मेरे बचपन के दोस्त रमेश नैयर

बात 1956 की है । मैं उस साल दिल्ली के लिए प्रस्थान कर रहा था क्योंकि लोकसभा सचिवालय में मेरी नौकरी लग गयी थी। रायपुर में मैं 1949 से 1956 तक रहा। 1954 में माधवराव सप्रे हाई स्कूल से ग्यारहवीं पास की थी। सती बाज़ार स्थित जयहिन्द टाइपिंग इंस्टीटयूट से अंग्रज़ी और हिंदी की टाइपिंग सीख कर नागपुर से परीक्षा भी पास कर ली थी। ग्यारहवीं पास करने के बाद मैंने छत्तीसगढ़ कॉलेज में दाखिला ज़रूर ले लिया था लेकिन टाइपिंग इसलिए सीख ली थी ताकि वक़्त ज़रूरत पर काम आये ।जिस तरह आजकल नौकरी के लिए कंप्यूटर की जानकारी ज़रूरी है उन दिनों मैट्रिक पास करने के बाद आम तौर पर बच्चे टाइप-शार्टहैंड अवश्य सीखा करते थे। 1952 में मेरे पिताजी के असामयिक निधन से मेरे लिए नौकरी करना भी अनिवार्य हो गया था।इसलिए मैंने सवा साल तक वनसंरक्षक विभाग में नौकरी कर ली थी।

1949 के वक़्त रायपुर में पंजाबी बिरादरी थी, सिख और हिंदू दोनों लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं थी।रायपुर भी छोटा सा और ‘गठा’ हुआ शहर माना जाता था।रेलवे स्टेशन के पास एक ही गुरुद्वारा था। हाल यह था कि उन दिनों पंजाबी बिरादरी में हर कोई हर किसी को जानता थी। उसी साल रमेश नैयर भी रायपुर आये ।किसी ने मुझे बताया कि ‘पीछे’से यह आपके ज़िले का ही है।’पीछे’का अर्थ होता था विभाजन के पहले आप कहां के रहने वाले थे। मैं और रमेश नैयर दोनों ही ज़िला गुजरात के थे।(जो अब पाकिस्तान में है) मेरा जन्म तहसील फालिया का था और रमेश का कुंजाह का। इस समानता से हमारे परिवार वाले परिचित थे लिहाजा हम दोनों हमउम्र भी दोस्त बन गये। जब मैं दिल्ली के लिए प्रस्थान कर रहा था तो वह मेरे गले लग और रुआंसा होकर बोला कि हम क्या बिछुड़ने के लिए मिले थे? मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा कि हम लोग मिलते रहेंगे,रायपुर भी और रायपुर के बाहर भी। वह मुझ से करीब पांच बरस छोटा था।उसकी पैदाइश 10 फरवरी, 1940 की थी जबकि मेरी 11अगस्त,1935 की।

अगर वनसंरक्षक विभाग की नौकरी को छोड़ दें तो मैंने तीन नौकरियां की हैं: करीब दस बरस तक लोकसभा सचिवालय में,लगभग 24 बरस ‘दिनमान’ में तथा करीब 28 बरस ‘संडे मेल’ और डालमिया सेवा ट्रस्ट में ।आखिर की दोनों के एक ही मालिक थे
समाजसेवी उद्यमी संजय डालमिया ।लोकसभा और ‘दिनमान’ में काम करते हुए मैं अमूमन ट्रेन से ही सफ़र किया करता था। लोकसभा के वक़्त मैं रिशतेदारों के यहां ही ठहरा करता था क्योंकि उनके यहां शादी विवाह के समारोह में हिस्सा लेने के लिए आता था ।लेकिन चाहे जिंदगी का कोई भी दौर रहता हो रमेश नैयर से मुलाकात पक्की रहती थी और वह भी काफी लंबी ।एक दूसरे के बारे में,पढ़ाई-लिखाई और काम के बारे में घंटों बातें होतीं और पता नहीं समय कैसे और कहां बीत जाता ।रायपुर में मेरी अगुवानी स्कूल के मित्र कमल बाजपाई करते और विदा रमेश नैयर और उनके साथ होते जावेद फरीदी। जावेद बाद में दिल्ली आ गये ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में ।उनसे अक्सर मिलना होता रहता और बातचीत का विषय रहता रमेश नैयर और उनका कामकाज ।रमेश की ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ज्वायन करने की जानकारी मुझे जावेद फरीदी से ही मिली थी ।

