‘दिनमान’ कब शुरू हुआ, इसका क्या इतिहास है,इस बाबत तरह तरह के आख्यान, कथायें और किवदंतियां सुनी जाती है।यह तो सर्वविदित है कि रमा और साहू शांतिप्रसद जैन कला, संस्कृति और साहित्य में बहुत रुचि रखते थे।दोनों ही एक साथ कई महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और साहित्यिक समारोहों में देखे जाते थे। ऐसा माना जाता है कि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अंतर्गत छपने वाली सभी पत्रिकाओं को उनका वरदहस्त प्राप्त है ।जैनद्वय की सभी महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और साहित्यिक हस्तियों से मेल मुलाकात थी। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और उनकी विद्धता से भी वह बखूबी परिचित थे ।वास्तव में पहले उन्होंने ‘धर्मयुग’ की संपादकी का प्रस्ताव अज्ञेय को दिया था लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी।उनके सुझाव पर ही धर्मवीर भारती को ‘धर्मयुग’ का संपादक नियुक्त किया गया था,ऐसा भी कुछ लोगों का मानना है ।’सारिका’ शुरू करने से पहले जैनद्वय के कुछ सलाहकारों ने अज्ञेय जी को ‘टटोलने’ की सलाह दी थी तो बताया जाता कि रमा जी ने सलाह देने को झिड़क कर कहा कि वह उनके ‘कद और प्रतिभा’ से ‘निम्न’ है । बेशक रमा-शांतिप्रसद जैन के जेहन में अज्ञेय के संपादकीत्व में कोई ऐसी पत्रिका निकालने का मन सदा रहा है जो असाधारण हो।एक बार किसी भेंट में उन्होंने कुछ अलग से सांस्कृतिक और राजनीतिक विषय पर पत्रिका की बात चलाई तो अज्ञेय के मुंह से निकल गया ‘इकानॉमिस्ट’। इस बाबत जैनद्वय ने अपने उन कुछेक मित्रों-संबंधियों से बात की जिनकी सांस्कृतिक विषयों में रुचि थी ।कुछ नाम जो मुझे सुनने को मिले,वे हैं लक्ष्मीचंद्र जैन, इन्दु जैन,दिनेश नन्दिनी डालमिया, इला डालमिया आदि ।ये सभी लोग अज्ञेय की प्रबुद्धता और विद्वता से परिचित थे और उनका लगभग सारा साहित्य भी पढ़ रखा था। बताया जाता है कि लक्ष्मीचंद्र के माध्यम से अज्ञेय से संपर्क कर जैनद्वय से भेंट करायी गयी ।इस विचारधारा के अनुसार अज्ञेय ने डमी बनायी,’देशकल’ नाम सुझाया और अपने काम की शर्तें भी बता दीं ।लेकिन मुंबई स्थित टाइम्स ऑफ़ इंडिया के तत्कालीन महाप्रबंधक प्रतापकुमार रॉय का व्यवहार उनके ‘अनुकूल’ नहीं था। इस बीच अज्ञेय को दिल का दौरा पड़ा ।उनकी उम्र तब 53 वर्ष की थी।कुछ आराम करने के बाद सक्रिय हो गये और फरवरी, 1965 में ‘दिनमान’ का प्रवेशांक निकल गया जो किसी नयी डमी पर आधारित था।

लेकिन ‘दिनमान’ ऑफ़िस में इस बाबत कहानी दूसरी सुनने को मिली जो हमारे वरिष्ठ सहयोगी रहे पंडित श्यामलाल शर्मा (अब दिवंगत) सुनाते थे।यह उन दिनों की बात है जब वह आकाशवाणी में काम करते थे और देवकीनन्दन पांडे के साथ समाचार पढ़ा करते थे ।वह कनखल,हरिद्वार के रहने वाले थे।लिहाजा पंडित होने के नाते उनका साहू शांतिप्रसद जैन के यहां आना जाना था जो सेठ रामकृष्ण डालमिया के दामाद थे ।रमा जैन उनकी विदुषी पत्नी थी और दोनों साहित्य,कला,संस्कृति को समर्पित थे।रमा जी रामकृष्ण डालमिया की पहली पत्नी की बेटी थीं ।रमा और साहू शांति प्रसाद जैन बैनेट कोलमैन एण्ड कंपनी के मालिक थे जिनका टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह था।दैनिक समाचारपत्रों के अतिरिक्त उनकी कई प्रमुख पत्रिकाएं थीं जैसे धर्मयुग,Illustrated weekly of India, Filmfare,माधुरी,सारिका,पराग आदि । अब उनके जेहन में अमेरिका से निकलने वाली ‘टाइम’ और ‘न्यूज़वीक’ के समकक्ष हिंदी में एक पत्रिका निकालने का इरादा था जो पूरी तरह से भारतीय परिवेश में हो।इस बाबत उन्होंने पंडित श्यामलाल शर्मा से विचार विमर्श किया, क्योंकि आकाशवाणी में उनका कई महत्वपूर्ण पत्रकारों और बुद्धिजीवियों से मिलना जुलना होता रहता था ।इस संभावित प्रोजेक्ट के बारे में उनकी राय भी मांगी थी ।

श्यामलाल जी को उनका विचार बहुत रुचा।इसपर रमा और शांतिप्रसाद जैन ने उन्हें एक डमी तैयार करने के लिए कहा ।अब क्या था।पंडित जी दिन रात इसी काम में जुटे रहते ।यह बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य था।उन के हाथ में अब ‘टाइम’ और ‘न्यूज़वीक’ की प्रतियां देखी जाती थीं ।कभी कभी फ्रांसीसी पत्र ‘ला मांद’ और ब्रितानी साप्ताहिक ‘इकानामिस्ट’ भी पढ़ते और पन्ने पलटते हुए देखे जाते थे पंडित श्यामलाल शर्मा ।इन सब का अध्ययन कर उन्हें भारतीय परिपेक्षय में एक डमी तैयार करनी थी ।उन्होंने इस पत्रिका का नाम सोचा था ‘देशकाल’। वह बताते थे कि उन्हें इस नयी पत्रिका की डमी बनाने की ऐसी धुन सवार थी कि वह आकाशवाणी का अपना काम निपटाने के बाद गप्पें न मार कागज कलम लेकर बैठ जाया करते थे जो उनके साथियों को अजीब लगता है क्योंकि ऐसा उस पंडित की ‘प्रकृति’ नहीं थी।उन्होंने अपने कुछ विश्वस्त और गंभीर सहयोगियों का सहयोग भी लिया ।यह 1963-64 की बात थी।तब लोग एक दूसरे के मददगार हुआ करते थे यह सोचकर कि यह काम अकेले उनका नहीं,हम सबका है ।दो महीने के बाद उन्होंने साहू शन्तिप्रसाद जैन और रमा जी को डमी दिखाई और पत्रिका का संभावित नाम भी ।इस पर उन्होंने पूछा कि संपादक के तौर पर किसी ऐसे व्यक्ति का नाम भी सुझायें जो विद्वान के साथ साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में भी ख्यात हो।पंडित जी के जेहन में एक ही नाम आया।वह था सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय का।उन्हें वह रेडियो के दिनों से जानते थे ।उनके विषय में उन्हें यह भी पता था कि वह विद्वान हैं,बहुभाषाविद हैं और कई समाचारपत्रों-पत्रिकाओं का संपादन कर चुके हैं तथा क्रांतिकारी रहे हैं भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद के साथ ।साहू दंपत्ति ने इस नाम को तुरंत स्वीकृति दे दी क्योंकि अज्ञेय को दोनों ने पढ़ रखा था।यह काम भी पंडित जी को सौंपा गया ।उनके घर फ़ोन करने पर पता चला कि अज्ञेय इस समय बर्कले में हैं और छह माह बाद लौटेंगे।तब तक इस नयी पत्रिका के काम को लंबित रखा गया।अमेरिका की केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के बर्कले में वह विज़िटिंग प्रोफेसर थे।

छह माह बाद अज्ञेय जी साहू शांतिप्रसाद जैन और रमा जी से मिले ।जैन दम्पति ने अज्ञेय जी से अपनी संभावित पत्रिका के बारे में बात की। क्योंकि अज्ञेय अमेरिका से प्रकाशित होने वाली ‘टाइम’ और ‘न्यूज़वीक’ पत्रिकाओं से परिचित थे इसलिए उन्हें जैन दम्पति के आशय और सोच को समझने में देर नहीं लगी ।बहुत कम बोलने वाले अज्ञेय जी ने उनसे कहा कि वह इस ज़िम्मेदारी को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं लेकिन उनकी अपनी कुछ शर्तें हैं ।अज्ञेय जी ने कहा कि पत्रिका की नीति वह तय करेंगे, उसमें प्रबंधन की किसी प्रकार की दखलंदाजी नहीं होगी और न ही मेरे सहयोगियों के चयन में कोई हस्तक्षेप करेगा।संपादकीय सामग्री 60 प्रतिशत रहेगी और विज्ञापन की 40 फीसद। अज्ञेय ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह उनके सिवाय किसी से मिलने नहीं जायेंगे,जिन्हें उनसे मिलना होगा वह फ़ोन करके उनसे मिलने के लिए आयेंगे ।उस समय अज्ञेय का जो पैकेज निश्चित किया गया वह टाइम्स ऑफ इंडिया में सबसे अधिक था।ये सभी शर्तें लिखित में की गयीं।इस औपचारिकता के बाद 1964 में अज्ञेय ने ‘दिनमान’ की शुरुआत की अपनी डमी से।’देशकाल’ का नाम नहीं मिला लिहाजा ‘दिनमान’ का नाम रजिस्ट्रार को विकल्प के तौर पर भेजा गया जिसे मंजूरी मिल गयी अज्ञेय ‘दिनमान’ को देशकाल से बेहतर नाम बताते थे। इन सभी औपचारिकताओं की पूर्ति के बाद 1965 के दूसरे माह से ‘दिनमान’ का विधिवत प्रकाशन शुरू हो गया और संपादक के रूप में अज्ञेय का नाम केवल सच्चिदानंद वात्स्यायन जाता था।

