hospitalसवा अरब से ज़्यादा आबादी वाले भारत में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की हालत किसी से छिपी नहीं है. अव्वल तो हर जगह अस्पताल नहीं है. अस्पताल है, तो डॉक्टर नहीं हैं. डॉक्टर हैं, तो दवाओं-उपकरणों का टोटा है. यदि सब कुछ है, तो उन तक आम आदमी की पहुंच नहीं है. और, यदि वह किसी तरह अस्पताल की चौखट पर दस्तक देने में कामयाब भी हो जाए, तो वहां व्याप्त लापरवाही, कर्तव्यहीनता एवं उपेक्षा उसे इलाज के अभाव में दम तोड़ देने को बाध्य कर देती है. इसी वजह से समर्थ लोग नर्सिंग होम्स और निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं, लेकिन वहां भी स्थिति ज़्यादा भिन्न नहीं है.

मरीज का परिवार आर्थिक रूप से तो लुटता-पिटता ही है, इलाज के दौरान लापरवाही या परिस्थितियोंवश कोई अनहोनी हो जाने पर उसकी ज़िम्मेदारी भी उसके सिर पर डाल दी जाती है. दाखिले के समय इस आशय की सहमति लिखित रूप में ले ली जाती है. बावजूद इसके, ऐसा नहीं है कि अस्पताल सरकारी हों या निजी, इलाज के दौरान मरीज को किसी तरह की शारीरिक क्षति पहुंचने अथवा उसकी मौत हो जाने की स्थिति में अपनी ज़िम्मेदारी से बच जाएंगे.

देश की विभिन्न अदालतों ने ऐसे कई मामलों की सुनवाई करते हुए पीड़ित पक्ष के हक़ में फैसला देकर दोषियों को दंडित किया. आज से पांच माह पहले सात अगस्त, 2015 को पंजाब के अमृतसर स्थित पार्वती देवी अस्पताल के मालिक और वहां कार्यरत डॉ. जेएस सिद्धू पर ज़िला उपभोक्ता अदालत ने पांच-पांच लाख रुपये का हर्जाना लगाया. आरोप यह था कि अस्पताल एवं डॉ. सिद्धू की लापरवाही के चलते रूपेश नामक उस युवक की मौत हो गई, जो दो जुलाई 2011 को बुखार से पीड़ित होने के कारण दाखिल हुआ था.

रूपेश के पिता अशोक भंडारी ने अदालत को बताया कि अस्पताल ने डॉ. सिद्धू के गेस्ट्रोएनोलॉजिस्ट होने का बोर्ड लगा रखा था, जबकि वह केवल एमडी हैं. रूपेश का वहां चार दिनों तक इलाज चलता रहा. इस दौरान लीवर एवं किडनी की जांच के लिए जिन दवाओं-उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है, उनकी अनदेखी की गई. नतीजतन, रूपेश की हालत बिगड़ने पर उसे एस्कॉर्ट अस्पताल ले जाना पड़ा, जहां 39 दिनों के इलाज के बाद उसकी मौत हो गई. अशोक एस्कॉर्ट में 11,92,036 रुपये खर्च करने के बावजूद अपने बेटे को नहीं बचा सके, क्योंकि उसकी हालत पहले ही बिगड़ चुकी थी.

इससे पहले 26 अप्रैल, 2015 को राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग ने दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल और वहां कार्यरत गायनोकोलॉजिस्ट डॉ. सोहिनी वर्मा पर एक करोड़ रुपये का हर्जाना लगाया था, जो उस दंपत्ति को मिलना था, जिनकी बच्ची जन्म के समय चिकित्सकीय लापरवाही के चलते मानसिक तौर पर निशक्त होकर महज 12 वर्ष की आयु में चल बसी थी.

बच्ची की मां इंदू 10 जून, 1999 को डिलीवरी के लिए इंद्रप्रस्थ अपोलो में भर्ती हुई थीं. डॉक्टरों ने कहा कि सारी रिपोट्‌र्स नॉर्मल हैं, लेकिन हालत बिगड़ने पर उन्हें सीनियर डॉक्टर के बजाय रेजिडेंट डॉक्टर ने अटैंड किया. अगले दिन उन्हें सिंटोसिनॉन नामक दवा का हैवी डोज दे दिया गया और डिलीवरी में भी 27 घंटे का विलंब हुआ, जिससे गर्भस्थ शिशु को मानसिक क्षति पहुंची. 2002 में बच्ची के माता-पिता ने मेडिकल नेगलिजेंस का आरोप लगाते हुए आयोग में गुहार की.