लोकसभा सचिवालय में काम करते करते मैंने लिखना शुरू कर दिया था करीब दस बरस बाद ।रेडियो पर भी जाने लगा और दूरदर्शन पर भी दीखने लगा ।रमेश नैयर को मेरी इन गतिविधियों की जानकारी रहा करती थी। वहीं रहते हुए मेरी श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय से भेंट हुई थी।वह ‘दिनमान’ के संस्थापक संपादक थे। 1965 में कुछ समय तक मैंने संसदीय संवाद ‘दिनमान’ के लिए लिखे ।जनवरी,1966 में मैंने ‘दिनमान’ ज्वायन कर लिया ।अब रमेश नैयर से राब्दा कायम हो गया।उन्होंने ‘दिनमान’ के लिए कई कवर सटोरियां लिखीं और कई दर्जन संवाद ।’दिनमान’ में रहते मुझे कई बार रायपुर आने के अवसर मिले और हर बार मेरा मेज़बान रमेश नैयर ही होता ।उनके अतिरिक्त कुमार साहू,बसंत कुमार तिवारी,भुवन मिश्रा आदि से भेंट भी होती थी।स्कूल में अपने हिंदी के टीचर रहे स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के एक बार पुन: 1978 में ‘दैनिक महकोशल’ का संपादक बन जाने के बाद रायपुर आने पर उनका आशीर्वाद लेना कभी नहीं भूलता था। उनसे बताता कि अज्ञेय जी से आपके सौजन्य से वैशम्पायेन जी हुई भेंट और बातचीत का उल्लेख किया था जो उन्हें प्रीतिकर लगा।एक बार मेरे रायपुर में मौजूदगी के वक़्त रमेश नैयर ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन शिक्षामंत्री अर्जुनसिंह से मेरी मुलाकात करायी थी । वह ‘कबीर’ पर किसी समारोह में सम्मिलित होने के लिए रायपुर आये थे। अर्जुनसिंह जी से मेरी यह भेंट मुझे उनके बहुत करीब ले आयी।उसके बाद चाहे वह प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हों, केंद्र में मंत्री,कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष अथवा पंजाब के राज्यपाल उनसे मुलाकातों का सिलसिला जारी रहा जो उनके अंतिम दिनों तक चला ।बेशक इसका श्रेय रमेश नैयर को जाता है ।इस बात का उल्लेख मैंने रमेश के साथ साथ अर्जुनसिंह से भी किया था ।अर्जुन सिंह की टिप्पणी थी कि रमेश नैयर बहुत ही उम्दा और सुलझा हुआ पत्रकार है ।

जब मुझे रमेश नैयर के ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में सहायक संपादक की नियुक्ति की जानकारी जावेद फरीदी ने दी तो एक बार मैं अमृतसर वाया चंडीगढ़ गया। ‘दिनमान’ में रहते हुए पंजाब में आतंकवाद की स्थिति का आकलन करने के लिए मैं अक्सर अमृतसर जाया करता था।एक दिन मैं रमेश को बताये बिना उनकी ट्रिब्यून बिल्डिंग में पहुंच गया। वहां से उनके कक्ष का पता लगा मैं जब रमेश के सामने खड़ा हुआ तो सहसा मुझे अपने सामने पाकर उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।अपनी कुर्सी छोड़ उठकर खड़े हुए और मुझे गले लगा लिया और बोले ‘वीर जी तुसी!’ वह मुझे सदा ऐसे ही संबोधित किया करता था।मैंने शिकयती लहजे में कहा कि तुम चंडीगढ़ आये हो और मुझे खबर तक नहीं ।भला हो जावेद फरीदी का जिसने मुझे तुम्हारे ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ज्वायन करने की जानकारी दी। उन दिनों विजय सहगल भी वहीं थे जो मुझे ‘नवभारत टाइम्स’ के दिनों से जानते थे ।वह भी मुझसे गले मिले ।मैंने रमेश को बताया कि अमृतसर जा रहा हूं,तुम्हें मिलने के लिए चंडीगढ़ रुक गया।उसने बड़े ही प्यार और आग्रहपूर्वक कहा जब इतना प्यार दिया है तो रात हमारे पास ही रुको।मैं मना नहीं कर पाया था।