सबसे पहली नियुक्ति श्यामलाल शर्मा की हुई।वह उपसंपादकों में सबसे सीनियर थे।उसके बाद योगराज थानी भी उपसंपादक बनाये गये ।फिल्म्स डिवीजन से मनोहर श्याम जोशी को बुलाकर सहायक संपादक का पद दिया गया।उस समय अज्ञेय के बाद उनकी वरिष्ठता निश्चित की गयी।जितेंद्र गुप्त दूसरे सहायक संपादक थे जो भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से आये थे।सर्वेश्वरदयाल सक्सेना को मुख्य उपसंपादक नियुक्त किया गया ।जितेंद्र सिंह को विशेष संवाददाता के तौर पर टाइम्स ऑफ इंडिया से लोन के तौर पर लिया गया।वह तत्कालीन केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री सत्यनारायण सिन्हा के दामाद थे।बाद में एक टेस्ट के ज़रिये श्रीकांत वर्मा विशेष संवाददाता बने और जितेन्द्र सिंह को टाइम्स ऑफ इंडिया पटना ब्यूरो चीफ़ बनाकर भेज दिया गया।टेस्ट मैंने भी दिया था।मुझे अज्ञेय जी ने उपसंपादक का ऑफ़र दिया जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया था क्योंकि मेरी पत्रकार बनने की मुराद जो पूरी हुई थी। लोगों ने मुझे बहुत डराया कि दस साल की पक्की सरकारी नौकरी छोड़ कर कच्ची प्राइवेट नौकरी करना कहां की बुद्धिमानी है लेकिन मैं अपने निर्णय पर अडिग रहा । मुझसे वरिष्ठ उपसंपादक थे रमेश वर्मा, रामसेवक श्रीवास्तव, श्रीमती शुक्ला रुद्र और जवाहरलाल कौल। रघुवीरसहाय तब नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता थे। प्रयाग शुक्ल फ्रीलांसिंग करते थे। समाजवादी विचारक ओम प्रकाश दीपक आधुनिक जीवन का कॉलम लिखा करते थे और पीटीआई के इंदरलाल ‘दोटूक बात’नामक स्तंभ ।पत्रिका में सांपादक के रूप में सच्चिदानंद वात्स्यायन का नाम जाया करता था,किसी दूसरे संपादकीय सहकर्मी का नाम नहीं ।बाहर के लेखकों में ओमप्रकाश दीपक और इंदरलाल का नियमित तौर पर नाम जाता था।बाहर के अन्य जिन लोगों से लिखवाया जाता था उनमें मुख्य थे राय कृष्णदास,विद्यानिवास मिश्रा,डॉ सिद्धेश्वर प्रसाद, फणीश्वरनाथ रेणु,प्रोफेसर कृष्ण कुमार, अनुपम मिश्र,बनवारी,रमेश नैयर,रामशरण जोशी आदि ।इन लोगों से विशेष विषयों पर रपटें लिखवायी जातीं । दूसरे संपादकीय सहकर्मियों का पत्रिका में नाम न छापने के पीछे अज्ञेय का तर्क था कि पत्रिका में प्रकाशित सामग्री के लिए संपादक उत्तरदायी होता है ।यदि किसी को कोई या किसी प्रकार की शिकायत है तो उसका उत्तर संपादक देगा ।इसके अतिरिक्त बाहर के किसी व्यक्ति के सामने मैं अपने संवाददाता या लेखक का नाम क्यों साझा करूं ।प्रेस में भेजी जाने वाली सामग्री की दो प्रतियां टाइप होती थीं-एक प्रेस चली जाती थी तो दूसरी प्रतिलिपि वाली फ़ाइल में ।इस फ़ाइल को अज्ञेय सुबह ऑफ़िस पहुंच कर सबसे पहले देखा करते थे।उन दिनों फोटोकॉपी नहीं होती थी।

वह ज़माना मैन्युअल टाइपिंग का था और प्रेस में मैटर हैंड कम्पोज होता था।उस समय न कंप्यूटर होते थे और न ही और किसी प्रकार की आधुनिक विधि या व्यवस्था ।मैटर को कम्पोज करके पहले गैलियां प्रूफरीडर पढ़ा करते थे,बाद में संपादकीय सहकर्मी ।उस समय ‘दिनमान’ में तीन स्टेनो थे-मदनगोपाल चड्ढा,विश्वंभर श्रीवास्तव और प्रेमनाथ प्रेम ।चड्ढा जी वात्स्यायन जी के निजी सचिव थे जो हिंदी और अंग्रज़ी दोनों भाषाओं की टाइपिंग और शार्टहैंड में पारंगत थे।बाकी दोनों स्टेनो डिक्टेशन लेते और हाथ से लिखे मैटर को टाइप भी करते थे। इन तीनों के पास अच्छा खासा काम होता था।उन दिनों ऐसे स्टेनो की राजनीतिक नेताओं के बीच भी अच्छी खासी मांग रहती थी। मदनगोपाल चड्ढा समाजवादी नेता राजनारायण से जुड़े थे जबकि विश्वंभर श्रीवास्तव
लालकृष्ण आडवाणी से। प्रेमनाथ प्रेम जासूसी उपन्यास लिखा करते थे। जब बाल पत्रिका ‘पराग’ दिल्ली आ गयी तब उसके तत्कालीन संपादक आनंद प्रकाश जैन के वह निजी सचिव बन गये ।एक समय ऐसा भी आया कि विश्वंभर श्रीवास्तव ने पहले ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक राजेंद्र माथुर के निजी सचिव के तौर पर काम किया और जब लालकृष्ण आडवाणी देश के गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री बने तो वह उनके अतिरिक्त निजी सचिव बन कर चले गये ।इसी प्रकार लोकसभा के कई कर्मचारी अवकाशप्राप्त होने के बाद कुछ मंत्रियों से जुड़ जाया करते थे । मिसाल के तौर पर टी एन माकन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के, अब्दुल रहमान खान कुंवर नटवर सिंह के,अवतार कृष्ण चोपड़ा सीताराम केसरी के निजी सचिव के तौर पर काम किया करते थे।पत्रकारों में अशोक टंडन अटल जी के मीडिया सलाहकार रहे।यहां तो बहुत लंबी कतार है ।

चलते हैं वापस ‘दिनमान’ की ओर।मेरे बाद वात्स्यायन जी राम धनी को लाये।’वीर अर्जुन’ में कार्यरत सत्यपाल शास्त्री ने भी बहुत हाथ पांव मारे लेकिन उन्हें कभी कभी प्रूफ पढ़ने के लिए बुला लिया जाता ।उन्हें उपसंपादक नहीं बनाया गया जो वह बनना चाहते थे ।कुछ समय के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया के ट्रेनिंग स्कूल में ट्रेनिंग प्राप्त करने वाले माहेश्वरदयालु गंगवार को ‘दिनमान’ में नियुक्त किया गया। जनवरी 1969 में वात्स्यायन जी ने प्रयाग शुक्ल को भी ‘दिनमान’ की टीम में शामिल कर लिया। वह उनके काम से बहुत खुश और संतुष्ट थे विशेष तौर पर उनकी कला की प्रदर्शनियों की रिपोर्टिंग से।