मामले की सुनवाई के दौरान बच्ची की मौत हो गई. फैसला देने वाली खंडपीठ की अध्यक्षता कर रहे न्यायाधीश जेएम मलिक ने विशेष टिप्पणी करते हुए कहा, कॉरपोरेट अस्पतालों एवं विशेषज्ञ डॉक्टरों से उम्मीद की जाती है कि वे अन्य से बेहतर प्रदर्शन करेंगे. इसी तरह 24 अक्टूबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता स्थित एएमआरआई अस्पताल एवं तीन डॉक्टरों को इलाज में

लापरवाही बरतने का दोषी पाते हुए पीड़ित पक्ष को पांच करोड़ 96 लाख रुपये का मुआवज़ा देने का आदेश दिया था. विद्वान न्यायाधीश जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय एवं जस्टिस वी. गोपाल गौड़ा की खंडपीठ ने अपना उक्त फैसला अमेरिका निवासी भारतीय मूल के डॉ. कुणाल साहा के पक्ष में दिया था. 1998 में साहा की पत्नी अनुराधा की एएमआरआई अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई थी.

पिछले कुछ सालों के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी कई खबरें आईं, जोे बताती हैं कि डॉक्टरी अब मिशन नहीं रही, बल्कि पेशा बन गई है. और ऐसा पेशा, जो जरायम की दुनिया से जुड़े तत्वों को भी शर्मसार कर दे. बीते नवंबर माह में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के स्वामी दयानंद अस्पताल में वेतन वृद्धि की मांग को लेकर हुई हड़ताल 10 वर्षीय आशीष पर भारी पड़ गई.

आशीष को उसके परिवारीजन शरीर में अकड़न होने की शिकायत पर अस्पताल लेकर आए, लेकिन डॉक्टरों ने उसे देखने से मना करते हुए जीटीबी अस्पताल रेफर कर दिया, जहां वह काल के गाल में समा गया. इसी दौरान एक अन्य दु:खद खबर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से आई, जहां आगजनी की शिकार हुई बस्ती ज़िला निवासिनी युवती बिमली की मौत के बाद उसका शव ससुराल वालों को महज इसलिए मेडिकल कॉलेज में छोड़ देना पड़ा, क्योंकि उनके पास घर तक एंबुलेंस ले जाने के लिए पैसे नहीं थे. युवती के मज़दूर श्वसुर प्रहलाद को मॉच्युरी से शव हासिल करने के लिए पांच सौ रुपये देने पड़े. लेकिन, एंबुलेंस लायक रकम न होने के कारण उन्हें अपना फैसला बदलना पड़ा और घर जाकर शव के बजाय पुतले का दाह संस्कार करना पड़ा.

दाखिले में हीलाहवाली, इलाज में

लापरवाही, ऑपरेशन के दौरान मरीज के शरीर में कैंची-तौलिया आदि छोड़ देना और मरीज की मौत हो जाने के बाद उसके शव के साथ अमानवीय व्यवहार के मामले अक्सर प्रकाश में आते रहते हैं. सरकारी अस्पतालों में अक्सर देखा गया है कि वार्ड ब्वॉय एवं सफाईकर्मियों से इलाज संबंधी ऐसे-ऐसे काम कराए जाते हैं, जिनका उन्हें रंचमात्र भी ज्ञान नहीं होता. नतीजा मरीजों की मौत अथवा उनकी हालत पहले से ज़्यादा बदतर हो जाने की शक्ल में सामने आता है. निजी अस्पताल-नर्सिंग होम्स तो मरीज की मौत के बाद उसका शव तब तक घरवालों के सुपुर्द नहीं करते, जब तक इलाज की पाई-पाई अदा न हो जाए.

अधिकतर नर्सिंग होम्स की कार्यप्रणाली यह है कि वे इलाके में और आसपास निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों, वे चाहे डिग्रीधारी हों या झोलाछाप, का एक नेटवर्क संचालित करते हैं. जो उन्हें मरीजों को तब हैंडओवर करते हैं, जब मामला उनके हाथ से निकल जाता है. नर्सिंग होम एक बार फिर मरीज पर एक्सपैरिमेंट करते हैं, उसके घरवालों को नोचते-खसोटते, लूटते हैं. और, फिर जब उनके हाथ से भी तोते उड़ जाते हैं, तो वे मरीज को बड़े निजी, सरकारी, अर्द्ध-सरकारी अस्पताल स्थित अपने संपर्कों के हवाले कर देते हैं.

