दो चीजें होती हैं। एक गणित में समीकरण होता है और एक साहित्य में साधारणीकरण की प्रक्रिया होती है। मोदी जी दोनों चीजें पता नहीं जानते या नहीं जानते पर सत्ता में आने से पहले और सत्ता पाने के बाद जाने अनजाने इन दोनों चीजों के साथ और भी बहुत कुछ ऐसा कर रहे हैं जिन्हें भी वे नहीं जानते। पर एक कला जरूर ऐसी है जिसे वे जानते हैं बेशक बिना कलात्मक तरीका अपनाये वे धृष्टता से झूठ बोलते हैं। और अब तो लगता है कि झूठ बोलने की एक आदत सी पड़ गयी है।जब किसी गलत चीज का प्रतिरोध नहीं होता तो उसकी आदत पड़ ही जाया करती है।और वह भी महज एक चीज की खातिर। येन केन प्रकारेण, कैसे भी सत्ता बनी रहे, बची रहे। वे अपने अनुयायियों को भी सिखा रहे हैं कि मुझे ‘फोलो’ करो। महात्मा गांधी के जाने के बाद झूठ बोलना कौन सा गुनाह रह गया है। बल्कि जीवन और सरल हो गया है। इसलिए मोदी झूठ बोलते हैं यह कोई मुद्दा नहीं है। हां, इतने बड़े लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री झूठ बोलता है यह चिंता करने वाली बात ही नहीं, अवाक कर देने वाली बात भी है। क्या यह बात आने वाले प्रधानमंत्रियों के लिए नजीर बनेगी, देखना है। लेकिन आने वाले प्रधानमंत्रियों की बात तो तब होगी जब मौजूदा प्रधानमंत्री की विदाई होगी। क्या ऐसा सम्भव है। वर्तमान की स्थितियां ‘हां’ और ‘न’ में जवाब देती हैं। उसूलों से चलें तो ‘हां’ पर उसूलों की धज्जियों की चौसर पर देखें तो ‘न’। जाहिर है हर कोई कहेगा उसूलों की बात मत कीजिए। तब तो संघर्ष बड़ा तगड़ा होगा, जनाब !

अगर उसूल नहीं तो क्या मोदी के लिए सब कुछ आसान नहीं है। सबसे पहले देखिए मोदी का वोटर कहां बसता है। जिसे भारत कहते हैं। उस भारत के लिए मोदी के सारे धतकरम के कोई मायने नहीं हैं। वह हम नोटबंदी के समय से देख रहे हैं और यहां तक देख रहे हैं कि कोरोना के दौरान आक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। यह झूठ केवल पढ़ा लिखा वर्ग ही जानता है। क्योंकि यह मोदी ने नहीं कहा। मोदी सरकार ने संसद में जवाब दिया। ये बातें ग्रामीणों को नहीं हिलातींं। हमारा सोशल मीडिया उन तक नहीं पहुंच पाता। सोशल मीडिया पर चलने वाली बहसें ज्यादा से ज्यादा उन तक पहुंचती हैं जो ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम या ऐसे प्लेटफार्म पर सक्रिय रहते हैं। वर्धा में हिंदी विवि. पर संघियों का कब्जा है। वीसी आरएसएस का आदमी है। बाकी जगह जहां जहां मैंने ‘वायर’, ‘सत्य हिंदी’ आदि के बारे में जानकरी चाही, लगभग शून्य मिली। इसे आप क्या कहेंगे। सत्य यह है कि मोदी ने देश में माहौल बनाया। जादूगरी दिखाई। दिल जीता और बोले चलो सब अपने अपने धंधों पर लग जाओ। और लोग लग गये। अब लोगों के पास न तो फुरसत है, न दिलचस्पी है यह जानने की कि वर्तमान में माहौल क्या है और कैसा है। कम से कम छोटे और औसत दर्जे के शहरों की तो यही बात है। बड़े शहरों की मार्केट में चले जाइए वहां भी आदमी बंटा सा मिलेगा। मोदी नहीं तो और कौन।

दूसरा प्रचार और झूठ की पूरी मशीनरी तैयार है। एक तरफ मेनस्ट्रीम मीडिया और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी और सड़कों पर दहशत फैलाती हिंदू ब्रिगेड की सरेआम गुंडई। रोकने टोकने वाला कोई नहीं। याद रखिए कि उत्तर प्रदेश बंगाल नहीं है। बंगाल अतीत हो चुका है। आपके लिए ताजा हो पर उनके लिए अतीत है, भले उसका घाव चाहे अब भी हरा हो उनकी पीठ पर। तो यक्ष प्रश्न यही है कि मोदी को हरायेगा कौन ? क्या अखिलेश और जयंत चौधरी की जोड़ी या किसानों का आंदोलन। कहीं भी सेंध लगाना मोदी जी की फितरत है। किसान संघर्ष समिति ने कहा चुनाव नहीं लड़ेंगे और उनके एक नेता चढूनी पंजाब में चुनाव के लिए दल बना रहे हैं। तो सोशल मीडिया की डिबेट्स हों, पैगासस जैसे भयावह मुद्दे हों, जब समाज की जागरूकता में कई फाड़ हैं तो आप क्या कर लेंगे।