‘दिनमान’में प्रमुख स्तंभ थे: पाठकों के पत्रों के स्तंभ का नाम था ‘मत सम्मत’, एक छोटा एक कॉलम का स्तंभ था ‘पिछ्ले सप्ताह’ । इसमें एक कॉलम में हफ्ते भर की देश की खबरें दी जातीं और एक कॉलम में विदेश की। एक और स्तंभ था ‘पत्रकार संसद’।इस कॉलम में विश्व के समाचारपत्रों में भारत से जुड़ी खबरों का अनुवाद करके दिया जाता ।यह स्तंभ श्यामलाल शर्मा के ज़िम्मे था।राज्य की खबरों के लिए ‘प्रदेश’, देश के समाचारों के लिए ‘राष्ट्र’, अंतर्राष्ट्रीय समाचारों के लिए ‘विश्व’ स्तंभ थे।विश्व स्तंभ से पहले एक कॉलम ‘समाचारभूमि’ का होता था ।इसके अंतर्गत दुनिया के किसी भी कोने में किसी छोटी-सी घटना को विस्तार से दिया जाता था,उसके इतिहास,भूगोल, राजनीतिक व्यवस्था के साथ । मिसाल के तौर पर किसी देश में सैनिक क्रांति हो गयी तो उसका पूरा इतिहास,भूगोल,शासन प्रणाली,जनसंख्या,क्षेत्रफल आदि दिया जाता था।कभी कभी विश्व के द्वीपोंं पर भी समचारभूमि लिखी जाती ।अन्य प्रमुख स्तंभ थे प्रतिरक्षा, अर्थजगत, खेल और खिलाड़ी,नारी जगत, विज्ञान,कला,साहित्य,संगीत,रंगमंच,फिल्म।एक और कॉलम होता था ‘दुनिया भर की’। उसमें कुछ छोटी-छोटी दिलचस्प खबरें दी जाती थीं । कभी कभी ‘आधुनिक जीवन’,’आधुनिक विचार’, ‘इतिहास’ पर भी कॉलम लिखे जाते।सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का ‘चरचे और चरखे’ स्तंभ खासा लोकप्रिय था ।संपादकीय अज्ञेय खुद लिखा करते थे।वह स्वयं रिपोर्टिंग भी करते थे और स्टाफ के दूसरे लोगों को भी प्रेरित किया करते थे। मोटे तौर पर कुछ कॉलमों की ज़िम्मेदारी भी तय थी जैसे ‘प्रदेश’ रामसेवक श्रीवास्तव,’राष्ट्र ‘श्रीकांत वर्मा, ‘विश्व और विज्ञान’ रमेश वर्मा,खेल और खिलाड़ी योगराज थानी, कला पहले श्रीकांत वर्मा के ज़िम्मे था,बाद में प्रयाग शुक्ल को दिया गया,साहित्य,संस्कृति आदि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना देखा करते थे,अर्थजगत जितेंद्र गुप्त ।ऐसी भी व्यवस्था थी कि कुछ संवाद मनोहर श्याम जोशी,जितेंद्र गुप्त और सर्वेश्वर जी के माध्यम से प्रेस जाया करते थे ।कुछ ऐसे भी महत्वपूर्ण संवाद हुआ करते थे जो वात्स्यायन जी के ज़रिये प्रेस जाते थे अन्यथा वह अगले दिन प्रतिलिपि फ़ाइल से देख लिया करते थे।आवश्यक होने पर गैली स्तर पर संशोधन हो जाया करते थे ।

मुझे शुरू शुरू में समाचारपत्र-पत्रिकाएं पढ़कर ‘दिनमान’ के उपयोग के लिए कतरनें मार्क करने की ज़िम्मेदारी मिली।बाद में पिछ्ले सप्ताह लिखने की।उसके बाद ‘दुनिया भर की’ और तत्पश्चात सभी कुछ । ‘प्रदेश’,’राष्ट्र’,’विश्व’ के लिए लिखाया जाता ।क्योंकि मैं सरकारी दफ्तर से आया था अपने संवाद लिखकर सीधे संपादक के पास भेज देता, यहां तक कि पिछ्ले सप्ताह और दुनिया भर की कॉपी भी ।वात्स्यायन जी बिना किसी संकोच या हिचकिचाहट के देखकर मुझे लौटा दिया करते थे।’प्रदेश’ की स्टोरी रामसेवक जी को तो अन्य संवाद जितेंद्र जी या जोशी जी को भेज दिया करता था ।दो-तीन बार वात्स्यायन जी ने मुझे सीधे कुछ जिम्मेदारियां भी सौंपी थीं । शिव बटालवी पंजाबी के सबसे कम उम्र कवि थे जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।वात्स्यायन जी ने उनके बारे में मुझे संवाद तैयार करने के लिए कहा ।यह सुनकर मेरे हाथ पांव फूल गये ।मैं शिव बटालवी के नाम से परिचित था,काम से नहीं ।मेरी उलझन वह भांप गये।बोले इसमें परेशान होने की क्या ज़रूरत है ।आप साहित्य अकादमी चले जायें,प्रभाकर माचवे से मिलें,उनकी लाइब्रेरी की सहायता लें,आपकी बहन प्रभजोत कौर भी आपकी मदद कर सकती हैं ।फिर भी कोई दिक्कत हो तो ‘मैं तां हां ही’।उनकी मुंह से उनकी मातृभाषा सुनकर बहुत अच्छा लगा ।आम तौर पर वह किसी से भी पंजाबी में बात नहीं किया करते थे।वात्स्यायन जी बहुभाषी थे: कम से कम बीस भारतीय भाषाएं पढ़-लिख और बोल लेते थे ।हिंदी, अग्रेज़ी,संस्कृत और फारसी उन्होंने बचपन में घर में तैनात टीचरों,पंडितों और मौलवियों से पढ़ी थीं और शेष अपने
पुरातत्वविद पिता हीरानंद शास्त्री के साथ जगह जगह खुदाई के लिए उनके होने वाले तबादलों की वजह से ।’दिनमान’ में वात्स्यायन जी को मिलाकर तीन पंजाबी थे, योगराज थानी और मैं।बंगला भाषी श्रीमती शुक्ला रुद्र थीं और कश्मीरी जवाहरलाल कौल थे। हम सबको उन्होंने शायद इसलिए नियुक्त किया था कि उन प्रदेशों या महत्वपूर्ण व्यक्तियों के बारे में बिना बाहर से मदद लिए लिखवाया जा सके।शिव बटालवी उनकी शायद इसी सोच का कारक थे ।वैसे वात्स्यायन जी बंगला और कश्मीरी भी जानते थे।बंगला और असमिया में उन्होंने पेपर निकाला था तो बंगला का बहुत सा साहित्य हिंदी में अनुवाद भी किया है ।’दिनमान’ में अंग्रेजी और हिंदी के तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समचारपत्र आया करते थे।इनके साथ बंगला में ‘देश’ और फ्रेंच में ‘ल मांद’ भी आता था ।पहले बंगला वात्स्यायन जी और श्रीमती शुक्ला रुद्र पढ़ते थे बाद में प्रयाग शुक्ल और रघुवीरसहाय भी इस टोली में शामिल हो गये जबकि फ्रेंच पढ़ने वालों में वात्स्यायन और मनोहर श्याम जोशी ही थे।अंग्रज़ी और फ्रेंच के अलावा वात्स्यायन जी जर्मन,स्पैनिश और रशियन भी जानते थे।

जैसे मैंने पहले कहा कि कमोबेश सभी संपादकीय सहकर्मियों के मोटा मोटी स्तंभ निश्चित थे लेकिन वक़्त आने पर हरेक को किसी दूसरे विषय पर लिखने में दिक्कत पेश नहीं आती थी, ऐसी ट्रेनिंग हमें वात्स्यायन जी ने दे रखी थी।श्रीमती शुक्ला रुद्र कहने को नारी जगत और ‘दुनिया भर की’ लिखा करती थीं लेकिन पंजाब में आतंकवाद के दिनों में रिपोर्टिंग भी की थी, यह जानने के लिए कि महिलाओं को आतंकवाद का किस कद्र शिकार होना पड़ रहा है ।अकाली नेता मास्टर तारा सिंह की बेटी राजिंदर कौर से अमृतसर में इस बाबत उन्होंने लंबी बात भी की थी।संत जरनैलसिंह भिंडरांवाले के गृह नगर मेहता चौक भी गयीं जहां बच्चों को गुरुवाणी में दीक्षित किया जाता है ।1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय और बाद में बंगलादेश से भारत की सीमा पर आकर शरण लेने वाले लोगों की दशा-दुर्दशा का आंखों देखा व्यौरा लेने के लिए भी गयीं।

कई मौकों पर हम दोनों ने साथ साथ रिपोर्टिंग भी की पंजाब में आतंकवाद और लोकसभा चुनाव को साथ साथ कवर किया।1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के फलस्वरुप जो सिख परिवार जुनूनी भीड़ का शिकार हो गये थे उन परिवारों की महिलाओं की व्यथा कथा सुन कर कई मानवीय संवेदनाओं संबंधी संवाद तैयार किये। उन स्थानों पर भी गयीं जहां प्रभावित परिवारों के लिए लंगर तैयार होता था। ‘दिनमान’ के लिए वेश्याओं के बच्चों के पुनर्वास पर उन्होंने बहुत काम किया ।कुबेर दत्त ने दूरदर्शन के लिए कई सटोरियां की थीं,श्रीमती रुद्र बताया करती थीं ।कैसे लड़कियां वेश्यावृत्ति में झोंकी जाती हैं और उनके बच्चे आवारा घूमते रहते हैं,ऐसे बच्चों की शिक्षा की दिशा में उन्होंने बहुत काम किया था।श्रीमती शुक्ला रुद्र मेरी सहयोगी होने के अतिरिक्त मेरी बहुत अच्छी पारिवारिक मित्र भी थीं।