रात को मैंने रमेश से ‘दैनिक ट्रिब्यून’ से जुड़ने की असली कहानी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि मैं ट्रिब्यून ट्रस्ट के इंटरव्यू में आने का साहस इसलिए जुटा पाया कि मुझे भेजे गये पत्र में लिखा था कि रायपुर से चंडीगढ़ आने जाने के प्रथम श्रेणी के किराये के साथ ही 24 घंटों के आवास की सुविधा दी जायेगी। मैं साक्षात्कार में डरते डरते पहुंचा था।पूर्व आईसीएस डॉ एम एस रंधावा का प्रश्न उन्हीं के शब्दों में था,’अरे भाई, जब सब लोग पंजाब में चल रहे आतंकवाद से डर कर चंडीगढ़ छोड़ छोड़ कर जा रहे हैं तो तू यहां क्यों आना चाहता है?तुझे मौत का डर नहीं लगता?’ मैंने ज़्यादा सोचे विचारे बिना तुरंत उत्तर दे दिया,’मैं partition के दौरान, जब दस लाख से ज़्यादा लोग कत्ल कर दिए गये थे,तो सही बच कर कुन्जाह से अमृतसर सही सलामत पहुंच गया था,चंडीगढ़ तो अपने ही मुल्क का शानदार शहर है ।अगर मेरी मौत यहीं लिखी है तो यहीं सही।’मेरी यह साफ बयानी डॉ रंधावा और ‘द ट्रिब्यून’ के चीफ़ एडिटर प्रेम भाटिया को तत्काल प्रभावित कर गयी ।रमेश नैयर 1983 से 1988 तक ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में सहायक संपादक रहे।मैने एक बार उससे पूछा था कि तुम वहां संपादक भी तो बन सकते थे। इस सवाल को टालते हुए बोले थे
‘छ्डडो न वीर जी।’ 1986 में प्रेम भाटिया का ‘द ट्रिब्यून’ से रुख्स्त हो जाना शायद इस का मुख्य कारण था जो रमेश नहीं बताना चाहता था।

प्रेम भाटिया को मैं काफी नज़दीक से जानता था।वह ‘स्टेटसमैन’ के राजनीतिक संपादक तथा ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक रह चुके थे। प्रेम भाटिया अपने समय के बहुत ही धाकड़ और प्रभावी संपादकों में से थे। वह देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के बहुत नज़दीक थे और उनके साथ विश्व के सभी देशों में जाया करते थे। उनके निधन के बाद प्रेम भाटिया लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के भी करीबियों में थे।वह संभवतः पहले पत्रकार थे जो लगभग दो दशकों तक राजनयिक रहे।केन्या और सिंगापुर के उच्चायुक्त के कार्यकाल के लिए उन्हें याद किया जाता है और उन्हें याद किया जाता है ‘द ट्रिब्यून’ की 1977 से 1986 की संपादकी को भी।उनके समय ‘द ट्रिब्यून’ शिखर पर था,ऐसा भी कुछ लोगों का मानना है ।

