान में ताकझांक  की इजाज़त भला क्यों देंगी?  वह क्यों चाहेगी कि उनके कामकाज की चीरफाड़ हो उनकी नीयत की चिंदी-चिंदी उड़े? ज़ाहिर है, वह तो ऐसी हिमाकत को रोकने की हरसंभव कोशिश करेगी और उसे क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की कार्रवाई का ही नाम देगी. विकास के लिए शांति चाहिए और उनके लिए शांति का मतलब मरघटी ख़ामोशी से है.
इसी कड़ी में बस्तर का हाल सुनें. दंतेवाड़ा में 14 से 26 दिसंबर तक पदयात्रा का आयोजन तय था. पदयात्रा के बाद सत्याग्रह का सिलसिला शुरू होना था, जिसका समापन अगली सात जनवरी को जन सुनवाई के रूप में होना था. जन सुनवाई में वित्त मंत्री पी चिदंबरम के शामिल होने की भी चर्चा थी. वह ख़ुद भी ऐसी इच्छा रख चुके थे. 14 दिसंबर से सात जनवरी तक का यह कार्यक्रम बस्तर को जंग का मैदान बनने से रोकने के लिए बनाया गया था.
चिंता यह कि ऑपरेशन ग्रीन हंट की धमक ने आदिवासियों को आतंक और असुरक्षा के गहरे अंधेरे में धकेल देने का काम किया है. नतीजा यह कि गांव के गांव उजड़ रहे हैं. बेशक़, पदयात्रा के ज़रिए यह जायज़ा लिया जाना था कि माओवादियों को खदेड़ने की सरकारी मुहिम में ग़रीब आदिवासियों ने अब तक क्या कुछ झेला, क्या कुछ खोया. लेकिन पदयात्रा का पहला मक़सद सदमे और बेगानेपन के ज़ख्मों की सिलाई करना था. सुरक्षाबलों और सलवा जुडुम के वहशी पराक्रमों से डर-सहमे आदिवासियों को यह भरोसा दिलाना था कि संकट की इस घड़ी में वे अकेले नहीं हैं, अमन और इंसा़फ के पैरोकार उनके साथ हैं. पदयात्रा आदिवासियों में यह जज़्बा और हौसला भरने के लिए होनी थी.
इसी ताक़त से जन सुनवाई को सचमुच जन सुनवाई का दर्ज़ा दिया जा सकता है. सात जनवरी को आयोजित जन सुनवाई की कामयाबी इसी से नापी जानी थी. वरना तो छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड तक में देखा यही गया है कि विकास बनाम विनाश से जुड़ी जन सुनवाइयां दरअसल सरकारी ढोंग से अधिक नहीं रही हैं. उनका आयोजन परियोजना स्थल से कहीं दूर और सुरक्षा के चुस्त बंदोबस्त के साथ होता रहा है, जिसमें भागीदारी के लिए भाड़े के या बंधुआ लोग ढोकर लाए जाते हैं और जिसमें प्रभावित लोगों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी जाती या भय-प्रलोभन जैसे हथियारों से उनकी बोलती बंद कर दी जाती है. विकास के मोहक नज़ारों की भावी तस्वीर पेश की जाती है. चट मंगनी पट ब्याह की तर्ज़ पर पूरी कार्रवाई घंटे-डेढ़ घंटे में निपटा दी जाती है और जन सुनवाई कामयाब हो जाती है. लेकिन सात जनवरी की जन सुनवाई में तो जनता का सिक्का चलता. आदिवासी अपनी दर्दभरी दास्तान बयां करते. उनकी दास्तान ख़ुद में सवाल होती कि यह कैसा विकास है जो पहले से ग़रीब लोगों को और अधिक ग़रीब बना देने की जिद पर तुला हुआ है. कल्याणकारी सरकार किसकी है, किसके हितों के लिए है. क्या उनके घर और फसलें आग के हवाले हो जाने के लिए अभिशप्त हैं. किसके इशारे पर और किस गुनाह के लिए उन्हें अपमानित-प्रताड़ित और यहां तक कि शव में बदल दिया जाता है. महिलाओं के शरीर को मर्दानगी का जौहर दिखाने का मैदान बनाया जाना कब थमेगा. उनकी दास्तान ही यह मांग करती कि उन्हें उनकी ज़मीन, संस्कृति और सामाजिक तानेबाने से बेद़खल न किया जाए. सुरक्षाबलों पर लगाम कसे और सलवा जुडुम पर रोक लगे. मुना़फे की लूट के लिए क़ुदरत के नायाब तोह़फों के साथ छेड़छाड़ और उसका व्यापार बंद हो.