जवाहरलाल कौल संभवतः 1964 में ही ‘दिनमान’ से जुड़ गये थे।इससे पहले वह किसी समाचार एजेन्सी शायद हिंदुस्थान समाचार में थे।वह भी श्रीमती शुक्ला रुद्र और मेरी तरह साहित्यकार नहीं थे,शुद्ध पत्रकार थे।कौल साहब भी हरफनमौला थे।वह मुख्यतः समाचारों से ही जुड़े हुए थे।प्रदेश,राष्ट्र और विश्व के स्तंभों के लिए लिखा करते थे ।रमेश वर्मा के निधन के बाद उन्हें विज्ञान जगत की ज़िम्मेदारी सौंप दी गयी थी। उनका जुड़ाव खबरों की दुनिया से था इसलिए उन्हें राजनीतिक संवाददाता बना दिया गया था।जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी वह बिहार के दौरे पर थे और विशेष संवाददाता रामसेवक श्रीवास्तव छुट्टी पर थे।यदि ये दोनों दिल्ली में होते तो नामुमकिन नहीं इंदिरा गांधी की हत्या संबंधी स्टोरी कवर करने का दायित्व उन्हें ही सौंपा जाता।

जवाहरलाल कौल और मैं उपसंपादक बनाम संवाददाता रघुवीरसहाय के समय ही बन गये थे लेकिन कौल साहब को राजनीतिक संवाददाता का पद कन्हैयालाल नंदन के समय प्राप्त हुआ। हुआ यों कि आलोक मेहता जब जर्मनी में रेडियो डाऊच वैले
से वापस लौटे तो उनके पास कोई काम नहीं था।नंदन जी ने टाइम्स ऑफ इंडिया के महाप्रबंधक रमेश चंद्र से बात कर उन्हें ‘दिनमान’ में रखवा लिया और उनके लिए राजनीतिक संवाददाता के पद का सृजन हुआ।वह राजनीतिक संवाद ही लिखा करते थे।कुछ संपादन का काम भी किया करते थे।वह नंदन जी के बहुत करीब थे।कुछ समय बाद उन्हें नवभारत टाइम्स,बिहार का स्थानीय संपादक बना कर पटना भेज दिया गया और इस प्रकार जवाहरलाल कौल को यह नवसृजित पद प्राप्त हो गया। बेशक कौल साहब बहुत ही परिश्रमी व्यक्ति हैं और देश भर का दौरा कर विशेष संवाद तैयार करने में माहिर थे। उनकी और मेरी खूब पटती थी।खुशी की बात है कि वह आजकल भी खासे सक्रिय हैं ।

एक बार वात्स्यायन जी ने मुझे अपने कक्ष में बुलाकर एक निमंत्रणपत्र दिया । यह युगोस्लाविया दूतावास से उनके नाम आया था।निमंत्रणपत्र देते हुए वात्स्यायन जी ने कहा कि यह युगोस्लाविया दिवस का है ।आप पार्टी में तो जायें लेकिन उससे पहले राष्ट्रपति मार्शल टीटो की नीतियों के बारे में वहां के राजदूत या प्रेस अटाशे से बात करें जैसे उस देश की नीतियां सोवियत संघ,चीन और दूसरे पूर्व यूरोपीय देशों से कितनी अलग हैं ।उनसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक सौहार्द पर भी बात करें।अब गुटनिरपेक्ष देशों का विश्व की राजनीति पर कितना प्रभाव है आदि ।अब आप लाइब्रेरी से युगोस्लाविया के बारे में कतरनें देख लें और उस देश की भौगोलिक,ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति का अध्ययन करके जायें ।मेरी एक सलाह को गांठ बांध लें ।जब भी किसी व्यक्ति का साक्षात्कार लेने के लिए जायें आपकी तैयारी ऐसी होनी चाहिए कि उत्तर देने वाले को भी लगे कि वह किसी अनाड़ी या नौसिखिये से बात नहीं कर रहा है ।अज्ञेय जी के परामर्श के अनुसार युगोस्लाविया बाबत मैंने जो संवाद लिखा वह उन्हें ऐसा रुचा कि उन्होंने मुझे ‘विश्व’ डेस्क सौंप दिया ।इसी प्रकार एक बार प्रतिरक्षा मंत्रालय से प्राप्त निमंत्रणपत्र के आधार पर उन्होंने मुझे उनकी प्रायोजित प्रेस पार्टी में भेजा इस निर्देश के साथ कि सेना की स्टोरी के साथ और किस प्रकार की मानवीय, सामाजिक,सांस्कृतिक पक्ष के संवाद तैयार करने हैं ।इस प्रकार ये दोनों महत्वपूर्ण बीट्स मुझे वात्स्यायन जी सौंप गये थे जिन्हें
रघुवीरसहाय ने भी बरकरार रखा ।

जैसा मैंने पहले कहा कि ‘दिनमान’ में शुरू शुरू में रिपोर्टर किसी को नहीं बनाया गया था।एक विशेष संवाददाता ही था।न ही किसी राज्य में कोई सवैतनिक संवाददाता था।जिस किसी की भी ‘दिनमान’ में रिपोर्ट छपती थी उसकी गुणवत्ता के आधार पर भुगतान किया जाता था ।वात्स्यायन जी का मानना था कि ‘दिनमान’ का प्रत्येक संपादकीय सहकर्मी हरफनमौला है ।उसे हर विषय का ज्ञान होना चाहिए ।किसी व्यक्ति को यह नहीं लगना चाहिए या गलतफहमी होनी चाहिए कि वह अपरिहार्य है और उसके न होने से पत्रिका का काम रुक जायेगा।मुझे दो ऐसे अवसर याद हैं जब ‘दिनमान’ के बाज़ार में आने से एक दिन पहले कुछ संपादकीय सहकर्मियों ने संभवतः यह सोचकर छुट्टी ले ली थी कि देखें उनके बिना कैसे ‘दिनमान’ रात को छप कर कल मार्केट में आता है !लेकिन छुट्टी करने वाले लोगों ने अगले दिन सुबह जब ‘दिनमान’ की प्रति अपने टेबल पर देखी तो उन्हें काटो तो खून नहीं ।वात्स्यायन जी सामान्य तरीके से साढ़े दस बजे ऑफ़िस पहुंच गये और अपने काम में जुट गये। उस अंक को निकालने के लिए वात्स्यायन जी ने बाहर जाने का अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया था ।इस बाबत छुट्टी करने वालों ने शायद यह नहीं सोचा था । अज्ञेय को समझना इतना ही सहज और आसान होता तो वे भूल कर भी ऐसी ‘बेवकूफी’ नहीं करते । ऐसे ही एक-दो हादसे और हुए जिनमें मुझे लगा कि मैं उनकी सोच और पैमाने पर सही और खरा उतरा ।’दिनमान’ छोड़ने के बाद वह जहां भी रहे हों मेरी उनसे मुलाकातें जारी रहीं।

जैसा मैंने कहा अज्ञेय सही मायने में हमारे लीडर थे।किसी व्यक्ति को कोई दायित्व सौंपने से पहले वह स्वयं उस प्रकार के काम को अंजाम दिया करते थे। 1967 में बिहार में भयंकर सूखा पड़ा ।वहां अकाल के हालात पैदा हो गये।अज्ञेय ने कैमरा उठाया और पटना में रेणु जी को फ़ोन कर तैयार रहने को कहा और साथ में टैक्सी का इंतजाम करने के लिए भी ।अज्ञेय जी ने पटना एयरपोर्ट से ही रेणु जी को साथ लिया और प्रभावित क्षेत्रों की तरफ कूच कर गये।रास्ते में दोनों ने काम बांट लिये। रेणु जी रिपोर्ट लिखेंगे और वात्स्यायन जी फोटोग्राफी करेंगे। अज्ञेय ने रेणु जी से कहा कि आप बिहार के रहने वाले हैं,राज्य की समस्याओं से अधिक परिचित हैं । सरकार की गफ़लत से भी जानकार होंगे,केंद्र और राज्य सरकारों के बीच के एक दूसरे पर पारंपरिक दोषारोपण से भी,हमें उस पर समय नष्ट न करते हुए लोगों की दशा-दुर्दशा, हाल-बेहाल पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए ।मैं फोटो लूंगा और तुम कलम थामे रखना ।जहां मुझे विशेष जानकारी की जरूरत होगी,मैं आपको बता दूंगा ।लेकिन कुछ जगह उन्हें ट्रेन से जाना पड़ा ,बस से भी और कहीं कहीं पैदल भी ।हालांकि लिखने का काम रेणु के ज़िम्मे था फिर भी अज्ञेय बीच बीच में प्रभावित लोगों से अपने तरीके से बातें कर लेते थे।