वक्त है फील्ड में जाने का। गांव गांव में चौपाल लगाने का। अजीत अंजुम फील्ड में हैं पर वे तो केवल रिपोर्टिंग कर रहे हैं। सोशल मीडिया वालों के पास संसाधनों की कमी है वरना होना यह चाहिए था कि इधर वायर होता तो उधर वायर की टीम देश के दौरे पर होती। अपूर्वानंद जैसे लोग क्यों चाहेंगे कि उनकी बातें सोशल मीडिया तक सीमित होकर रह जाएं। वे इन वेबसाइट्स पर लिखते भी हैं पर जागे हुए लोगों के लिए। उनका क्या जो सोये हैं और क्योंकि उन्हें जगाने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं है तो फिर मोदी के झूठ का रोना क्या ? सोशल मीडिया की डिबेट्स एक शगल है। चकल्लस की दुनिया में जीने वाले आदमी का शगल। आज की तारीख में अगर किसी का नोटिस लिया जाना है तो वह रवीश कुमार का शो और पुण्य प्रसून वाजपेयी की बतकही। जो कभी कभी गजब होती है। जैसे सुप्रीम कोर्ट के सिस्टम वाली टिप्पणी पर उनका ब्लॉग। बाकी आरफा के कार्यक्रम बेहतरीन हैं पर प्रश्न वही सीमाएं कहां तक हैं।सत्य हिंदी की रात दस बजे की डिबेट्स दो चार को छोड़ दें, तो समझ नहीं आता इनके मायने क्या हैं।

आज की सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि यदि आप समाज के निचले तबके तक नहीं जा पा रहे हैं तो उन चीजों को निरर्थक बनाइए जिनमें राजा की जान बसती है। राजा का सबसे बड़ा तोता है गोदी मीडिया। राजा की जान तोते में। तोता गोदी मीडिया के चैनल। क्या जरूरी नहीं कि इन चैनलों को निरर्थक बनाया जाए। और वह कैसे सम्भव है। केवल उनके कार्यक्रमों में सहभागी होने से इंकार करके। पर हमारे बुद्धिजीवी,पत्रकार, विपक्ष और कांग्रेस के लोग तो बढ़ चढ़ कर इनमें भाग लेते हैं। ऐसे में आशुतोष के तर्क बड़े बेमानी से हैं। दोनों नाव में पैर रखने जैसे। जब आपके सत्य पर कुल्हाड़ियों से वार हो रहा हो, निर्लज्जता की सीमा तक। तब विवेक और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के तर्क बेमानी हो जाते हैं। उन्हें तो गोदी मीडिया से यह कहना चाहिए जब तक आपकी छवि नहीं बदलती तब तक बायकाट। दुकानदार के पास ग्राहक नहीं जाएगा तो दुकान कब तक चलेगी। इन चैनलों में जाने वाले ग्राहक नहीं हैं, बल्कि वे असल ग्राहकों का मनोरंजन परोसने वाले हैं। इस अर्थ में ये भी आंशिक ग्राहक ही हुए। इन चैनलों पर पत्रकारों की फूहड़ता भी देखी जा सकती है।

लगता है यूट्यूब संतोष भारतीय के साथ फिर खिलवाड़ कर रहा है। बड़ी मुश्किल से हम कल संतोष जी की पुस्तक पर उसकी संपादक फौजिया आर्शी की पत्रकार एस के सिंह से बातचीत सुन पाये। सिंह साहब की आदत है बहकने की। आजकल कई उम्रदराज होते पत्रकारों की ऐसी आदत हो रही है। इन्हें सम्भालना पड़ता है। अच्छा एंकर हो तो सम्भाल लेता है पर कल देखा बेचारी फौजिया आर्शी पर हमें तरस आ रहा था। पहले ही सवाल पर इतिहास की परतें सी कुरेदने लगे। भला हो मैडम का कंट्रोल कर ले गयीं। बाकी उन्होंने क्या कहा वह तो कुल मिलाकर कर ठीक ठाक ही रहा। अच्छा लगा जान कर कि इस पुस्तक का अंग्रेजी और उर्दू संस्करण पर भी काम चल रहा है। लाउड इंडिया टीवी के वही कार्यक्रम दिखाई पड़ते हैं जो अशोक वानखेड़े के होते हैं। बाकी तो सपाट है।

जो लोग हमें अपने वीडियो भेज देते हैं उनका धन्यवाद ! भाषा सिंह के नियमित मिलते हैं। पहले उर्मिलेश जी के भी नियमित मिलते थे। विजय त्रिवेदी के भी नियमित मिल रहे हैं। विजय त्रिवेदी और आलोक जोशी सत्य हिंदी की डिबेट में न हों तो डिबेट लगभग नीरस ही समझिए। आशुतोष का न आप भागना रोक सकते हैं और न उनकी लंबी तान की ‘नमस्कार’। जबकि सवाल जवाब के शनिवारीय कार्यक्रम में अंकुर ने उन्हें इस बात पर छेड़ा भी था। पुरुषोत्तम अग्रवाल के साथ अच्छी बातचीत रही और उसमें थोड़ी दबी जबान में था ‘नमस्कार’, नहीं तो पुरुषोत्तम जी टोक देते, ये क्या हो रहा है।

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