यह डॉ. रमन सिंह की सरकार को भला कैसे हजम होता? वह तो कंपनियों के लिए लाल कालीन बिछाने के लिए आतुर रहती है. लोगों के भारी विरोध के चलते उड़ीसा और झारखंड में आर्सेलर मित्तल को ज़मीन हासिल करने में अभी तक कामयाबी नहीं मिल सकी है जिसके कारण उसकी एक लाख करोड़ रुपये की परियोजनाएं अधर में फंस गई हैं. ऐसे में अभी हाल में कंपनी ने कर्नाटक का रुख़ करने के बाद छत्तीसगढ़ की ओर ताका तो प्रतापगढ़ के पुराने जमींदार ठाकुर साहब चहक कर बोले हमारी सरकार हर निवेशक का स्वागत करेगी और उनका काम आसान करेगी. वैसे, क्या उलटबांसी है कि मुख्यमंत्री चाउरवाले बाबा के नाम से भी जाने जाते हैं, हालांकि उनका धान का कटोरा अकाल की लगातार मार से ख़ाली होता जा रहा है.
ख़ैर, जन सुनवाई से राज्य सरकार की प्रभुता पर आंच आने का ख़तरा था. पदयात्रा से हक़ और इंसा़फ की आवाज़ बुलंद होती तथा उससे जन प्रतिरोध की आग को हवा मिलती. हुआ वही, जिस बात का अंदेशा था. सरकार ने पदयात्रा के आयोजन पर ही पानी फेर दिया.  12-13 दिसंबर को रायपुर में यौन हिंसा और सरकारी दमन विषय पर सम्मेलन का आयोजन हुआ था. सम्मेलन ने यह तस्वीर खींची और उस पर चिंता ज़ाहिर की कि माओवाद के स़फाए के नाम पर किस तरह आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है. इसके लिए हत्या, लूट और आगजनी का बर्बर खेल खेला जा रहा है तथा आदिवासी महिलाओं को यौन हमले का निशाना बनाया जा रहा है. सम्मेलन ने उन महिलाओं के साथ अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया, जिन्होंने ख़ौ़फ और शर्म से निकल कर अपने साथ हुए बलात्कार को जगज़ाहिर किया और इंसा़फ की मांग की.
इसी कड़ी में सम्मेलन के आख़िरी दिन यानी 13 दिसंबर को रात 10 बजे 39 प्रतिनिधि दंतेवाड़ा के लिए रवाना हुए. इस जत्थे में छह पुरुषों को छोड़कर बाक़ी सभी महिलाएं थीं. यह जत्था 10 राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहा था. स़फर के मुश्किल से ढ़ाई घंटे गुज़रे थे कि उनकी गाड़ियां कांकेर पुलिस द्वारा रोक ली गईं. हुक्म हुआ कि सभी लोग गाड़ियों से बाहर आएं, वरना गोली मार दी जाएगी. इसके बाद गाड़ियों और उस पर लदे हरेक सामान की तलाशी ली गई. कुछ हाथ नहीं लगा तो नाम-पते नोट किए गए और उन्हें छोड़ दिया गया.