घटनास्थल पर पहुंच कर अज्ञेय और रेणु जी अपने पूर्व निर्धारित काम में जुट गये ।ट्रेन से जाते हुए उनकी भेंट सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण से हो गयी।फोटो लेने में तल्लीन अज्ञेय ने पहली दृष्टि में जयप्रकाश जी की तरफ ध्यान नहीं दिया ।बाद में हाथ जोड़ कर नमस्कार किया ।जेपी भी बिहार के अकाल का आकलन करने के लिए निकलेथे।उन्होंने अज्ञेय को सलाह दी कि ‘दिनमान’ में अपनी रपट के साथ तुम जितने भी फोटो इस्तेमाल करोगे उसका प्रभाव राज्य और केंद्र की ‘सुप्त’ सरकारों पर कुछ हद तक तो पड़ेगा लेकिन मैं चाहता हूं कि दिल्ली में एक फोटो प्रदर्शनी लगाओ और उसमें मुझे भी बुलाओ।बात अज्ञेय को जंच गयी और सलाह रुच गयी। साथ ही अज्ञेय और रेणु ने जेपी से अकाल से संबंधित उनकी प्रतिक्रिया ली और प्रश्न भी पूछे। रेणु को लिखने का ज़िम्मा दे उन्हें पटना एयरपोर्ट पर छोड़ अज्ञेय जी दिल्ली आ गये और अपने काम में जुट गये।

‘दिनमान’ टाइम्स ऑफ इंडिया समूह का प्रकाशन था लिहाजा वहां उपलब्ध सुविधाओं को लेने का उसका अधिकार था । उस समय टाइम्स में चार ‘सरकारी’ फोटोग्राफर थे और अपना डार्क रूम ।दफ्तर पहुंचकर अज्ञेय ने एक फोटोग्राफर को बुलाया ।उनका नाम था परमेश्वरी दयाल।अज्ञेय ने बिहार में ली गयी फोटो के रोल उन्हें सौंपते हुए डेवलप करने के अपने तरीके बताये,जिसे सुनकर वह फोटोग्राफर भौचक रह गया ।थोड़ी देर बाद जब परमेश्वरी दयाल फिल्म डेवलप करके लाये तो फोटो की क्वालिटी देखकर वह दंग रह गये ।उसके मुंह से बरबस निकल गया कि हम अपने आपको प्रोफ़ेशनल कहने वाले ‘बाबा’ का क्या मुकाबला करेंगे।अपनी ऐनक उतार कर अज्ञेय ने कुछ नेगेटिव को बारीकी से परखा और फोटोग्राफ बनाने के लिए दिये । उनके ऐंगल भी उन्होंने परमेश्वरी दयाल को समझा दिये ।फोटोग्राफ की क्वालिटी सर्वश्रेष्ठ ।अज्ञेय के हिसाब से जो फोटो ठीक नहीं बने थे,उन्हें उन्होंने कई बार बनवाया।क्या मज़ाल जो परमेश्वरी दयाल उकताये हों । वह बोले, हमें बहुत कुछ सीखने को मिला है । ‘दिनमान’ में रेणु की ‘आंखों देखी रपट’ के साथ बड़ी संख्या में फोटो भी छापे गये। प्रदर्शनी के लिये अलग से फोटो तैयार कराये गये।

बिहार के अकाल के बारे में ‘दिनमान’ में सचित्र प्रकाशित रपट का बहुत असर हुआ जिसका नोटिस राज्य और केंद्र सरकार दोनों ने तो लिया ही,उन राज्य सरकारों को संभलने का मौका भी मिल गया जहां कभी इस प्रकार के सूखे या अकाल की स्थिति पैदा हो सकती है ।इसके बाद अज्ञेय फोटो प्रदर्शनी की तैयारी में जुट गये।प्रदर्शनी की तैयारियां जब पूरी हो गयीं तो जेपी से उसका उद्घाटन करने के लिए तारीख और समय मांगा गया ।जिस दिन जेपी को फोटो प्रदर्शनी का उद्घाटन करना था, पता चला उनकी तबियत खराब हो गयी है और डॉक्टर ने घर से बाहर न निकलने की सलाह दी है ।ऐसी स्थिति में अज्ञेय के परामर्श पर एक लिखित संदेश देने के लिए वह सहमत हो गये ।अज्ञेय ने मुझे श्रीकांत वर्मा के साथ एक मोटी शीट और मोटाई में लिखने वाला पेन सौंपकर हम दोनों को फ्रेंड्स कॉलोनी जाने को कहा जहां जेपी किसी श्री सिंह के यहां ठहरे हुए थे। जेपी ने मोटे-मोटे अक्षरों में अपना संदेश हमें लिखकर दिया।जेपी की हस्तलिपि बहुत अच्छी थी। बिहार में अकाल के बाबत वह फोटो प्रदर्शनी देखने के
लिए बड़ी संख्या में लोग आये। यह प्रदर्शनी एक हफ्ते तक चली ।अंग्रज़ी और हिंदी अखबारों में उसे खूब कवरेज मिली।एक दिन महादेवी वर्मा जी भी यह प्रदर्शनी देखने के लिए आई थीं ।मैं भी अज्ञेय जी और महादेवी जी के साथ था।महादेवी जी ने बड़ी रुचि से वह पूरी प्रदर्शनी देखी।बीच बीच में वह अज्ञेय जी से प्रश्न भी करती रहीं ।महादेवी जी अज्ञेय को अपना भाई जैसा मानती थीं और अज्ञेय जी भी उनका बहुत आदर सम्मान किया करते थे।

एक और प्रसंग है गोवा में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के महाधिवेशन की कवरेज को लेकर ।गोवा सबसे बाद में भारत में शामिल हुआ था।उस अवसर पर कांग्रेस पार्टी का वहां महाधिवेशन हुआ था 1967 या 1968 में,ठीक से याद नहीं ।उसे कवर करने के लिए अज्ञेय स्वयं गये।वहीं से उन्होंने अपनी रिपोर्ट ‘दिनमान’ के ताज़ा अंक के लिए भेजी जो हर मंगलवार को छपने के लिए चला जाता था ।आज जैसी द्रुतगामी व्यवस्था उन दिनों नहीं थी,बावजूद इसके उन्होंने एक विमान चालक के माध्यम से अपनी रपट भेज दी जो समय पर छप गयी ।लोगों को यह देखकर हैरानी हुई कि दैनिक समाचारपत्रों के साथ एक साप्ताहिक में इतनी विस्तृत रपट कैसे छप गयी।खैर अज्ञेय जी तो अज्ञेय जी ही हैं। उनकी गोवा की रिपोर्टिंग और बिहार के अकाल की फोटोग्राफी केवल ‘दिनमान’के लिए ही नहीं हिंदी पत्रकारिता के लिए एक नज़ीर थी: एक,on the spot रिपोर्टिंग से अखबार की विश्वसनीयता बनती और बढ़ती है इसलिए किसी भी रिपोर्टर को घटना/दुर्घटना को कवर करने जाने के लिये अपने साथ कैमरा या कैमरे वाला लेकर जाना चाहिए और दूसरे साहित्यकार संपादक भी एक बेहतरीन रिपोर्टर हो सकता है ।और फिर अज्ञेय जैसा साहित्यकार जो क्रांतिकारी रहा हो, फौजी भी,ड्राइवर भी और यायावर भी ।गोवा से लौट कर उन्होंने मुझे बुलाकर पीले रंग की एक पर्ची देते हुए कहा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिया से बातचीत पर आधारित एक रपट बना दें इन पॉइंट्स को भी उसमें समेट लें ।उनसे गोवा में मेरी मुलाकात और बात हुई थी । पर्ची मैंने उलट पलट कर देखी,उस पर तीन-चार पॉइंट्स लिखे हुए थे।अज्ञेय ने हंसते हुए कहा, इसमें मुश्किल क्या है ।आप टाइपराइटर पर बैठें,अपने आप स्टोरी तैयार हो जायेगी।न जाने मुझ पर उन्हें
ऐसा और इतना क्यों भरोसा था।मैंने भी उनके भरोसे को बनाये रखा और उसे गलत साबित नहीं होने दिया।संवाद तैयार करके मैंने उनके कक्ष में भेज दिया।पांच मिनट बाद वह वापस आ गया।उन्होंने सिर्फ एक शब्द जोड़ा था।ऐसा था अज्ञेय का अपने सहयोगियों पर विश्वास।

अज्ञेय जी ने हर कदम पर सीख दी। ‘दिनमान’ के अपने कार्यकल के आखिरी दिनों में वह अधिक प्रसन्न नहीं थे।बिना उनकी अनुमति के टाइम्स स्कूल से प्रशिक्षण प्राप्त महेश्वरदयालु गंगवार की ‘दिनमान’ में जब पोस्टिंग की गयी, उन्हें अच्छा नहीं लगा ।अपनी शिकायत उन्होंने प्रबंधन के पास दर्ज करा दी।जनवरी 1969 को उन्होंने प्रयाग शुक्ल को अपना नियमित सहयोगी बना लिया ।अभी तक वह फ़्रीलांसिंग कर रहे थे ।कुछ दिनों बाद उन्होंने रघुवीरसहाय की नियुक्ति की भी मांग की।टाइम्स ऑफ इंडिया मुख्यालय मुंबई स्थित महाप्रबंधक पी के रॉय ने जब ज़्यादा ही दखलंदाजी की तो रघुवीरसहाय को बागडोर सौंप वह बर्कले चले गये ।प्रारंभ में रघुवीरसहाय कार्यकारी संपादक रहे ।जब सितम्बर,1969 में अज्ञेय ने अमेरिका से अपना इस्तीफा भेजा तो पी के रॉय को तकलीफ तो हुई लेकिन उसे उन्हें स्वीकार करना पड़ा ।उसके बाद ही रघुवीरसहाय ‘दिनमान’के विधिवत संपादक बने ।