मुझे प्रेम भाटिया को जानने और मिलने के कई अवसर मिले। उन्हें जाना तो तब जब मैं लोकसभा सचिवालय में काम करता था।वह अक्सर पंडित नेहरु से मिलने आया करते थे।एक बार वह तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह से मिलकर जब निकले तो मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि यह प्रेम भाटिया थे जो इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर हैं और पंडित जी के काफी करीब हैं ।मुझ से पुरानी वाकफियत है इस नाते संसद भवन आने पर मुझसे भी मिलने आ जाते हैं ।काफी अच्छे जर्नलिस्ट हैं ।कभी कभी संसदीय कार्यवाही और परम्परा के बारे में पूछते रहते हैं ।मेरी प्रेम भाटिया से पहली मुलाकात सरदार हुकम सिंह के कक्ष में हुई थी।उसके बाद भी लोक सभा में दुआ सलाम होती रही।कुछ समय बाद पता चला कि वह केन्या के उच्चायुक्त बना दिए गये हैं ।

एक बार एक राजनयिक के घर मुलाकात हुई।उन्होंने पांच छह संपादकों को डिनर पर बुलाया था।मैं तब ‘संडे मेल’ में कार्यकारी संपादक था।वहां प्रेम भाटिया भी आये थे।बता दें कि हम दोनों की जन्मतिथि एक ही है 11 अगस्त। वह 1922 लाहौर जन्मा हैं और मैं 1935 का।जन्मा तो ज़िला गुजरात के तहसील फालिया में हूं लेकिन ज़्यादा समय रावलपिंडी में रहा इसलिए ‘पिंडीवाला’ कहलाता हूं ।हमें एक दूसरे को पहचानने में दिक्कत नहीं हुई ।मैंने उनके ‘द ट्रिब्यून’ के दिनों को याद करते हुए कहा कि वह ‘गोल्डन डेज़’ थे।पंजाबी होने के नाते ज़ोर से हंसे और बोले,’छड यार।तुम्हें कैसे उन दिनों की याद हो आयी’।मैंने बताया कि डॉ रंधावा और आपने रमेश नैयर की साफगोई और हाज़िरजवाबी से खुश होते हुए उसे ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में सहायक संपादक नियुक्त किया था।मेरा इतना कहने की देर थी लगता है उन्हें भी उस घटना की याद हो आयी। प्रेम भाटिया बहुत शार्प एडिटर थे।हम लोग पंजाबी में ही बात कर रहे थे।उन्होंने ही बताया कि उसका हिंदी और अंग्रज़ी पर समान अधिकार था।मेरे संपादकीय और अग्रलेखों का वही अनुवाद किया करता था। उन दिनों प्रधान संपादक के अग्रलेख और संपादकीय के अनुवाद ही ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में छ्पा करते थे,आज की स्थिति मुझे ज्ञात नहीं ।

रमेश नैयर डबल एम ए थे -अंग्रज़ी साहित्य और भाषा विज्ञान में ।वह कुछ दिनों तक प्राध्यापक भी रहे और अंग्रज़ी पेपर एम पी क्रानिकल में काम भी किया ।न जाने ऐसा क्यों है कि बहुत से प्रसिद्ध हस्ताक्षर अंग्रज़ी साहित्य में स्नात्कोत्तर की डिग्री लेने के बाद हिंदी लेखन की ओर क्यों उन्मुख हो जाते हैं जैसे सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने एम ए इंग्लिश का पहला पार्ट किया और दूसरा पार्ट पास करने के पहले क्रांतिकारी बन गये और जेलों में हिंदी में लेखनकार्य किया जैसे ‘शेखर: एक जीवनी’ और तमाम कहानियां।यही हाल डॉ हरिवंश राय बच्चन का रहा तथा रघुवीरसहाय और राजेंद्र माथुर जैसे दिग्गज संपादकों का। रमेश नैयर के साथ हमारे एक और मित्र कवि-उपन्यासकार-संपादक-प्रकाशक सुधेंदु ओझा भी उसी लीक पर चल निकले । प्रेम भाटिया रमेश नैयर की शैक्षणिक योग्यता के साथ साथ उसकी प्रतिभा से भी प्रभावित थे।फिर हंसकर बोले कि न जाने पंजाबियों को ऐसा फ़ितूर क्यों रहता है कि जिस भाषा में डिग्री लेते हैं उसमें लिखते नहीं अब वात्स्यायन जी ही मिसाल ले लो अच्छे खासे इंग्लिश में एम ए कर रहे थे और बन गये क्रांतिकारी से हिंदी के कवि और संपादक।यही हाल यशपाल, बलराज और भीष्म साहनी का हुआ।फिर गंभीरता से बोले थे कि रमेश नैयर ‘एडिटर मैटीरियल’ था जिसे लगता है ट्रिब्यून ट्रस्ट पहचान नहीं पाया।मैंने अगर 1986 में
एडिटरी न छोड़ी होती तो बेशक वही दैनिक ट्रिब्यून का संपादक होता।