लापरवाही दर लापरवाही

बीते आठ दिसंबर को राजस्थान के शाहाबाद ज़िले के खुशालपुरा निवासिनी लक्ष्मी बारां ज़िला अस्पताल में इलाज में लापरवाही बरते जाने के चलते जान से हाथ धो बैठी. लक्ष्मी को क़रीब आठ माह का गर्भ था. प्रसव के दौरान उसकी हालत बिगड़ गई, नतीजतन, नवजात की तुरंत मौत हो गई. अस्पताल ने लक्ष्मी की गंभीर हालत के बावजूद उसे डिस्चार्ज कर दिया. घर आने के बाद जब उसकी हालत बिगड़ने लगी, तो परिवारीजन उसे लेकर फिर अस्पताल पहुंचे, जहां उसने दम तोड़ दिया.

इससे पहले 15 नवंबर को उत्तर प्रदेश के रामपुर ज़िला अस्पताल के डॉक्टरों एवं स्टाफ ने एक गर्भवती महिला का प्रसव कराने के दौरान बेरहमी की सारी हदें पार कर दीं. थाना भोट अंतर्गत अहमदनगर तराना निवासिनी मुसरफीन को लेबर रूम में ले जाकर डॉक्टरों ने प्रसव कराना शुरू किया. शिशु का धड़ बाहर आने के बाद उन्होंने उसकी कमर पर डोर बांधकर ईंट लटका दी. नतीजतन, उसका सिर मां के पेट में फंसा रह गया और बाकी धड़ बाहर निकल कर गिर पड़ा. डॉक्टर एवं उनके सहयोगी मुसरफीन को उसी हालत में छोड़कर भाग खड़े हुए. बाद में मृत नवजात का सिर ऑपरेशन के ज़रिये मां के पेट से निकाला गया.

18 अक्टूबर को राजस्थान के जोधपुर स्थित उम्मेद अस्पताल में पाली ज़िला परिषद की सदस्य पदमा प्रजावत की मौत हो गई. गर्भवती पदमा को डॉ. रेखा जाखड़ की यूनिट में दाखिल कराया गया था. प्रसव के बाद पदमा की हालत बिगड़ने लगी. पति भरत ने फोन के ज़रिये डॉ. जाखड़ से संपर्क किया, लेकिन उनके आने से पहले ही पदमा ने दम तोड़ दिया. परिवारीजनों ने आरोप लगाया कि डॉक्टरों ने पदमा का मामला गंभीरता से नहीं लिया.

इसी तरह 23 सितंबर को हरियाणा के गुड़गांव सिविल अस्पताल में झुग्गी महरौला रोड निवासिनी अरुणा डॉक्टरों की लापरवाही के चलते अपनी जान गंवा बैठी. अरुणा को नौ माह का गर्भ था. पति सतीश ने उसे उक्त अस्पताल में दाखिल कराया, जहां डॉ. सरिता की देखरेख में उसकी डिलीवरी होनी थी. जब प्रसव का वक्त आया, तो सरिता वहां मौजूद नहीं थीं. बाकी स्टॉफ ने दर्द से तड़पती अरुणा की ओर कोई तवज्जो नहीं दी, क्योंकि यह उनका केस नहीं था. नतीजतन, अरुणा के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु ने भी दम तोड़ दिया.

किसी की दवा किसी को दे दी

जुलाई 2014 में जम्मू-कश्मीर के जम्मू शहर स्थित प्रतिष्ठित नर्सिंग होम जेके मेडिसिटी के डॉक्टरों ने ऋृतु नामक महिला को गर्भपात की दवा दे दी, जिससे उसके आठ माह के गर्भस्थ शिशु की मौत हो गई. ऋृतु अपने पति राकेश के साथ ग्लूकोज चढ़वाने नर्सिंग होम आई थी. डॉक्टरों ने राकेश से दवाएं मंगवाईं. राकेश डॉक्टरों को दवाएं देकर भुगतान के लिए मेडिकल स्टोर वापस पहुंचा, तो पता चला कि वे मामूली दवाएं नहीं, बल्कि गर्भपात की किट है. राकेश लौटकर डॉक्टरों तक पहुंचता, तब तक ऋृतु के लिए उक्त किट का इस्तेमाल किया जा चुका था.