रघुवीरसहाय ‘दिनमान’ के 1982 तक संपादक रहे यानी 13 बरसों तक।उन्होंने वात्स्यायन जी के समय के लोगों के साथ ही काम किया ।मनोहर श्याम जोशी,श्रीकांत वर्मा और राम धनी नौकरी छोड़ गये थे।रमेश वर्मा का एक दुर्घटना में निधन हो गया था।अपनी पसंद से उन्होंने केवल बनवारी जी को रखा।टाइम्स स्कूल से विनोद भरद्वाज,नरेश कौशिक और सुषमा पाराशर (बाद में जगमोहन) आयीं। रामसेवक श्रीवास्तव को विशेष संवाददाता बनाया।मोटे तौर पर काम का वितरण वैसा ही रहा जैसा वात्स्यायन जी के समय था ।मेरे पास विदेश और प्रतिरक्षा के अतिरिक्त स्थानीय समाचार भी थे।कुछ विशिष्ट assignment संपादक सौंपते रहते थे ।जैसे लद्दाख,खादी ग्रामोद्योग,राजस्थान,भूदान,बिहार का आदि ।उन्हीं दिनों मेरा खूब विदेश जाना भी हुआ । रघुवीरसहाय ने पत्रिका में समाजवादी विचारधारा को कुछ ज़्यादा महत्व और तरजीह देनी शुरू कर दी ।

‘नवभारत टाइम्स का विशेष संवाददाता’ होने के कारण रघुवीरसहाय को प्रबंधन पहले से जानता था। शुरू शुरू उसे कोई दिक्कत भी नहीं हुई और ‘दिनमान’ का प्रकाशन टाइम्स हाउस,7 बहादुर शाह जफर से जारी रहा।रघुवीरसहाय के समय जो मुख्य घटनाएं मुझे याद पड़ रही हैं वे हैं: 1970-71 का भारत-पाकिस्तान युद्ध जिसके फलस्वरूप बंगलादेश वजूद में आया और पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के बाद 90 हज़ार युद्धबंदी बनाये गये।संपादक के विरोध के बावजूद ‘दिनमान’ कार्यालय का 10, दरियागंज शिफ्ट होना तथा 1975 में देश भर में इमरजेंसी का लागू होना और 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस की पराजय के बाद जनता पार्टी के रूप में नये शासक दल का अभ्युदय जिस में जनसंघ, जनता दल,लोकदल आदि प्रमुख विपक्षी पार्टियों का विलय ।एकजुटता का यह कार्य सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण की महती भूमिका से ही संभव हो पाया था।जनता पार्टी की सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे और अटल बिहारी वाजपेयी विदेशमंत्री । जेपी ने ऐलान तो कर दिया था कि भारत में भी दोदलीय व्यवस्था ने जन्म ले लिया है अर्थात कांग्रेस,जनता पार्टी और तीसरे दल के तौर पर वामपंथी पार्टियां । लेकिन दो-ढाई बरस बाद ही जनता पार्टी में पहले फूट पड़ी और बाद में टूट गयी । मोरारजी देसाई बमुश्किल ढाई बरस तक प्रधानमंत्री के पद पर रहे और जुलाई 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक चौधरी चरणसिंह देश के प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को तो संबोधित किया परंतु राजपथ से गणतंत्र दिवस की परेड नहीं देख पाये। बैसाखियों पर टिकी उनकी सरकार गिर गयी।1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और इंदिरा गांधी की वापसी हो गयी। इस पूरे घटनाक्रम को ‘दिनमान’ ने बड़ी शिद्दत के साथ कवर किया।उसकी प्रसार संख्या में खासा इज़ाफा हुआ।

इस पूरे समय में ‘दिनमान’ की बहुत अहम भूमिका रही।रघुवीरसहाय और प्रयाग शुक्ल ‘स्वाधीन’ बंगलादेश जाने वाले पहले पत्रकारों की टोली में थे।भारत-पाक युद्ध भी बहुत व्यापक और विस्तृत ढंग से कवर हुआ और ‘दिनमान” की प्रसार संख्या खूब बढ़ी । जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा के कई लंबे इंटरव्यू छापे गये ।’दिनमान’ से उनका खास राब्दा कायम हो गया।1972 में भारत-पाकिस्तान के बीच शिमला समझौते की भी विस्तृत कवरेज हुई ।पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़ुल्फिकार अली भुट्टो और सांसद पीलू मोदी बचपन के दोस्त थे ।इस पूरी वार्ता और समझौते तक वह शिमला में ही रहे। भारतीय नेताओं से वार्ता के बाद वह काफी वक़्त पीलू मोदी के साथ बिताया करते थे।’दिनमान’ एक वाहद पेपर था जिसके साथ उन्होंने खुलकर बात की थी।यह दायित्व रघुवीरसहाय ने मुझे सौंपा था।मेरी यह बातचीत उन्हें अच्छी लगी थी।इसके बाद मेरा पीलू मोदी के यहां आना जाना शुरू हो गया। भुट्टो और अपनी दोस्ती को लेकर उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी ‘ज़ुल्फी माई फ्रैंड’ जो उन्होंने मुझे भेंट की थी ।यह किताब अभी भी मेरे पास है ।

यहां भी नेतृत्व संपादक ने आगे रह कर किया और इसीप्रकार इमरजेंसी से भी निपटे। इमरजेंसी में संवाद क्लियर करने का दायित्व मुख्यतया पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) का होता था लिहाजा यहां रघुवीरसहाय का ‘नवभारत टाइम्स ‘ का उनका विशेष संवाददाता का काल काम आया ।उन्हें या उनके साथ किसी अन्य सहयोगी को आया देखकर पीआईबी अधिकारी तुरंत काम कर दिया करते थे ।कुछ संवाद ऐसे ढंग से लिखे जाते जो सरकारी बाबुओं के पल्ले नहीं पड़ते थे लेकिन रघुवीर जी उन्हें पास करा लिया करते थे।उस समय समचार भी पीआईबी से क्लियर कराने होते थे जो हम लोग जाकर करा लाते थे। इन इतने महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में ‘दिनमान’ की प्रसार संख्या खासी बढ़ गयी । 1980 में कांग्रेस के पुन: सत्तारूढ़ होने के बाद ढलान शुरू हो गयी थी ।प्रबंधन के साथ रघुवीरसहाय की खटपट रहने लगी ।मुंबई से दिल्ली आते ही कन्हैयालाल नंदन खासे सक्रिय हो गये थे।एक बार वह टाइम्स ऑफ इंडिया के चेयरमैन अशोक जैन को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से मिलवाकर लाये थे।उसके बाद उन्होंने प्रबंधन तथा और लोगों से कहना शुरू कर दिया था कि ‘जब बच्चा पेपर का संपादक अपने चेयरमैन को प्रधानमंत्री से मिलवा सकता है तो किसी बड़े पेपर का एडिटर होने पर वह क्या कुछ नहीं कर सकता!’ उस समय वह ‘पराग’ के संपादक थे और उनकी
नज़र ‘दिनमान’ पर थी।’सारिका’ के साथ कमलेशवर के मुंबई से दिल्ली न आ पाने की वजह से उसकी ज़िम्मेदारी भी नंदन जी को सौंप दी गयी थी। उनके शब्द हुआ करते थे ‘हर बीमार पेपर मुझे दिया जाता है और मैं उसे तन्दरुस्त कर देता हूं’। अब उनकी पहुंच चेयरमैन तक हो गयी थी।महाप्रबंधक रमेशचंद्र पहले से ही उनके मित्रों में थे।लिहाजा 1982 में कन्हैयालाल नंदन को ‘दिनमान’ का जब संपादक नियुक्त किया गया और रघुवीरसहाय को नवभारत टाइम्स में फीचर एडीटर बनाकर भेज दिया गया तब वहां संपादक थे राजेंद्र माथुर। नंदन जी ने तब कहना शुरू कर दिया था कि ‘वेतन वही और ज़िम्मेदारी तीन तीन पत्रिकाओं की, वेतन जस का तस, उसमें कहीं कोई वृद्धि नहीं ।यह ज़रूर है कि मेरा टाइम्स संस्थान में मान-सम्मान बढ़ता जा रहा था।मैं कोई बात भी कहता तो उस पर गौर किया जाता था ‘। नंदन जी ने प्रबंधन से ‘पराग’ और ‘सारिका’ के लिए अलग से संपादक नियुक्त करने की सिफारिश की क्योंकि साप्ताहिक होने के कारण ‘दिनमान’ का काम फुलटाइम का था ।उसपर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है ।लिहाजा ‘पराग’में हरिकृष्ण देवसरे को नियुक्त किया गया और अवधनारायण मुद्गल को ‘सारिका’ की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। देवसरे आकाशवाणी से आये थे और मुद्गल की तरक्की हुई थी ।प्रबंधन ने संपादक उन्हें contract basis पर बनाया जो उनके लिए ‘घातक’ सिद्ध हुआ।

