पचास, पचपन, साठ जितने भी साल वह जी चुका… जिस मजहब से ताल्लुक रखने वाले के घर में पैदा हुआ था, उसके संस्कारों में कमी ही रही होगी, जो इसको इतने बरसों में अपने मजहब की बेहतरी और उसका महत्व नहीं समझा पाए….!
कमी उस इंसान की ज्यादा कही जाए, जो अपने परिवार, खानदान, समाज में बेहतर स्थिति पाने के बाद भी “दिल मांगे मोर…” की रट लगाए रहा…! दिल के मांगने की इंतेहा ये कि बचपन में कान में सुनी अज़ान की आवाज़ उसे रास नहीं आई! तुतलाती जुबान से सीखी तिलावत और कुरआन की आयतों से भी उसको राहत नहीं मिली! अपने नाम, मजहब और यहां तक कि आसमानी किताब में भी बदलाव करने की उसकी ज़िद!
वसीम अब जितेंद्र कहलाएगा…! साथ में नारायण भी जोड़ लिया और त्यागी होने का ढकोसला भी ओढ़ लिया…! एक मां की गोद को बदनाम कर चुके, अब दूसरी झोली में खुद को सुकून भरा महसूस करने का दावा भी कम झूठा नहीं है, ऐसे इंसान को न इस दुनिया में सुकून की गुंजाइश मानी जा सकती है और न आसमानी दुनिया में किसी आराम की उम्मीद की जा सकती है…!
जिस शख्स ने अपनी उम्र के पांच से अधिक दशक वाली आस्था को तनिक फायदों की खातिर ठुकरा दिया है, उससे किसी भी धर्म को ईमानदारी की उम्मीद नहीं लगाना चाहिए…!
वह लोग वसीम उर्फ जितेंद्र नारायण की पाला बदली से जरूर खुश होंगे, जिन्होंने सियासी मुनाफों के लिए इन हालात को हवा दी थी…! लेकिन चंद कदम दूर चुनाव के बाद न किसी को नए त्यागी बाबा की जरूरत, न स्वयंभू त्यागी की उम्मीदों पर कोई भौतिक ठोर…! वसीम न वसीम रह पाया और न जितेंद्र को नारायण मिलने वाले और उसके स्व घोषित त्याग की कहानी भी अधूरी ही रहने वाली है…!

पुछल्ला
ये नूर कहां फैलेगा…?
यहां थीं तो अपनों से खफा रहती थीं। यहां से छिटककर जहां जाने का रास्ता है, वहां पहले ही पुराने अपनेपन वाले विरोधी ताकत से बैठे हैं। ये छोड़कर उसको पकड़ने की कोशिशों में हाथ से वह न छूट जाए, जो पिछले साथियों ने दिया था। नूर की बूंद क्यों बिखरीं, उनका अगला आशियाना कहां होगा भले अभी दिखाई न दे। लेकिन कुछ बड़ा मिलने की उम्मीद में ये छोटा कदम जरूर कोई गुल खिलाएगा।

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