शिकायत करने पर डॉक्टरों ने यह कहते हुए कि दवा वापस निकाल ली गई है, अब कोई खतरा नहीं है, ऋृतु को घर भेज दिया, जहां उसकी हालत खराब हो गई. उसे अस्पताल वापस लाया गया, लेकिन तब तक उसका गर्भ गिर चुका था. हंगामा होने पर अस्पताल ने दलील दी कि उसी दिन किसी अन्य महिला को गर्भपात के लिए अस्पताल आना था, जिसके धोखे में ऋृतु को दवा दे दी गई.

कचरे में फेंक दी बच्ची की लाश 

जनवरी, 2014 में दिल्ली के जनकपुरी स्थित माता चानन देवी अस्पताल के डॉक्टरों द्वारा एक नवजात बच्ची के प्रति घोर असंवेदनहीनता बरती गई. नवजात के पिता राजेश द्वारा भरपूर रकम अदा करने के बावजूद इलाज में कोताही बरतने, जांच के नाम पर इधर से उधर टहलाने और फिर बच्ची की मौत के बाद उसका शव मॉर्च्युरी में रखने के बजाय जैविकीय कचरे में फेंक दिया गया. उक्त प्री-मेच्योर बच्ची का जन्म स्थानीय खन्ना नर्सिंग होम में हुआ था. हालत खराब होने पर उसे चानन देवी अस्पताल भेज दिया गया, जहां उसके सिर में इंटरनल ब्लीडिंग की बात कहते हुए इलाज शुरू किया गया, लेकिन उसकी मौत हो गई.

राजेश ने अस्पताल प्रशासन से मिन्नत की कि बच्ची का शव मॉर्च्युरी में रख दिया जाए, ताकि वह सुबह उसका अंतिम संस्कार कर सकें. इस पर उन्हें 1,500 रुपये नाइट फीस जमा करने के लिए कहा गया. राजेश ने यह फीस भी अदा कर दी. लेकिन, जब वह अगली सुबह अस्पताल की मॉर्च्युरी पहुंचे, तो उन्हें अपनी बच्ची का शव वहां के बजाय कचरा ढोने वाले ट्रक में मिला. लगभग 32 हज़ार रुपये चानन देवी अस्पताल और उससे पहले खन्ना नर्सिंग होम में एक मोटी रकम खर्च करने के बाद राजेश एवं उनकी पत्नी नीतू के हाथ स़िर्फ बच्ची का शव और जीवन भर सालने वाला दर्द ही लगा.

रोशनी की चाह में हो गए अंधे

बीते 21 दिसंबर को गुजरात के राजकोट स्थित साधु वासवानी ट्रस्ट अस्पताल में मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद सात लोगों ने अपनी एक आंख की रोशनी गंवा दी. ज़िला स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. रूपाली मेहता के अनुसार, कुल 25 लोगों का ऑपरेशन हुआ था, जिनमें से 11 को यह समस्या पेश आई. सात लोगों को रोशनी जाने की शिकायत है, जबकि चार लोगों को आंख में खुजली होने की. ट्रस्ट के न्यासी बीबी गोगिया के अनुसार, ऑपरेशन करने वाले डॉ. हेतल बखाई एक योग्य नेत्र विशेषज्ञ हैं और अस्पताल पिछले एक दशक से ऐसे ऑपरेशन शिविर आयोजित कर रहा है, लेकिन यह पहली घटना है.

इससे पहले बीते अक्टूबर-नवंबर माह में महाराष्ट्र के वाशीम ज़िले में आयोजित एक मोतियाबिंद जांच एवं ऑपरेशन शिविर के दौरान चार लोगों ने अपनी आंखों की रोशनी गंवा दी थी और 19 अन्य मरीज विभिन्न तरह की समस्याओं के शिकार बने, जिन्हें बाद में मुंबई के जेजे अस्पताल में दाखिल कराया गया. राज्य सरकार ने ऑपरेशन के दौरान लापरवाही के आरोप में वाशीम की सिविल सर्जन सुरेखा मेंडे एवं डॉ. पीपी चौहान को निलंबित कर दिया.

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