खान अशु

 

सुरक्षा, सेवा से बंधे लोगों पर काम का बोझ इतना बढ़ गया है कि वह भूलने की आदत की गिरफ्त में आने लगे हैं….! एक हंगामा बरपा हुआ, हजारों लोग जुटे, अपने पैगंबर की बेहुरमती पर नाराजगी जताई… इस्लाम के उसूलों की बात हुई… दूसरे को तकलीफ न पहुंचाने के ईश्वरीय संदेश का जिक्र भी किया गया… मुल्क के कानून और यहां अमन ओ अमान की तहरीर को भी रेखांकित करते गए…! भीड़ जमा करने का आरोप आयद हो गया…! कागजी कार्रवाई हुई, अदालती मामले के हवाले कर दिए गए…! दो दिन गुजरे भूली याददाश्त को सुरूर आया, तरंग में फिर इसी मामले पर एक और कानूनी कार्रवाई…. कहा गया शांति भी भंग हुई है, भावनाएं भी भड़की हैं, फिर मामला, फिर केस, फिर कानूनी शिकंजे…! सियासत से ओतप्रोत प्रशासनिक कार्यवाही सवालों की खदान बन गई है….! पहली बार में सारे आरोप क्यों तय नहीं हुए…? हाथ आए मुजरिम(?) को वापस क्यों जाने दिया गया…? भूल गए थे तो अचानक याद कैसे आया…? भूल, गलती या कोताही की सजा के लिए बकरा किसी और को क्यों बनाया जा रहा है…? गलती, गुनाह, खता, कोताही हुई है तो सजा भूलने वालों के लिए क्यों नहीं…?

पुछल्ला
खिसियाहट कुछ कहती है
एक्जिट पोल ने हरी झंडी दे दी है। सरकार सुरक्षित है। खबर के बीच कार्यवाहियों का तालमेल हजम नहीं हो पा रहा। इनकम टैक्स छापों से लेकर बाबा और नेताओं के दंभ को कुचलने की अचानक बढ़ी कार्यवाहियां तो कुछ और ही बयां कर रही है। इखरे, बिखरे, छिटके लोगों को जोड़ने की कवायद भी कुछ और इशारा कर रहे हैं।

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