खैर कोई बात नहीं, प्रेम भाटिया कुछ भावुक होकर बोले थे ‘चलो अच्छा हुआ अंबानी ने उसकी काबिलियत को पहचाना ।मुझे यकीन हैं कि आगे भी उसकी योग्यता की अनदेखी नहीं होगी।’ बीच में हम दोनों उस राजनयिक की मेजबानी से अपने आप को वंचित होता देख अब दोनों उसकी तरफ़ मुखातिब हो गये जिससे वह भी खुश हो गया।प्रेम भाटिया का ‘प्रेम’ मुझे उनके अंतिम दिनों तक मिलता रहा ।कभी कभी हम ट्रिब्यून बनाम अन्य अखबारों पर भी चर्चा किया करते थे।बेशक वह टाइम्स ऑफ इंडिया,इंडियन एक्सप्रेस और स्टेटसमैन जैसे समाचारपत्रों की एडिटरी भी कर चुके थे लेकिन सबसे अधिक नौ बरसों तक वह ‘द ट्रिब्यून’ से ही संबद्ध रहे।

यह भी संयोग ही है कि पहली नवंबर, 1989 को रमेश नैयर अंबानी ग्रुप के ‘संडे आब्ज़र्वर’ के कार्यकारी संपादक बने और मैं संजय डालमिया के ‘संडे मेल’का। हम दोनों को इस बात की पूर्व जानकारी नहीं थी।रमेश बिलासपुर के ‘नवभास्कर’ की संपादकी छोड़कर आये थे और मैं ‘दिनमान’ की करीब 24 बरस की नौकरी। काफी दिनों के बाद हमें एक दूसरे के बारे में जानकारी
प्राप्त हुई।अखबार में प्रिंटलाइन से और दूसरे सामान्य मित्रों से।हम दोनों ज़्यादातर अपने अपने काम में व्यस्त रहा करते हैं,दोनों पत्रों के बीच प्रतिस्पर्द्धा और प्रतियोगिता जो थी। बावजूद इसके हम लोग आपस में मिलने का वक़्त निकाल ही लिया करते थे ।हमारे मिलने का ठौर रहा करता था प्रेस क्लब का धुर आखिर वाला टेबल ।हम एक दूसरे के आमने-सामने नहीं बल्कि साथ साथ बैठा करते थे।हमारे बीच हमारा एजेंडा तय था कि हम ऑफ़िस और पेपर के बारे में बात नहीं करेंगे।देश-दुनिया में तमाम मुद्दे और विषय हैं जिन पर हम दोनों बातचीत किया करते थे ।रायपुर और पूरा छत्तीसगढ़ भी हमारी चर्चा के प्रमुख विषयों में रहा करता था।ऐसा नहीं कि प्रेस क्लब में हम दोनों की एक साथ उपस्थिति का नोटिस नहीं लिया जाता था। कोई यह कहता हुआ सुना जाता कि देखो यह दोनों पंजाबी छत्तीसगढ़ी क्या खिचड़ी पका रहे हैं तो कोई फब्ती कसता कि ये दोनों मूलतः अब छत्तीसगढ़ी हैं और वहीं के बारे में कोई गोटियाँ बिठा रहे होंगे। हालांकि किसी से हम दोनों से कुछ लेना देना नहीं होता था बावजूद इसके तंज और फब्तियां कसना ऐसे लोग अपना अधिकार माना करते थे। लोगों की इन टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं से हमारे कॉमन फ्रेंड्स वाज़े करा जाया करते थे।ऐसी और इस तरह की ऊल-जलूल बातें सुनकर हम दिल खोल कर हंसा करते थे।