कन्हैयालाल नंदन के ‘दिनमान’का कार्यभार संभालने के साथ ही बनवारी ने इस्तीफा दे दिया। वह तो रघुवीरसहाय के कारण आये थे।कुछ समय बाद प्रयाग शुक्ल ने ‘नवभारत टाइम्स ‘ में ट्रांसफर करा लिया ।नरेश कौशिक बीबीसी चले गये।उन्होंने सबसे पहले मुझे विदेश और प्रतिरक्षा की रिपोर्टिंग से हटाकर स्वदेश की रिपोर्टिंग में डाल दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मैं था और मेरा आकाश’ में इस बाबत लिखा है कि ‘उसके पीछे ‘दिनमान’के अनेक लोगों की शिकायत थी कि श्री त्रिलोक दीप, जो कुछ जिस विदेश के बारे में छापते हैं,उस दूतावास में जाकर अनेक सुविधाएँ प्राप्त करते हैं ।मेरे पास इसका कोई प्रमाण नहीं था और ऐसा होना अस्वभाविक भी नहीं था,लेकिन कुछ अन्य सहयोगियों की आत्मतुष्टि के लिए यह काम करना पड़ा और याद करता हूं तो अब तक मुझे इसका मलाल सालता रहता है कि मैंने उनकी बीट क्यों बदल दी? लेकिन जून,1983 में जब विदेश मंत्रालय के माध्यम से मुझे पश्चिम जर्मन सरकार (तब दो जर्मनी थीं पूर्व और पश्चिम) से आठ दिनों तक उनके देश की यात्रा का निमंत्रण पत्र मिला तो नंदन जी अपने तथकथित चहेतों से यह ज़रूर कहते पाये गये कि अब तो विदेश बीट उनके पास नहीं है और एक साल से
उन्होंने विदेश की कोई स्टोरी भी नहीं की है फिर यह न्योता कैसे! मेरे किसी जानने वाले ने तब टिप्पणी की थी,क्योंकि वह बेलाग पत्रकार हैं ।इस निमंत्रण के साथ मैंने बेल्जियम, नीदरलैंड्स और ब्रिटेन का निमंत्रण भी प्राप्त कर लिया और अपनी उसी टिकट में न्यूयॉर्क भी जुड़वा लिया ।मेरी यह ट्रिप करीब एक महीने की हो गयी।इसी ट्रिप में न्यूयॉर्क में भारतीय नेता अटलबिहारी वाजपेयी से मुलाकात हो गयी।वापसी में मैंने ‘दिनमान’के लिए कई संवाद लिखे ।न्यूयॉर्क में अटल जी से मुलाकात के अतिरिक्त लंदन के पास रेडिंग में तथाकथित खालिस्तान के तथाकथित नेता जगजीतसिंह चौहान से लंबी बातचीत भी की।

मेरी बीट बदलने के बाद नंदन जी ने मुझे ‘काल गर्ल्स’ पर कवर स्टोरी लिखने को कहा।किसी ने धीमी आवाज़ में टिप्पणी की ‘अब यही कसर बाकी थी ।क्या ऐसी स्टोरीज़ से ‘दिनमान’ की प्रसार संख्या बढ़ जायेगी।बेशक दीप जी अपनी खोजी पत्रकारिता के चलते इसे एक बेहतरीन मानवीय संवाद बना देंगे लेकिन हमारे संपादक की सोच का तो पता चल ही जाता है ।’ खैर मैंने अपने उस संवाद पर काफी परिश्रम किया ।डॉ प्रकाश कोठारी से लेकर पुलिस,समाज के विभिन्न वर्गों और कॉल गर्ल्स की मजबूरियों पर ‘दिनमान’ के स्तरानुकूल एक गठी हुई स्टोरी देने की कोशिश की ।विदेश की कुछ घटनाओं का भी उल्लेख किया।अज्ञेय का मूलमंत्र सदा याद रहता है कि विषय चाहे जो या जैसा हो उसके सही और ईमानदाराना ढंग एवं परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुतिकरण करने मे कोताही नहीं होनी चाहिए ।मैंने वैसा ही प्रयास किया और अश्लीलता की कहीं झलक भी उस संवाद में संपादक सहित किसी को नहीं दीखी।

बहरहाल,इसे मैं टेस्ट के तौर पर देखता था ।शायद नंदन जी इस बात की थाह लेना चाहते थे कि विदेश और प्रतिरक्षा के अलावा मैं और किसी विषय या मुद्दे की समझ रखता हूं कि नहीं ।वह संभवतः अज्ञेय जी की ऐसी ट्रेनिंग से वंचित रहे हैं और उनकी पत्रकारिता के गहन अध्ययन से अनभिज्ञ थे।समय गुजरता गया।मुझे भिंड-मुरैना में डाकू मल्खान सिंह के आत्मसमर्पण के समारोह को कवर करने के लिए भेजा गया ।मेरी आंखों देखी रपट को भी सराहा गया।योगराज थानी की अनुपस्थिति में मैंने खेल और खिलाड़ी स्तंभ भी कुछ समय तक संभाला ।एक बार प्रतिरक्षा मंत्रालय से प्रायोजित यात्रा का निमंत्रणपत्र आया,संपादक शायद किसी और को भेजना चाहते थे।लेकिन रक्षा मंत्रालय की ओर से विनम्र निवेदन किया गया कि ‘दीप जी 1969 से इस मंत्रालय को कवर कर रहे हैं और हमारी कार्यशैली से परिचित हैं, फिर भी संपादक जी जो चाहें।’

कुछ माह या शायद साल तक नंदन जी विभिन्न विषयों पर मुझे संवाद लिखने की जिम्मेदारियां देते रहे।इस बीच उन्होंने अपनी पसंद के कुछ लोग भी भर्ती कर लिये ।प्रमुख थे उदय प्रकाश,अलोक मेहता, और धीरेन्द्र अस्थाना।धीरेन्द्र को प्रूफरीडर, उदय प्रकाश उपसंपादक और आलोक मेहता को राजनीतिक संवाददाता नियुक्त किया गया।धीरेन्द्र अस्थाना के चले जाने के बाद उनके स्थान पर संतोष तिवारी लिए गये। 1984 के दंगों के बाद जसविंदर को रखा गया।बाद में वह भी बीबीसी चले गये। जब पंजाब में उग्रवाद बढ़ा तो उसे कवर करने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गयी ।अब हालत यह हो गयी थी कि मैं हर हफ्ते अमृतसर जाने लगा ।संपादक की अनुपस्थिति में भी मैं दौरे पर चला जाया करता था ।संत जरनैलसिंह भिंडरांवाले,संत हरचंदसिंह लोंगोवाल,प्रकाश सिंह बादल,सुरजीत सिंह बरनाला,अकाली नेता मास्टर तारासिंह की बेटी राजिंदर कौर,कांग्रेसी नेता दरबारा सिंह,ज्ञानी जैलसिंह,राज्यपाल अर्जुनसिंह,मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत,अटल बिहारी वाजपेयी सहित कुछ ऐसे नेता थे जिनसे मेरे करीबी संबंध थे और आतंकवाद से जुड़ी मेरी स्टोरी में किसी न किसी की टिप्पणी अवश्य होती थी। अज्ञेय जी ने एक बार मुझे सीखनुमा हिदायत देते हुए कहा था कि सदा आग के साथ खेलना बहादुरी नहीं होती।लेकिन अब क्या कीजै संपादक के आदेश की भी तो अवहेलना नहीं की जा सकती।