लेकिन समस्या अभी ख़त्म नहीं हुई थी. बीस मिनट बाद उन्हें फिर रोक लिया गया. जत्थे को लेकर आई गाड़ियों के जो काग़ज़ात पिछली जांच में सही निकले थे, वे नई जांच में अधूरे क़रार दिए गए. ड्राइवरों को डराया-धमकाया गया. नतीजे में उन्होंने आगे जाने से इंकार कर दिया और अपनी गाड़ियां लेकर वापस हो गए. सुबह तीन बजे के क़रीब जत्थे को जगदलपुर जा रही दो बसों में जगह मिली. मुसा़फिरों की तलाशी के बहाने इन बसों को भी दो जगह रोका गया. लेकिन पुलिस जांच का पिंड अभी भी नहीं छूटा. दो घंटे के स़फर के बाद जगदलपुर से लगभग सौ किलोमीटर पहले बसों को एक बार और रुकने का हुक्म मिला. 39 लोगों के जत्थे को उतार कर बस को आगे रवाना कर दिया गया. जांच-पड़ताल का नाटक एक बार फिर चालू हुआ. प्रतिनिधियों की एक नहीं सुनी गई. तब तक सुबह के छह बज चुके थे. जत्थे के एक सदस्य ने प्रदेश के पुलिस प्रमुख विश्वरंजन से फोन पर बात की. जवाब मिला कि उन्हें इस घटना की कोई जानकारी नहीं है और वह जत्थे को रोके जाने का कारण जानने के बाद ही कुछ कर सकते हैं.
दो घंटे बाद पुलिस अधीक्षक पधारे और जत्थे को यह समझाने की कोशिश करने लगे कि उन्हें कतई रोका नहीं गया है, यह तो महज़ रुटीन चेक का हिस्सा है और वे अपनी यात्रा जारी रखने के लिए स्वतंत्र हैं. पुलिस तो इस जत्थे और ख़ासकर इसकी महिला सदस्यों की सुरक्षा को लेकर चिंतित है. पदयात्रियों का विरोध करने के लिए बीच रास्ते में पांच हज़ार आदिवासी एकत्र हैं. ऐसे में उनका आगे बढ़ना ठीक नहीं. इससे शांति भंग होगी और पुलिस नहीं चाहती कि उनके साथ कोई अनहोनी घटे. जमावड़े की यह ख़बर सच थी.
बावजूद इसके जत्थे ने जगदलपुर जाने और मीडिया के सामने पूरे मामले का खुलासा करने का फैसला किया, लेकिन किसी बस में उन्हें जगह नहीं दी गई. यह मनाही पुलिस के इशारे पर की गई. इसी बीच मोटर साइकिलों से सलवा जुड़ुम के तमाम कार्यकर्ता आ धमके और थोड़ी ही देर में भारी संख्या में सुरक्षाकर्मी भी हथियार लहराते हुए इकट्ठा हो गए. एक मीडियाकर्मी ने जत्थे के सामने यह हक़ीक़त बयान की कि इलाक़े की पुलिस बहुत सख्त है और इसलिए यहां सच पर तगड़ा पहरा है. यह नाटक तीन घंटे चला. इस दौरान थाने का शौचालय इस्तेमाल करने तक की इजाज़त नहीं दी गई.
आख़िरकार, लगातार बिगड़ते हालात को देखते हुए जत्थे ने वापस लौटने का फैसला किया और रायपुर के लिए बस पकड़ी. बस कांकेर के स्टैंड पर रुकी तो कोई 15 लोगों ने उसे घेर लिया. उनके हाथों में प्ले कार्ड थे और वे माओवादियों के ख़िला़फ नारे लगाने लगे. बस किसी तरह स्टैंड से बाहर निकली तो उसे बीच बाज़ार में भी रोका गया. बस का टायर पंक्चर कर दिया गया और यह काम उसने किया, जो ख़ुद को एक हिंदी दैनिक का प्रतिनिधि बता रहा था. वैसे भी इस अख़बार की कुल छवि भाजपा के अनौपचारिक मुखपत्र और सलवा जुड़ुम समर्थक वाली है. इस हंगामे के बीच दो फोटोग्राफर बस में चढ़े और हरेक की तस्वीर खींची गई.