रमेश नैयर तीन साल बाद ‘संडे अब्ज़र्वर’ को अलविदा कह कर रायपुर चले गये । कुछ माह विश्राम किया और छिटपुट लेखन का कार्य करते रहे।जुलाई,1993 में दैनिक भास्कर के रायपुर संस्करण के संपादक बन गये। उन दिनों मेरा रायपुर आना हुआ शायद दो बार । रमेश नैयर के साथ दिक्कत यह होती थी कि कहीं भी मेरे पहुंच जाने के बाद अपना ज़रूरी काम निपटा कर मेरे साथ चल पड़ते थे।रायपुर में मैं ‘दैनिक भास्कर’में उनके सामने बैठा हूं और वह कुछ लिखने में व्यस्त थे,शायद उस दिन का संपादकीय ।उसे लिखकर और कुछ अन्य आवश्यक कार्य अपने साथियों को समझा शाम को वापसी का वादा कर मुझे कहते ,चलो वीर जी,चलें। वह मुझ में इतना खो जाया करते थे जिसकी मेरे पास कोई मिसाल नहीं ।रायपुर में मेरे पुराने ठिकानों और ठीयों को दिखाते हुए कहते कि अब रायपुर बहुत बदल गया है।अब पुरानी जगहें तो कयास लगाकर ही देखी जा सकती हैं ।

क्योंकि मैं एक नहीं तो दो दिन रायपुर रहता और रमेश अपना सारा वक़्त मुझ पर कुरबान कर दिया करते थे। ‘संडे मेल’ का प्रकाशन 1995 में स्थगित हो गया था।बावजूद इसके मुझे संजय डालमिया ने अपने एक एनजीओ डालमिया सेवा ट्रस्ट से जोड़ लिया था।कभी कभार उससे जुड़े कुछ कामों के लिए मुझे दिल्ली से बाहर जाना होता था ।इस सिलसिले में दो एक बार रायपुर भी आया था और रमेश से मिलना मेरी सूची में सबसे ऊपर रहता था।लोगों को आश्चर्य होता कि हमारे बीच किस तरह की बातें होती हैं ।जहां तक मुद्दों और विषयों की बात है,अनेक हैं ।निजी, पारिवारिक, लेखन, सामाजिक,सांस्कृतिक,राजनीतिक विषयों पर ।रमेश प्रतिभाशाली थे और उनसे मैं बहुत कुछ ग्रहण करता था।कभी कभी मैं सहास्य कहता भी कि उम्र में बेशक मैं तुमसे बड़ा हूं लेकिन काबिलियत में तुम लाजवाब हो,बेमिसाल हो।मेरे इन शब्दों से मेरे घुटने पकड़ कर वह सहलाने लगता था।

जिन दिनों छत्तीसगढ़ में अजित जोगी की सरकार थी मैं अपने एनजीओ के काम के सिलसिले में कई बार आया।उनके समय के शिक्षामंत्री सत्यनारायण शर्मा से मेरी गहरी दोस्ती थी,अब भी है ।जोगी जी जब दिल्ली में रहते थे तो उनका श्रीमती सोनिया गांधी के यहां खूब आना जाना हुआ करता था ।जोगी सोनिया जी के लिए मुझ से भाषण भी लिखवाया करते थे ।इस बात से रमेश नैयर भी परिचित थे और सत्तू भैया से दोस्ती के बारे में भी। एक बार रमेश ने फ़ोन करके बताया कि उनके पास सत्यनारायण शर्मा की कोई डायरी आयी है,पढ़ने के लिए और उसको संपादित करके छपवाने के लिये ।उसने यह भी बताया कि सत्तू भैया ने उस डायरी में मेरा भी उल्लेख किया है ।यह जानकर मुझे बेहद खुशी हुई थी।