31 अक्टूबर,1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद इस पूरी घटना को कवर करने की ज़िम्मेदारी मेरी थी।पहली नवंबर को तीनमूर्ति भवन इंदिरा गांधी का शव रखा जाना था ।वहां से लेकर उनकी अंत्येष्टि तक कवर करने का मेरा दायित्व था।पहली नवंबर को सुबह करीब साढ़े छह बजे मैं अपने बेटे अमरदीप सिंह के साथ तीनमूर्ति भवन पहुंच गया।आठ बजे राजीव गांधी,राहुल गांधी,अमितभ बच्चन,रोमी चोपड़ा आदि इंदिरा गांधी का शव लेकर पहुंच गये ।भीतर मैं और मेरा बेटा भी थे।उस समय शायद मैं एकमात्र पत्रकार था जिसने इंदिरा गांधी को इतने करीब से अपनी श्रद्धांजलि दी थी। उसके बाद जब हम बाहर निकले तो हमारा विरोध शुरू हो गया और सिखों के खिलाफ नारे लगने लगे ।मेरे पुलिस उपायुक्त मित्रों पंडित गौतम कौल और हरिदेव पिल्लै ने मुझे तुरंत वहां से खिसक जाने की सलाह देते हुए कहा कि ‘सीधे घर जाओ,बेटे को घर छोड़ने के बाद तुम बेशक अपनी रिपोर्टिंग करते रहो लेकिन संभल के माहौल तनावपूर्ण है ।’ मैं ठहरा ज़िद्दी,बेटे को घर छोड़ने के बाद स्कूटर उठाया,पहले नयी बिल्डिंग गया,वहां से कुछ भुगतान लेना था।वहां की घूरती नज़रों की परवाह किये बगैर स्कूटर को किक मार 10,दरियागंज अपने ऑफ़िस की ओर चल दिया।दिल्ली गेट चौराहे पर लाल बत्ती की वजह से रुकना पड़ा ।एक भलामानस पुलिस वाला आकर मेरे कान में फुसफुसहट हुए बोला, सीधा गोलचा सिनेमा की तरफ मत जाइयेगा, अंसारी रोड से तेज़ी से स्कूटर निकाल लो ।देखा ऑफ़िस के बाहर भी भीड़ जमा थी।हार्न देकर सीधे दफ्तर के अंदर दाखिल हो गया।मुझे लेने के लिए नंदन जी सहित सभी सहयोगी नीचे उपस्थित थे।दूसरी मंज़िल पर अपने दफ्तर पहुंच संक्षेप में साथियों को अपनी आप बीती सुना कर टाइपराइटर पर बैठ गया।घंटे भर में अपनी स्टोरी नंदन जी को सौंप दी।उन्होंने उस पर अपनी एक संपादकीय टिप्पणी लिखकर कम्पोजिंग के लिए भेज दी।अपने ऑफ़िस से ही हमने लोगों के घरों,दुकानों को जलते हुए देखा।उस रात नंदन जी ने हमारे रहने की व्यवस्था टाइम्स ऑफ इंडिया के गैस्ट हाउस 4, तिलक मार्ग में की।मेरे साथ एक और सिख साथी था परमजीत सिंह ।अगले दिन सुबह चार बजे हमें प्रेस की गाड़ी अपने अपने घर छोड़ आयी। थोड़ा संभलने पर पुन: अज्ञेय की चेतावनी याद आयी जिसे मैं ज़रूरत के वक़्त भूल जाता हूं ।

लेकिन जल्दी ही कन्हैयालाल नंदन को दुर्दिनो का सामना करना पड़ा ।उनके बेशक कंपनी के चेयरमैन और महाप्रबंधक से मधुर संबंध थे लेकिन समीर जैन से नहीं ।वह शुद्ध उद्योगपति हैं,अपनी पत्रिकाओं को एक ‘उत्पाद’ की तरह देखते थे ।’दिनमान’ की प्रसार संख्या घट रही थी ।इस बीच समीर जैन ने अपनी चचेरी बहन ऋचा जैन को 10,दरियागंज की पत्रिकाओं का ज़िम्मा सौंप दिया।ऋचा जैन रमा और शांतिप्रसद जैन के छोटे बेटे आलोक जैन की बेटी थी।उन्होंने संपादक से पूछे बिना रिपोर्टरों और उपसंपादकों से सीधे बातचीत करनी शुरू कर दी।एक दफे मुझे एक पर्ची भेजी कि वह अर्जुनसिंह की किसी चुनावी सभा को देखना चाहती हैं ।उन दिनों अर्जुनसिंह पश्चिमी दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे। अर्जुनसिंह जी के स्टाफ से बात कर तिलक नगर की एक सार्वजनिक सभा दिखाने के लिए मैं ऋचा जी को ले गया। पता चला कि ऋचा जी के नंदन जी से मधुर संबंध नहीं हैं ।इसका असर यह हुआ कि उन्हें ‘दिनमान’ से हटा कर नवभारत टाइम्स में फीचर एडीटर बनाकर ट्रांसफर कर दिया गया और उनके स्थान पर आये सतीश झा,जो उस समय इंडियन एक्सप्रेस में कार्यरत थे ।वह समाजसेवी ओमप्रकाश दीपक के दामाद थे ।इस प्रकार नंदन जी कुल जमा पांच बरस तक ‘दिनमान’ के संपादक रहे ।उनकी कुर्सी बचाने में अशोक जैन और रमेश चंद्र से निकटता भी काम नहीं आयी।

अब सतीश झा ठहरे अंग्रेज़ी के पत्रकार,ज़बान उनकी हिंदी थी लेकिन पत्रकारिता वह अंग्रज़ी की किया करते थे ।बेशक उन्होंने मौजूदा संपादकीय सहकर्मियों में बदलाव नहीं किया लेकिन अपनी सुरक्षा की दृष्टि से वह ‘अपने’ कुछ लोगों का समर्थन लेते रहे । उदय प्रकाश लंबी छुट्टी पर चले गये । उनके स्थान पर विजय मिश्र को रखा गया।नवभारत टाइम्स से श्रीकांत त्रिपाठी लाये गये ।मुख्य लेखन कार्य अभयकुमार दुबे करते थे जो उन दिनों ‘जनसत्ता’ से जुड़े हुए थे। बाकी लोग भी अपने नियमित स्तंभ लिखा करते थे।कह सकते हैं कि औपचारिक तौर पर एक पत्रिका निकल रही थी जिसकी प्रसार संख्या निरंतर गिर रही थी ।इसी बीच अगस्त, 1987 में मुझे सोवियत संघ की यात्रा का निमंत्रणपत्र प्राप्त हुआ ।मैं दस दिन के लिए बाहर चला गया।इस बार ज़्यादा वक़्त मैंने साइबेरिया में गुज़ारा ।सतीश झा भी ज्ल्दी विदा हो गये, बमुश्किल साल भर रहे होंगे ।

उनके स्थान पर आये घनश्याम पंकज ।इससे पहले वह अपना कार्यभार संभालते, टाइम्स ऑफ इंडिया के मालिक समीर जैन ने ‘दिनमान’के सभी कर्मचारियों के साथ एक मुलाकात कर यह जानने की कोशिश की कि पेपर के प्रकाशन को कैसे जारी रखा जाये।समीर जैन के अलावा रमेश चंद्र भी उपस्थित थे ।समीर जी के किसी मित्र ने भी हम लोगों को संबोधित किया था। वहां ज़्यादातर सैद्धांतिक बातें ही होती रहीं जिनके पालन करने से शायद ही आशातीत परिणाम प्राप्त हो पाते ।अन्ततः यह तय हुआ कि कुछ समय तक अतिथि संपादक की प्रथा शुरू की जाये ।नामों की सूची तैयार होने लगी और विषयों का चयन भी ।इस काम के समन्वय का दायित्व घनश्याम पंकज को सौंपा गया।पहले अतिथि संपादक थे इंदर कुमार गुजराल।उनकी सलाह पर और लोगों से लिखवाया गया ।मुझे ज्ञानी दर्शनसिंह रागी की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी जो कभी अकाल तख्त के प्रेसीडेंट रहे थे।उनसे कई बार मिलने के लिए चंडीगढ़ जाना पड़ा ।गुरुमुखी लिपि में प्राप्त उनके आलेख और संपादकीय मैंने ही अनुवाद किये ।इस सिलसिले में मुझे लोकसभा के पूर्व महासचिव और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्यामलाल शकधर से मिलने के कई अवसर मिले ।1956 में
उन्होंने ही मुझे लोकसभा में नौकरी दी थी।तब वह संयुक्त सचिव थे।इसी प्रकार वायस ऑफ़ अमेरिका के ब्यूरो प्रमुख अमेरिकी -भारतीय रवि खन्ना को मिला।भारत में वीओए के ब्यूरो प्रमुख बनने वाले वह पहले भारतीय-अमेरिकी थे।उनसे भी कई विषयों पर बातचीत हुई ।1979 में अपनी अमेरिकी यात्रा के दौरान वॉशिंगटन में वीओए के ऑफ़िस में रवि खन्ना से मेरी पहली भेंट हुई थी।जब मैं वहां पहुंचा तो वह समाचार पढ़ रहे थे। समाचार समाप्त करने से पहले उनका यह कहना कि ‘आज हमारे बीच दिल्ली से आये ‘दिनमान’ के त्रिलोक दीप उपस्थित हैं जो यह समाचार बुलेटिन देख रहे,हम उनका स्वागत करते हैं’ सुनकर आश्चर्य हुआ ।इसपर उनकी टिप्पणी थी कि वीओए समाचार देता है बीबीसी की तरह संपादकीय नहीं’। बहरहाल, ‘दिनमान’ में अतिथि संपादक का यह प्रयोग भी कामयाब नहीं रहा। 31अक्टूबर,1989 को मैंने ‘दिनमान’ से इस्तीफा दे दिया और पहली नवंबर को
कार्यकारी संपादक के तौर पर ‘संडे मेल’ में आ गया ।बाद में ‘दिनमान’ का रूप-स्वरूप बदल गया और वह भी ‘संडे मेल’ की तरह बराडशीट बनकर ‘दिनमान टाइम्स’में परिवर्तित हो गया। जिस ‘दिनमान’ को 1965 में बड़े फख्र के साथ साहू शांतिप्रसद जैन और रमा जैन ने शुरू किया था 1990 में उनके पौत्र समीर जैन ने उसकी इतिश्री कर दी संस्थान की अन्य पत्रिकाओं की तरह ।

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