ख़ैर, जत्था किसी तरह रायपुर पहुंचा. आनन-फानन में प्रेसवार्ता का आयोजन किया गया. इस दौरान भाजपाई हुड़दंगी भी एकत्र हो गए और नारे लगाने लगे- माओवादियों के समर्थकों को गिरफ़्तार करो. इस हंगामे के दौरान पुलिस भी पहुंच गई, लेकिन चुप रही. यह भांपकर कि अमन और इंसा़फ के पैरोकारों पर हमला भी हो सकता है, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (मज़दूर कार्यकर्ता समिति) ने अपने मज़दूर साथियों को जुटा लिया. इन्हीं मज़दूरों की घेराबंदी के बीच इस जत्थे को सुरक्षित भारत जन आंदोलन के सूत्रधार प्रो. बी डी शर्मा के आवास ले जाया गया. प्रसंगवश, भाजपा के योद्धाओं के निशाने पर प्रो. बी डी शर्मा भी रहे हैं. गांधीवाद से प्रभावित प्रो. बी डी शर्मा रिटायर्ड आईएएस हैं और भारत सरकार के अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष रह चुके हैं. वह दिल्ली में रहते हैं और रायपुर में उनका ख़ाली पड़ा आवास आंदोलनकारियों को आश्रय देने के लिए हमेशा खुला रहता है.
पदयात्रा वनवासी चेतना आश्रम के हिमांशु कुमार की अगुवाई में निकलनी थी. इसे रोकने के लिए पुलिस-प्रशासन और सलवा जुड़ुम ने हरसंभव तरीक़े आज़माए. ज़रूरत पड़ने पर अक़्सर शैतान भी पवित्र मंत्रों का जाप करने लगते हैं. सलवा जुड़ुम ने भी यही किया. गांधीवाद की दुहाई दी और पदयात्रा के विरोध में रैली करने के लिए 10 दिसंबर का दिन चुना. रैली को सफल बनाने के लिए पुलिस भी जुटी. सलवा जुड़ुम मानव अधिकारों का अपहरण करने के मामले में कुख्यात है, इसलिए उसने रैली के आयोजक के तौर पर अपने छाया संगठन को पैदा किया-दंतेश्वरी आदिवासी स्वाभिमान मंच, यानी नई बोतल में पुरानी शराब.
इस तरह मानवाधिकार दिवस के मौक़े पर दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी आदिवासी स्वाभिमान मंच उर्फ सलवा जुड़ुम-2 ने रैली निकाली. इसमें भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस के लोगों ने भी बराबर की शिरकत की. रैली में मानव अधिकारों की हिमायत कर रहे लोगों और उनके संगठनों को कोसा गया. उन्हें विकास और शांति का दुश्मन, आदिवासियों के हितों में बाधक और माओवादियों का समर्थक बताया गया. फैसला किया गया कि गांधीवादी तरीक़े से पदयात्रा का विरोध किया जाएगा. इसी दिन बिलासपुर हाईकोर्ट में सलवा जुड़ुम के ख़िला़फ दायर बलात्कार के मामले की सुनवाई भी हो रही थी और दंतेवाड़ा में आदिवासियों के स्वाभिमान का बेहूदा राग अलापा जा रहा था.
इधर रैली हुई और उधर पदयात्रा की तैयारियों में जुटे आदिवासी कार्यकर्ता कोपा कुंजाम और उनके वकील अलबन टोप्पो को गिरफ़्तार कर लिया गया. दोनों को बुरी तरह पीटा गया. ह्यूमन राइट्‌स लॉ नेटवर्क से जुड़े अलबन को बाद में रिहा कर दिया गया, लेकिन कोपा पर हत्या का आरोप मढ़ दिया गया. दंतेवाड़ा पहुंच कर पदयात्रियों को जिस धर्मशाला में ठहरना था, कलेक्टर के आदेश पर उसकी बुकिंग रद्द करवा दी गई. हिमांशु कुमार का आश्रम पहले ही बुलडोज़रों से रौंदा जा चुका है. तबसे वह और उनके साथी अस्थायी कैंपों में रह रहे हैं. अचानक पुलिस को उनकी सुरक्षा की चिंता सताने लगी. सुरक्षा दिए जाने की पेशकश हुई, जिसे हिमांशु कुमार ने फौरन ठुकरा दिया. फिर भी 14 दिसंबर को कैंप के बाहर सादे कपड़ों में ज़बरन पुलिस तैनात कर दी गई या कहें कि उन्हें नज़रबंद कर दिया गया. बांस ही नहीं होगा तो बांसुरी कैसे बजेगी. बहरहाल, पदयात्रा नहीं हो सकी. बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि पदयात्रा नहीं होने दी गई.

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