क्योंकि मुझे दिल्ली से रायपुर आये कई बरस हो चुके थे रमेश चाहते थे कि एक बार आकर मैं उनसे ज़रूर मिलूं ।रमेश जी ने मुझे न्योतने के लिए कुछ संस्थाओं से संभवतः संपर्क भी साधा था। पहले मैंने उन्हें अपनी दो पुस्तकें भिजवाई थीं-‘वे दिन वे लोग’ और ‘आंखों देखा पाकिस्तान (पाकिस्ताननामा)’।उन्होंने दोनों की बहुत अच्छी समीक्षा की थी जो ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में अरुण नैथानी ने छापी थी।उन पुस्तकों में मैंने अपने गुरु स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी का उल्लेख करते हुए लिखा था कि माधवराव सप्रे स्कूल में जब वह मुझे हिंदी पढ़ाया करते थे तब उन्होंने ही मुझे कलम पकड़ने की सीख दी थी और मेरे एक निबंध को आलेख के रूप में ‘दैनिक महकोशल’में छपवाया था। रमेश के कारण ही मैं अपने हिंदी टीचर के बेटे डॉ सुशील त्रिवेदी को जान सका।मेरी दो बार उनसे भेंट हुई है पहली बार दिल्ली में और दूसरी बार रायपुर में इसी साल 27 मई को।

रायपुर आकाशवाणी के प्रकाश उदय पिछ्ले दिनों जब दिल्ली आये तो मुझ से भी मिले।उनकी बेटी रूस में चिकित्सा का अध्ययन कर रही है ।उसे विदा करने के लिए सपत्नीक आये थे।हम दोनों की पहली मुलाकात थी जिस में हम में एक दूसरे को जानने-समझने पर कम रमेश नैयर के व्यक्तित्व और कृतत्व पर अधिक चर्चा हुई थी । उन्हें मैंने अपनी एक नई पुस्तक ‘आप्रवासी अमेरिका’ रमेश नैयर को भेंट करने के लिए दी थी। उन्होंने रायपुर पहुंच कर मेरी वह पुस्तक भेंट करते हुए एक फोटो भी भेजी थी जिसमें रमेश काफी कमज़ोर लग रहे थे। प्रकाश ने बताया कि उनकी तबियत कुछ ठीक नहीं थी।उसके अगले दिन जब मैंने बात की तो बहुत उत्फुल्ल लगे और बोले कि ‘वीर जी,आपकी किताब मिल गयी है ।उसकी समीक्षा करके कई अखबारों में छपवाऊंगा।बहुत अच्छी किताब है । रमेश ने 2021 में मुझ पर निकली पुस्तक ‘त्रिलोक दीप का सफर’ में एक भावपूर्ण आलेख लिखा था ‘मेरा हमदम, मेरा रकीब’ जो उसके प्रेम का परिचायक है ।

रमेश नैयर से हफ्ते में एक बार अवश्य फोन पर बात हो जाया करती थी।उन्हें इस बात का मलाल रहता था कि वह मुझे किसी संस्था द्वारा आमंत्रित कराने में सफल नहीं हो सके । मैं उन्हें आश्वस्त करता कि मैं एक बार ज़रूर रायपुर आऊंगा और 27-28 मई,2023 को गया भी लेकिन मेरा अज़ीज़ तब तक कहीं बहुत दूर चला गया था ।उसे मैंने सत्तू भैया,गिरीश पंकज, प्रकाश उदय,डॉ सुशील त्रिवेदी,डॉ सुधीर शर्मा,हरजीत सिंह जुनेजा,डॉ हिमांशु द्विवेदी आदि के माध्यम से बहुत याद किया था।रमेश के सौजन्य से ही मैं रायपुर के तत्कालीन महापौर बलबीर सिंह जुनेजा से मिल पाया थे जो मेरे रिश्ते में भी थे।रमेश नैयर का सदा यह प्रयास रहता था कि रायपुर प्रवास के दौरान मैं अधिक से अधिक लोगों से मिलूं । इस बार उनके इस काम को गिरीश पंकज और प्रकाश उदय ने अंजाम दिया।लेकिन रमेश तो रमेश ही था।उसकी कमी सदा खलती रहेगी,जिंदगी भर ।आखिर मेरे बचपन का दोस्त जो था।

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